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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 50/ मन्त्र 14
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    उ॒त नोऽहि॑र्बु॒ध्न्यः॑ शृणोत्व॒ज एक॑पात्पृथि॒वी स॑मु॒द्रः। विश्वे॑ दे॒वा ऋ॑ता॒वृधो॑ हुवा॒नाः स्तु॒ता मन्त्राः॑ कविश॒स्ता अ॑वन्तु ॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । नः॒ । अहिः॑ । बु॒ध्न्यः॑ । शृ॒णो॒तु॒ । अ॒जः । एक॑ऽपात् । पृ॒थि॒वी । स॒मु॒द्रः । विश्वे॑ । दे॒वाः । ऋ॒त॒ऽवृधः॑ । हु॒वा॒नाः । स्तु॒ताः । मन्त्राः॑ । क॒वि॒ऽश॒स्ताः । अ॒व॒न्तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत नोऽहिर्बुध्न्यः शृणोत्वज एकपात्पृथिवी समुद्रः। विश्वे देवा ऋतावृधो हुवानाः स्तुता मन्त्राः कविशस्ता अवन्तु ॥१४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। नः। अहिः। बुध्न्यः। शृणोतु। अजः। एकऽपात्। पृथिवी। समुद्रः। विश्वे। देवाः। ऋतऽवृधः। हुवानाः। स्तुताः। मन्त्राः। कविऽशस्ताः। अवन्तु ॥१४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 50; मन्त्र » 14
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किमाकाङ्क्षितव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! स एकपादजः परमात्मा नस्तां प्रार्थनां शृणोतु यया बुध्न्योऽहिः पृथिवी समुद्र उतर्तावृधो हुवाना विश्वे देवाः कविशस्ताः स्तुता मन्त्रा नोऽवन्तु ॥१४॥

    पदार्थः

    (उत) अपि (नः) अस्माकम् (अहिः) मेघः (बुध्न्यः) बुध्नेऽन्तरिक्षे भवः (शृणोतु) (अजः) यः कदाचिन्न जायते स ईश्वरः (एकपात्) एकः पादो जगति यस्य सः (पृथिवी) भूमिः (समुद्रः) अन्तरिक्षम् (विश्वे) सर्वे (देवाः) विद्वांसः (ऋतावृधः) सत्यस्य वर्धकाः (हुवानाः) आह्वातारः (स्तुताः) प्रशंसिताः (मन्त्राः) वेदस्य श्रुतयो विचारा वा (कविशस्ताः) कविभिर्मेधाविभिः शस्ताः प्रशंसिता अध्यापिता वा (अवन्तु) ॥१४॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यूयं यो जन्ममरणादिव्यवहाररहितो जगदीश्वरोऽस्ति तत्कृपया पुरुषार्थेन च सर्वेषां पृथिव्यादिपदार्थानां विज्ञानेन स्वोन्नतीः सततं विदधत ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या आकाङ्क्षा करने योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! वह (एकपात्) जिसका जगत् में एक पाद है (अजः) जो कभी नहीं उत्पन्न होता वह परमात्मा (नः) हमारी उस प्रार्थना को (शृणोतु) सुने जिसने (बुध्न्यः) अन्तरिक्ष में होनेवाला (अहिः) मेघ (पृथिवी) भूमि (समुद्रः) अन्तरिक्ष (उत) और (ऋतावृधः) सत्य के बढ़ानेवाला (हुवानाः) और आह्वान करनेवाले तथा (विश्वे, देवाः) समस्त विद्वान् (कविशस्ताः) कवि मेधावी जनों से प्रशंसित वा पढ़ाये हुए और (स्तुताः) प्रशंसित (मन्त्राः) वेद की श्रुति वा वेदविचार हम लोगों की (अवन्तु) रक्षा करें ॥१४॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम-जो जन्म-मरणादि व्यवहार से रहित जगदीश्वर है, उसकी कृपा और पुरुषार्थ से तथा सम्पूर्ण पृथिवी आदि पदार्थों के विज्ञान से अपनी उन्नति निरन्तर करो ॥१४॥

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    विषय

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    भावार्थ

    (उत) और (बुध्न्यः अहिः ) आकाश में उत्पन्न हुआ मेघ, और ( बुध्न्यः ) आश्रय करने और प्रजाजन को सुप्रबन्ध में बांधने वाला (अहिः ) अहिंसनीय, बलवान् पुरुष, (अजः एक-पात् ) न कभी उत्पन्न होने वाला और एकमात्र अद्वितीय होकर समस्त जगत् में व्यापक, एक मात्र स्वयं समस्त जगत् का चरणवत् आश्रय रूप परमेश्वर और (अजः) शत्रुओं को उखाड़ फेंकने और राज्य कार्यों को सञ्चालन करने वाला ( एक-पात् ) एकमात्र चरणवत् राष्ट्र का आश्रय, प्रधान पुरुष, राजा, ( पृथिवी ) यह मातृ भूमि और ( समुद्रः ) समुद्र, अथवा पृथिवी के समान विशाल और समुद्र के समान गम्भीर और ( ऋत-वृधः ) सत्य, अन्न, तेज, यज्ञ और धनादि से बढ़ने और अन्यों को बढ़ाने वाले, ( स्तुताः ) स्तुति योग्य, ( कविशस्ताः ) विद्वान् पुरुषों द्वारा स्तुति या शिक्षाप्राप्त, ( मन्त्राः ) मननशील, उत्तम मन्त्र को देने वाले, विद्वान् वा वेद के मन्त्र और उत्तम विचार सभी ( हुवानाः ) हम से बुलाये गये या आदरपूर्वक हमें बुलाने हारे ( विश्वेदेवाः ) सभी उत्तम मनुष्य ( नः अवन्तु ) हमारी रक्षा करें, हमें ज्ञान दें, अन्नादि से तृप्त और सन्तुष्ट करें ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ।। विश्वे देवा देवताः ॥ छन्दः–१, ७ त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, १३ विराट् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्ति: । ९ पंक्ति: । १४ भुरिक् पंक्ति: । १५ निचृत्पंक्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    अहिर्बुध्न्यः अज एकपात्

    पदार्थ

    [१] (उत) = और (अहिर्बुध्न्यः) = अहीन युक्त [= आधार] वाला वह प्रभु (नः शृणोतु) = हमारी पुकार को सुने । (अजः) = गति के द्वारा सब बुराइयों को दूर करनेवाला प्रभु हमारी पुकार को सुने । (एकपात्) = अकेला ही गतिवाला, अपने कार्यों में औरों के साहाय्य की अपेक्षा न करनेवाला प्रभु हमारी प्रार्थना को सुने। [२] (पृथिवी) = यह पृथिवी (समुद्रः) = समुद्र (विश्वेदेवाः) = सब देव हमारा (अवन्तु) = रक्षण करें। (ऋतावृधः) = ऋत का वर्धन करनेवाले सब देव (हुवाना:) = पुकारे जाते हुए हमारा रक्षण करें तथा (कविशस्ता:) = उस महान् कवि प्रभु से उच्चारण किये गये (स्तुता:) = स्तुति में हमारे से उच्चारण किये जाते हुए (मंत्राः) = मन्त्र हमारा रक्षण करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु से प्रेरणा के प्राप्त करके हम अपनी उन्नति के लिये व्यापक आधार वाले व गतिशील बनें। हम अपने में ऋत का वर्धन करें। प्रभु से उच्चरित वेद मन्त्रों को अपनाएँ ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जो जन्म मरण इत्यादी व्यवहाररहित जगदीश्वर आहे त्याच्या कृपेने व पुरुषार्थाने तसेच संपूर्ण पृथ्वी इत्यादी पदार्थांच्या विज्ञानाद्वारे सतत आपापली उन्नती करा. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And the deep cloud in the firmament, the unborn Spirit of the universe, the sole divine support of existence, the earth, the sea, all the divine forces of the universe which prove and maintain the eternal law invoked and adored, and Veda mantras taught by seers, may all these listen to our prayers and protect us.

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