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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 50/ मन्त्र 5
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मि॒म्यक्ष॒ येषु॑ रोद॒सी नु दे॒वी सिष॑क्ति पू॒षा अ॑भ्यर्ध॒यज्वा॑। श्रु॒त्वा हवं॑ मरुतो॒ यद्ध॑ या॒थ भूमा॑ रेजन्ते॒ अध्व॑नि॒ प्रवि॑क्ते ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मि॒म्यक्ष॑ । येषु॑ । रो॒द॒सी । नु । दे॒वी । सिस॑क्ति । पू॒षा । अ॒भ्य॒र्ध॒ऽयज्वा॑ । श्रु॒त्वा । हव॑म् । म॒रु॒तः॒ । यत् । ह॒ । या॒थ । भूम॑ । रे॒ज॒न्ते॒ । अध्व॑नि । प्रऽवि॑क्ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मिम्यक्ष येषु रोदसी नु देवी सिषक्ति पूषा अभ्यर्धयज्वा। श्रुत्वा हवं मरुतो यद्ध याथ भूमा रेजन्ते अध्वनि प्रविक्ते ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मिम्यक्ष। येषु। रोदसी। नु। देवी। सिसक्ति। पूषा। अभ्यर्धऽयज्वा। श्रुत्वा। हवम्। मरुतः। यत्। ह। याथ। भूम। रेजन्ते। अध्वनि। प्रऽविक्ते ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 50; मन्त्र » 5
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्भिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मरुतो ! येषु रोदसी देवी अभ्यर्धयज्वा पूषा सिषक्ति त्वमतो नु मिम्यक्ष यद्ये ह भूमा प्रविक्तेऽध्वनि रेजन्ते तेषां हवं श्रुत्वैतान् यूयं याथ ॥५॥

    पदार्थः

    (मिम्यक्ष) तूर्णं गच्छ (येषु) वाय्वादिषु (रोदसी) प्रकाशभूमी (नु) (देवी) दिव्यगुणे (सिषक्ति) सिञ्चति (पूषा) पुष्टिकरो मेघः (अभ्यर्धयज्वा) आभिमुख्यस्यार्द्धे सङ्गन्ता (श्रुत्वा) (हवम्) शब्दम् (मरुतः) मनुष्याः (यत्) ये (ह) किल (याथ) गच्छथ (भूमा) भूमी। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (रेजन्ते) कम्पन्ते गच्छन्ति वा (अध्वनि) मार्गे (प्रविक्ते) प्रकर्षेण चलितव्ये ॥५॥

    भावार्थः

    हे विद्वांसो ! यूयं सूर्यपृथिवीवत्प्रकाशक्षमाशीला भूत्वा सर्वेषां प्रश्नाञ्छ्रुत्वा समाधत्त, यथा भूम्यादिलोकाः स्वस्वमार्गे नियमेन गच्छन्ति तथा नियमेन धर्ममार्गे गच्छत ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् जनों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मरुतः) मनुष्यो ! (येषु) जिन वायु आदि पदार्थों में (रोदसी) प्रकाश और भूमि (देवी) जोकि दिव्यगुणवाली हैं उनको (अभ्यर्धयज्वा) मुख्य के आधे में सङ्गत होनेवाला (पूषा) पुष्टि करनेवाला मेघ (सिषक्ति) सींचता है आप इससे (नु) शीघ्र (मिम्यक्ष) शीघ्र जाइये (यत्) जो (ह) निश्चय कर (भूमा) भूमि में वा (प्रविक्ते) प्रकर्षकर चलने योग्य (अध्वनि) मार्ग में (रेजन्ते) काँपते वा जाते हैं उनके (हवम्) शब्द को (श्रुत्वा) सुनकर उनको तुम (याथ) प्राप्त होओ ॥५॥

    भावार्थ

    हे विद्वानो ! तुम सूर्य्य और पृथिवी के तुल्य प्रकाश और क्षमाशील होकर सबके प्रश्नों को सुनकर समाधान देओ, जैसे भूमि आदि लोक अपने-अपने मार्ग में नियम से जाते हैं, वैसे नियम से धर्ममार्ग में जाओ ॥५॥

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    विषय

    विद्वानों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (पूषा मरुत्सु देवी रोदसी मिम्यक्ष सिषक्ति च) सूर्य वायुओं के आश्रय पर ही आकाश और पृथिवी दोनों को वृष्टि आदि से सीचता है, उसी प्रकार ( येषु ) जिन विद्वानों और वीर पुरुषों का आश्रय लेकर ( अभ्यर्ध-यज्वा ) अपना उत्तम समृद्ध भाग देने वाला, ( पूषा ) प्रजा-पालक राजा ( रोदसी देवी ) रुद्र, दुष्टों के रुलाने वाले राजा वा सेनापति को विजयशील और सर्व सुखदात्री, सेना और प्रजा दोनों (मिम्यक्ष ) ऐश्वर्य का सेचन करता, और ( सिषक्ति) दोनों को परस्पर मिलाये रखता है, और ( यत् ह ) जो ( मरुतः ) वीर विद्वान् पुरुष (प्र-विक्ते) अच्छी प्रकार से निर्णय किये गये, विवेचित (अध्वनि) मार्ग में ( रेजन्ते ) गमन करते हैं हे मनुष्यो ! ( भूमौ ) इस भूमि पर आप उनका ( हवं श्रुत्वा ) उपदेश श्रवण करके ही ( याथ ) सन्मार्ग पर चलो। इत्यष्टमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ।। विश्वे देवा देवताः ॥ छन्दः–१, ७ त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, १३ विराट् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्ति: । ९ पंक्ति: । १४ भुरिक् पंक्ति: । १५ निचृत्पंक्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    'समृद्ध दीप्त शुभ' जीवन

    पदार्थ

    [१] (येषु) = जिन मरुतों [प्राणों] की साधना के होने पर (नु) = अब (देवी) = दिव्यगुणोंवाले (रोदसी) = द्यावापृथिवी, मस्तिष्क व शरीर मिम्यक्ष संगत होते हैं तथा जिन प्राणों के होने पर (अभ्यर्धयज्वा) = [अभ्यर्धयन् यजति] समृद्ध बनाता हुआ और समृद्धि के द्वारा यज्ञ प्रवृत्त करता हुआ (पूषा) = पोषण का देव (सिषक्ति) = हमारा सेवन करता है। अर्थात् प्राणसाधना से [क] मस्तिष्क व शरीर दोनों सुन्दर बनते हैं, [ख] हम समृद्धि को प्राप्त करके यज्ञशील होते हैं। [२] हे (मरुतः) = प्राणो ! (हवं श्रुत्वा) = पुकार को सुनकर (यद् ह) = जब निश्चय से (याथ) = तुम हमारे अन्दर गति करते हो, तो (प्रविक्ते) = [विविक्ते] अच्छी प्रकार से निर्णय किये गये, विवेचन किये गये, (अध्वनि) = मार्ग पर चलते हुए (भूमा) = ये प्राणी रेजन्ते चमकते हैं। प्राणसाधना से विवेक ख्याति प्राप्त होती है, यह विवेक हमें उत्तम मार्ग पर ले चलता हुआ दीप्त जीवनवाला बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना मस्तिष्क व शरीर को उत्तम बनाती है। इससे समृद्ध होकर हम यज्ञशील बनते हैं। विवेक को प्राप्त हो उत्तम मार्ग पर चलते हुए दीप्त जीवनवाले बनते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वानांनो ! तुम्ही सूर्य व पृथ्वीप्रमाणे प्रकाशशील व क्षमाशील बनून सर्वांचे प्रश्न ऐकून समाधान करा. जसे भूमी इत्यादी गोल नियमपूर्वक आपापल्या मार्गाने जातात तसे नियमाने धर्ममार्गाने जा. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Maruts, vibrant warriors of nature and humanity with whom the energy and generosity of heaven and earth is joined and whom Pusha, vital energy of nature and humanity, blesses with reverence and recognition, go quick in response to the call and meet the purpose. And when you proceed in response to the call and march on the path, all those who inhabit the earth tremble on the route of your advance.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should the enlightened persons do-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O thoughtful and brave men! the cloud that nourishes all by raining down water and is united in half part of the light and earth on the basis of the air and other elements, go rapidly to the distant places like that cloud. Listen to the voice of those, who go or tremble in the path to be trodden on earth and go to help them quickly.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened men ! being full of light and forgiveness, like the sun and the earth, solve the questions of all, listening to them attentively. As the earth and other worlds go on their God- ordained path regularly, so regularly tread upon the path of righteousness.

    Foot Notes

    (मिम्पक्ष) पूर्ण गच्छ । = Go quickly. (पूषा) पुष्टिकरो मेघ: । अर्थ (वात:) पवते । एषसीदं पुष्यति (Stph. Br. 14,2, 1, 9 ) एस हीदं सर्वं पुण्यतीति निहतया मेधोपि पूषा | = Nourishing cloud. (रेजन्ते) कम्पन्ते गच्छन्ति वा । एजु-कम्पने (भ्वा.) कपि-चलने (भ्वा.) तस्मात् कम्पन्ते गच्छनीति च व्याख्या । = Tremble or go.

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