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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 50/ मन्त्र 11
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ते नो॑ रा॒यो द्यु॒मतो॒ वाज॑वतो दा॒तारो॑ भूत नृ॒वतः॑ पुरु॒क्षोः। द॒श॒स्यन्तो॑ दि॒व्याः पार्थि॑वासो॒ गोजा॑ता॒ अप्या॑ मृ॒ळता॑ च देवाः ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । नः॒ । रा॒यः । द्यु॒ऽमतः॑ । वाज॑ऽवतः । दा॒तारः॑ । भू॒त॒ । नृ॒ऽवतः॑ । पु॒रु॒ऽक्षोः । द॒श॒स्यन्तः॑ । दि॒व्याः । पार्थि॑वासः । गोऽजा॑ताः । अप्याः॑ । मृ॒ळत॑ । च॒ । दे॒वाः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ते नो रायो द्युमतो वाजवतो दातारो भूत नृवतः पुरुक्षोः। दशस्यन्तो दिव्याः पार्थिवासो गोजाता अप्या मृळता च देवाः ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते। नः। रायः। द्युऽमतः। वाजऽवतः। दातारः। भूत। नृऽवतः। पुरुऽक्षोः। दशस्यन्तः। दिव्याः। पार्थिवासः। गोऽजाताः। अप्याः। मृळत। च। देवाः ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 50; मन्त्र » 11
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे देवा ! ये यूयं नो द्युमतो वाजवतो नृवतः पुरुक्षोर्दशस्यन्तो रायो दातारो भूत ते च ये दिव्याः पार्थिवासो गोजाता अप्याः सन्ति ते च यूयमस्मान् मृळता ॥११॥

    पदार्थः

    (ते) (नः) अस्माकम् (रायः) (द्युमतः) प्रशस्ता द्यौः कामना विद्यते यस्य तस्य (वाजवतः) बह्वन्नादियुक्तस्य (दातारः) (भूत) भवत (नृवतः) बहूत्तममनुष्यसहितस्य (पुरुक्षोः) बह्वन्नं यस्मिंस्तस्य (दशस्यन्तः) प्रयच्छन्तः (दिव्याः) (पार्थिवासः) पृथिव्यां भवाः (गोजाताः) गव्यन्तरिक्षे प्रसिद्धाः (अप्याः) अप्सु भवाः (मृळता) सुखयत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (च) (देवाः) विद्वांसः ॥११॥

    भावार्थः

    हे विद्वांसो ! भवन्तः सततं विद्याधने प्रापणीये प्राप्य सर्वाञ्जनान् सुखयन्तु ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य कैसे हों, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (देवाः) विद्वानो ! जो तुम (नः) हमारे (द्युमतः) जिसकी प्रशंसायुक्त कामना विद्यमान उस (वाजवतः) बहुत अन्नादि पदार्थयुक्त (नृवतः) बहुत उत्तम मनुष्ययुक्त (पुरुक्षोः) बहुत अन्नवाले पदार्थ के (दशस्यन्तः) देनेवाले और (रायः) धन के (दातारः) देनेवाले (भूत) होओ (ते) वे (च) और जो (दिव्याः) उत्तम (पार्थिवासः) पृथिवी के बीच हुए (गोजाताः) अन्तरिक्ष में प्रसिद्ध (अप्याः) और जलों में प्रसिद्ध हैं, वे भी आप हम लोगों को (मृळता) सुखी करो ॥११॥

    भावार्थ

    हे विद्वानो ! तुम निरन्तर प्राप्त होने योग्य विद्या और धनों को प्राप्त होकर सब मनुष्यों को सुखी करो ॥११॥

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    विषय

    दानशील पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( देवाः ) विद्वान् पुरुषो ! हे दानशील पुरुषो ! ( ते ) वे आप लोग ( नः ) हमें ( द्युमतः ) दीप्तियुक्त, ( वाजवतः ) बलयुक्त, ( नृवतः ) उत्तम भृत्यादि वाले, ( पुरु-क्षोः) बहुत से अन्नादि से सम्पन्न ( रायः ) धन ऐश्वर्य के ( दातारः भूत ) देने वाले होवो । आप लोग ( पार्थिवासः ) पृथिवी के स्वामी, ( गो जाताः ) वाणी के प्रसिद्ध, विद्वान्, ( अप्याः ) जलादि विद्या के ज्ञाता वा भूमि, अन्तरिक्ष और जलों की विद्या में निष्णात होकर ( दशस्यन्तः ) ज्ञान प्रदान करते हुए ( नः ) हम सबको (मृडत ) सुखी करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ।। विश्वे देवा देवताः ॥ छन्दः–१, ७ त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, १३ विराट् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्ति: । ९ पंक्ति: । १४ भुरिक् पंक्ति: । १५ निचृत्पंक्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    घुमतः वाजवतः [रायः]

    पदार्थ

    [१] हे देवो! (ते) = वे आप (नः) = हमारे लिये (राय:) = धन के (दातार:) = देनेवाले भूत होवो । जो धन (द्युमतः) = ज्ञान की ज्योतिवाला है, अर्थात् ज्ञानवृद्धि का साधन बनता है। (वाजवत:) = शक्तिवाला है, हमारी शक्तियों को बढ़ाता है। (नृवत:) = जो धन प्रशस्त मनुष्योंवाला है, जिस धन के कारण हमारे परिवार के सब व्यक्ति उत्तम जीवनवाले बनते हैं। (पुरुक्षोः) = जो धन बहुतों से कीर्तनीय है, अर्थात् जो धन लोकहित में विनियुक्त होकर हमारे जीवन को यशस्वी बनाता है। [२] हे (दिव्याः) = द्युलोक में होनेवाले, (पार्थिवास:) =[पृथिवी=अन्तरिक्षम्] अन्तरिक्षलोक में होनेवाले, (गोजाताः) = इस पृथिवी पर प्रादुर्भूत हुए हुए, (च) = और (अप्या:) = जलों में होनेवाले (देवा:) = देवो ! आप (दशस्यन्तः) = हमारे लिये वरणीय धनों को देते हुए (मृडत) = हमें सुखी करिये। सब प्राकृतिक शक्तियाँ हमारे अनुकूल होती हुई हमारे लिये वरणीय धनों को प्राप्त करायें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें सब देव उस प्रशस्त धन को प्राप्त करायें जो 'ज्ञान, बल व यश' का साधन बने। सब देव अरणीय धन को देकर हमें सुखी करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वानांनो ! तुम्ही निरंतर प्राप्त होण्या योग्य असलेले विद्याधन प्राप्त करून सर्व माणसांना सुखी करा. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O divine powers of nature and humanity, learned and wise teachers and scholars, be you all givers of rich gifts of wealth, light, speed and success, human resources and food for sustenance. And may all the divinities celestial, terrestrial, spatial and aqueous bless us with peace and felicity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should men be-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened men ! bestow upon us riches which are accompanied by noble desires, abundant food and other material things including knowledge and strength, and nourishing food. Kindly be givers of such a wealth to us, you who are possessors of divine virtues, renowned on earth and waters (seas) and in the firmament on account of your noble activities. Please make us happy.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned persons! convey to all true knowledge and wealth and thus make them happy.

    Translator's Notes

    Such mantras, show clearly, what kind of wealth should be desired and prayed for, according to the Vedas.

    Foot Notes

    (पुरुक्षोः) बहु अन्नं यस्मिन् तस्य । पुरुइति बहुनाम (NG 3, 1 ) क्षु इति अन्ननाम (NG 2, 7)। = Having much good and nourishing food. (द्य ुमतः) प्रशस्ता द्यौ: कामना विद्यते यस्य तस्य । दिवुधातोः कान्त्यर्थमादाम दयुमतेः रत्यस्य व्याख्या । कान्तिः कामना। = Endowed with admirable desire.

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