ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 50/ मन्त्र 12
ऋषिः - ऋजिश्वाः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ते नो॑ रु॒द्रः सर॑स्वती स॒जोषा॑ मी॒ळ्हुष्म॑न्तो॒ विष्णु॑र्मृळन्तु वा॒युः। ऋ॒भु॒क्षा वाजो॒ दैव्यो॑ विधा॒ता प॒र्जन्या॒वाता॑ पिप्यता॒मिषं॑ नः ॥१२॥
स्वर सहित पद पाठते । नः॒ । रु॒द्रः । सर॑स्वती । स॒ऽजोषाः॑ । मी॒ळ्हुष्म॑न्तः । विष्णुः॑ । मृ॒ळ॒न्तु॒ । वा॒युः । ऋ॒भु॒क्षाः । वाजः॑ । दैव्यः॑ । वि॒ऽधा॒ता । प॒र्जन्या॒वाता॑ । पि॒प्य॒ता॒म् । इष॑म् । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ते नो रुद्रः सरस्वती सजोषा मीळ्हुष्मन्तो विष्णुर्मृळन्तु वायुः। ऋभुक्षा वाजो दैव्यो विधाता पर्जन्यावाता पिप्यतामिषं नः ॥१२॥
स्वर रहित पद पाठते। नः। रुद्रः। सरस्वती। सऽजोषाः। मीळ्हुष्मन्तः। विष्णुः। मृळन्तु। वायुः। ऋभुक्षाः। वाजः। दैव्यः। विऽधाता। पर्जन्यावाता। पिप्यताम्। इषम्। नः ॥१२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 50; मन्त्र » 12
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे अध्यापकोपदेशकौ ! सरस्वती सजोषाः पर्जन्यावातेव भवन्तौ यथा ते रुद्रो विष्णुर्वायुर्ऋभुक्षा वाजो दैव्यो विधाता मीळ्हुष्मन्तो नो मृळन्तु तथा न इषं पिप्यताम् ॥१२॥
पदार्थः
(ते) (नः) अस्मान् (रुद्रः) दुष्टानां रोदयिता (सरस्वती) बहुविज्ञानयुक्ता (सजोषाः) समानप्रीतिसेवी (मीळ्हुष्मन्तः) मीळ्हुषो बहवो वीर्यसेचकादयो गुणा येषां ते (विष्णुः) व्यापको विद्युदग्निः (मृळन्तु) (वायुः) (ऋभुक्षाः) मेधावी (वाजः) अन्नम् (दैव्यः) देवैः कृतः (विधाता) विधानकर्त्ता (पर्जन्यावाता) पर्जन्यश्च वातश्च तौ (पिप्यताम्) वर्धयेताम् (इषम्) अन्नादिकम् (नः) अस्मभ्यमस्मान् वा ॥१२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! यथेश्वरेण निर्मिताः पृथिव्यादयः पदार्थाः प्राणिनः सुखयन्ति तथैव यूयं विद्यादिदानेन सर्वान् सुखयत ॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे अध्यापक और उपदेशको ! (सरस्वती) बहुत विज्ञानयुक्त (सजोषाः) समान प्रीति सेवनेवाले (पर्जन्यावाता) मेघ और वात के समान आप दोनों जैसे (ते) वे अर्थात् (रुद्रः) दुष्टों को रुलानेवाला (विष्णुः) व्यापक अग्नि (वायुः) पवन (ऋभुक्षाः) मेधावी जन (वाजः) अन्न (दैव्यः) विद्वानों से किया हुआ व्यवहार और (विधाता) विधान करनेवाला ये सब (मीळ्हुष्मन्तः) बहुत वीर्य सेचक आदि गुणोंवाले होते हुए (नः) हम लोगों को (मृळन्तु) सुखी करें, वैसे (नः) हम लोगों के लिये (इषम्) अन्नादि पदार्थों को (पिप्यताम्) ब़ढ़ाओ ॥१२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! जैसे ईश्वर से निर्मित किये हुए पृथिवी आदि पदार्थ प्राणियों को सुखी करते हैं, वैसे ही तुम विद्यादान से सब को सुखी करो ॥१२॥
विषय
missing
भावार्थ
( रुद्रः ) दुष्ट पुरुषों को दण्ड देने वाला, राजा और उपदेश देने वाला विद्वान् और रोगों को दूर करने वाला वैद्य, (सरस्वती) उत्तम विज्ञानवती वेदवाणी और विदुषी स्त्री, ( सजोषाः ) प्रीतियुक्त मित्रजन, (विष्णुः) व्यापक सामर्थ्यवान् पुरुष, (वायुः) वायुवत् बलवान् और ज्ञानी पुरुष ( ऋभुक्षाः ) विद्वान्, ( दैव्यः ) विद्वानों से नियुक्त ( विधाता ) विधानकर्त्ता, ( पर्जन्य-वाता) मेघ और वायु के समान, विजयशील और बलवान् पुरुष ये सभी ( मीढुष्मन्तः ) उत्तम सेचन करने वाले, प्रजा को बढ़ाने वाले गुणों से युक्त होकर ( नः ) हमें ( मृडयन्तु ) सुखी करें। और ( नः इषं ) हमारे अन्न की वृद्धि करें । ( २ ) ( रुद्रः ) अग्नि, ( सरस्वती ) नदी, (विष्णुः ) सूर्य, ( वायुः ) वायु, ( ऋभुक्षाः ) महान् ( वाजः ) बलवान् ( दैव्यः विधाता ) देव, किरणों का, प्रकाशों का कर्त्ता सूर्य और ( पर्जन्यवाता ) मेघ और प्रबल बात सब हमारे राष्ट्र में अन्न उत्पन्न करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋजिश्वा ऋषिः ।। विश्वे देवा देवताः ॥ छन्दः–१, ७ त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, १३ विराट् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्ति: । ९ पंक्ति: । १४ भुरिक् पंक्ति: । १५ निचृत्पंक्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
अन्न का वर्धन
पदार्थ
[१] (ते) = वे सब देव (नः) = हमें (मृडन्तु) = सुखी करें। (रुद्रः) सब दुःखों का द्रावण करनेवाला प्रभु, सरस्वती ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता, (विष्णुः) = व्यापकता व उदारता की देवता तथा (वायुः) = क्रियाशीलता की देवता [वा गतौ] ये सब (सजोषाः) = समान रूप से प्रीतिवाले होती हुईं (मीढुष्मन्तः) = हमारे लिये सुखों का वर्षण करनेवाले हो । 'प्रभु का उपासन, ज्ञान, उदार हृदयता तथा क्रियाशीलता' हमारे जीवन को सुखी बनायें। [२] (ऋभुक्ष:) = ज्ञान दीप्ति में निवास करनेवाला, (वाज:) = शक्तिशाली, (दैव्यः विधाता) = दिव्यगुण सम्पन्न निर्माण कर्ता पुरुष (नः) = हमारे लिये (इषम्) = प्रेरणा को (पिप्यताम्) = बढ़ायें । अर्थात् इन से प्रेरणा को प्राप्त करके हम भी ज्ञान दीप्त शक्तिशाली व दिव्य गुण सम्पन्न बनें तथा निर्माण के कार्यों में प्रवृत्त हों। [३] तथा (पर्जन्यावाता) = मेघ व वायु हमारे लिये (इषम्) = उत्तम अन्न को (पिप्यताम्) = बढ़ानेवाले हों। मेघ व वायु [Monsoon winds ] द्वारा उत्पन्न उत्तम अन्नों से हम अपने जीवनों को आप्यायित करनेवाले हों ।
भावार्थ
भावार्थ-'प्रभु का उपासन, ज्ञान, उदारता व क्रियाशीलता' हमारे जीवन को सुखी करें। हम 'ज्ञानी, शक्तिशाली, दिव्यगुण- सम्पन्न, निर्माण कार्य प्रवृत्त' पुरुषों के सम्पर्क में आएँ। मेघ व वायु से उत्पन्न किये गये अन्नों का सेवन करें।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! जसे ईश्वराने निर्माण केलेले पृथ्वी इत्यादी पदार्थ प्राण्यांना सुखी करतात तसे तुम्ही विद्यादान करून सर्वांना सुखी करा. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May Rudra, lord of justice and punishment, Sarasvati, mother of knowledge and speech, Vishnu, omnipresent spirit of the universe, Vayu, the winds, Rbhuksha, expert artist, universal energy, divine favour, law giver, clouds and winds, all virile and friendly, bring us food and energy and give us peace and felicity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should the enlightened men do-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers ! you who are endowed with much knowledge, equal love and service and benevolent like the cloud and the air, increase our food materials, strength and knowledge, as the mighty commander of an Army, causing the wicked to weep, pervading electric fire, food, chief maker of laws, appointed by the enlightened men and wise men full of virility, make us happy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O highly learned persons ! as the earth and other things made by God make all creatures happy, so you should make them all happy by giving good knowledge and education.
Foot Notes
(विष्णुः) व्यापको विद्युदग्निः । विष्लृ-व्याप्तौ (जुहो.) । = Pervading electric fire. (ऋभुक्षा:) मेधावी । ऋभुक्षाः इति महन्नाम (NG 3, 3 ) मेधाव्येक महान् भवितुमर्हति तत्मादत्र ग्रहणम् । ऋभुरिति मेधाविनाम (NG 3, 15 ) इति तुवर्तत एव । अत्र ऋभुः ऋभुक्षा इति पर्यायवाचिनो ज्ञेयौ | = Exceedingly wise, genius. (संजोषा) समानप्रीतिसेवी जुषी-प्रीतिसेवनयो: (तुदा)। = Endowed with equal love and the spirit of service.
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