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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 50/ मन्त्र 10
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒त त्या मे॒ हव॒मा ज॑ग्म्यातं॒ नास॑त्या धी॒भिर्यु॒वम॒ङ्ग वि॑प्रा। अत्रिं॒ न म॒हस्तम॑सोऽमुमुक्तं॒ तूर्व॑तं नरा दुरि॒ताद॒भीके॑ ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । त्या । मे॒ । हव॑म् । आ । ज॒ग्म्या॒त॒म् । नास॑त्या । धी॒भिः । यु॒वम् । अ॒ङ्ग । वि॒प्रा॒ । अत्रि॑म् । न । म॒हः । तम॑सः । अ॒मु॒मु॒क्त॒म् । तूर्व॑तम् । न॒रा॒ । दुः॒ऽइ॒तात् । अ॒भीके॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत त्या मे हवमा जग्म्यातं नासत्या धीभिर्युवमङ्ग विप्रा। अत्रिं न महस्तमसोऽमुमुक्तं तूर्वतं नरा दुरितादभीके ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। त्या। मे। हवम्। आ। जग्म्यातम्। नासत्या। धीभिः। युवम्। अङ्ग। विप्रा। अत्रिम्। न। महः। तमसः। अमुमुक्तम्। तूर्वतम्। नरा। दुःऽइतात्। अभीके ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 50; मन्त्र » 10
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः केषां सङ्गेन कीदृशैर्भवितव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अङ्ग ! नासत्या विप्रा नरा त्या युवं धीभिर्मेऽभीके हवमा जग्म्यातमुत यथा महस्तमसोऽत्रिं न दुरितादमुमुक्तं दुर्गुणांस्तूर्वतम् ॥१०॥

    पदार्थः

    (उत) अपि (त्या) तौ (मे) मम (हवम्) आदातव्यम् (आ) (जग्म्यातम्) प्राप्नुयातम् (नासत्या) सत्याचारिणौ (धीभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा (युवम्) युवाम् (अङ्ग) मित्र (विप्रा) मेधाविनावध्यापकोपदेशकौ (अत्रिम्) सूर्य्यम् (न) इव (महः) महतः (तमसः) अन्धकारस्य (अमुमुक्तम्) मोचयेतम् (तूर्वतम्) हिंस्यातम् (नरा) नायकौ (दुरितात्) अधर्माचरणात् (अभीके) समीपे ॥१०॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्योदयं प्राप्य सर्वे पदार्थास्तमसो मुक्ता जायन्ते तथा धार्मिकं विद्वासं प्राप्याऽविद्याया जना मुक्ता जायन्ते ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को किनके सङ्ग से कैसा होना योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अङ्ग) मित्र ! (नासत्या) सत्य आचरण करनेवाले (विप्रा) मेधावी अध्यापक और उपदेशक (नरा) नायक सब में श्रेष्ठजन (त्या) वे (युवम्) तुम दोनों (धीभिः) उत्तम बुद्धि वा कर्मों से (मे) मेरे (अभीके) समीप में (हवम्) लेने योग्य पदार्थ को (आ, जग्म्यातम्) सब ओर से प्राप्त होओ (उत) और जैसे (महः) महान् (तमसः) अन्धकार से (अत्रिम्) सूर्य को (न) वैसे (दुरितात्) अधर्माचरण से (अमुमुक्तम्) छुड़ाओ और दुर्गुणों को (तूर्वतम्) नष्ट करो ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्योदय को प्राप्त होकर सब पदार्थ अन्धकार से छूट जाते हैं, वैसे धार्मिक विद्वान् को प्राप्त होकर अविद्या से मनुष्य मुक्त होते हैं ॥१०॥

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    विषय

    विद्वान् स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( उत ) और (अङ्ग ) हे ( नासत्या ) असत्याचरण करने वाले, सत्य मार्ग पर सबको लेजाने हारे ( विप्रा ) विद्वान् स्त्री पुरुषो ! ( त्या युवम् ) वे आप दोनों ( मे ) मेरे ( हवम् ) ग्राह्य पदार्थ, वचन अन्नादि को ( जग्म्यातम् ) प्राप्त करो । ( अत्रिं न ) सूर्य चन्द्र दोनों जिस प्रकार (अत्रिं ) इस लोक में रहने वाले जनों को ( महः तमसः मोचयतः) बड़े अन्धकार से मुक्त करते हैं उसी प्रकार आप दोनों (अत्रिं) इस लोक या स्थान में विद्यमान मनको ( महः तमसः ) बड़े अज्ञान रूप अन्धकार से और ( दुरितात् ) दुष्ट अधर्माचरण से भी ( अमुमुक्तम् ) सदा छुड़ाते रहो । हे ( नरा ) उत्तम नर नारियो ! उत्तम मार्ग में ले जाने हारे आप दानों ( अभीके ) सदा समीप रह कर ( तूर्वतम् ) दुष्ट जन वा दुर्गुणों का नाश करो । इति नवमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ।। विश्वे देवा देवताः ॥ छन्दः–१, ७ त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, १३ विराट् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्ति: । ९ पंक्ति: । १४ भुरिक् पंक्ति: । १५ निचृत्पंक्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    महान् अन्धकार का विनाश

    पदार्थ

    [१] (उत्) = और हे (त्या) = वे प्रसिद्ध (नासत्या) = [न+असत्य] असत्यों को हमारे जीवनों से दूर करनेवाले प्राणापानो! (युवम्) = आप (विप्रा) = हमारा पूरण करनेवाले हो । आप (धीभिः) = बुद्धिपूर्वक किये गये कर्मों के साथ (मे हवम्) = मेरी पुकार को (जग्म्यातम्) = प्राप्त होवो । जब मैं बुद्धिपूर्वक कर्मों को करता हुआ आपका आराधन करूँ, तो आप मेरी प्रार्थना को सुनो । [२] हे प्राणापानो ! (अत्रिम् न) = जैसे आप 'काम-क्रोध-लोभ' तीनों से ऊपर उठे हुए व्यक्ति को (महः तमसः) = महान् अन्धकार से (अमुमुक्तम्) = मुक्त करते हो, उसी प्रकार हे (नरा) = हमें आगे ले चलनेवाले प्राणापानो ! आप (अभीके) = प्राप्त संग्राम में (दुरितात्) = पाप से (तूर्वतम्) = [तुर्व् to save] हमें बचाते हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ—प्राणसाधना के द्वारा [क] जीवन से अस्तय दूर होता है, [ख] जीवन का विशेषरूप से पूरण होता है, [ग] अन्धकार दूर होता है, [घ] दुरित से हम बच पाते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा सूर्योदय झाल्यावर सर्व पदार्थ अंधारातून मुक्त होतात तसे धार्मिक विद्वानामुळे माणसे अविद्येतून मुक्त होतात. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    And may the Ashvins, those two complementary currents of nature’s energy, the teacher and the preacher, leading lights of the world, vibrant benefactors dear as breath of life, both committed to truth and eternal law, come in response to my invitation with gifts of intelligence and competence for holy action, protect me as Atri, the man free from physical, mental and spiritual ailments, save me from deep darkness and release me from sin and evil all round prevailing.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    By whose association how men should be and how-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O dear friends ! who are absolutely truthful being free from untruth and exceedingly wise-leading teachers preachers, come to me with your intellect and good actions to give me most acceptable knowledge. Deliver me from all darkness of unrighteous conduct and destroy all my evils, like the sun, from the darkness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All men become free from ignorance by coming in contact with the enlightened person, as at the rise of the sun, all objects become free from darkness.

    Foot Notes

    (अत्रिम्) सूर्य्यम् । अत्रिम्-अत्तारम् अन्धकारस्य अन्ध-कारविनाशकं सूर्य्यम् । = The sun. (तुर्वतम्) हिस्यासम् । तूरी-गतित्वरण हिंसनयो: अत्र हिंसार्थ: । = Destroy. (अभीके) समीपे (अभीके) प्रपित्वे अभीके इत्यासनस्य ( NKT 3, 4, 20)। = Near.

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