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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 50/ मन्त्र 2
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    सु॒ज्योति॑षः सूर्य॒ दक्ष॑पितॄननागा॒स्त्वे सु॑महो वीहि दे॒वान्। द्वि॒जन्मा॑नो॒ य ऋ॑त॒सापः॑ स॒त्याः स्व॑र्वन्तो यज॒ता अ॑ग्निजि॒ह्वाः ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽज्योति॑षः । सू॒र्य॒ । दक्ष॑ऽपितॄन् । अ॒ना॒गाः॒ऽत्वे । सु॒ऽम॒हः॒ । वी॒हि॒ । दे॒वान् । द्वि॒ऽजन्मा॑नः । ये । ऋ॒त॒ऽसापः॑ । स॒त्याः । स्वः॑ऽवन्तः । य॒ज॒ताः । अ॒ग्नि॒ऽजि॒ह्वाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुज्योतिषः सूर्य दक्षपितॄननागास्त्वे सुमहो वीहि देवान्। द्विजन्मानो य ऋतसापः सत्याः स्वर्वन्तो यजता अग्निजिह्वाः ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽज्योतिषः। सूर्य। दक्षऽपितॄन्। अनागाःऽत्वे। सुऽमहः। वीहि। देवान्। द्विऽजन्मानः। ये। ऋतऽसापः। सत्याः। स्वःऽवन्तः। यजताः। अग्निऽजिह्वाः ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 50; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मनुष्याः सततं किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे सूर्य इव विद्वन् ! येऽनागास्त्वे द्विजन्मान ऋतसापः सत्याः स्वर्वन्तो यजता अग्निजिह्वाः सुज्योतिषो विद्वांसः स्युस्तान् सुमहो दक्षपितॄन् देवांस्त्वं सततं वीहि, एवं सति सर्वदा कल्याणं निवहेत् ॥२॥

    पदार्थः

    (सुज्योतिषः) सुष्ठुविनयप्रकाशकाः (सूर्य) सूर्य्य इव वर्त्तमान (दक्षपितॄन्) चतुरान् जनकानध्यापकान् वा (अनागास्त्वे) अनपराधित्वे (सुमहः) सुष्ठु महतो महाशयान् (वीहि) प्राप्नुहि कामय वा (देवान्) विदुषः (द्विजन्मानः) द्वे उत्पत्तिविद्याप्राप्तिरूपे जन्मनी येषान्ते (ये) (ऋतसापः) य ऋतेन सत्येन सपन्ति सम्बध्नन्ति (सत्याः) प्रतिज्ञां कुर्वन्ति (स्वर्वन्तः) बहुसुखयुक्ताः (यजताः) ये सर्वा विद्याः सङ्गच्छन्ते (अग्निजिह्वाः) अग्निरिव सत्यविद्यया सुप्रकाशिता जिह्वा येषान्ते ॥२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सूर्य्यवद्विद्याधर्मप्रकाशकानध्यापकोपदेशकान् विदुषः सुसेवन्ते तेऽपि तादृशा भवन्ति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब मनुष्य निरन्तर क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सूर्य) सूर्य के समान वर्त्तमान ! (ये) जो (अनागास्त्वे) अनपराधिपन में (द्विजन्मानः) उत्पत्ति और विद्याप्राप्तिरूप जन्मवाले (ऋतसापः) सत्य से सम्बन्ध करते वा (सत्याः) प्रतिज्ञा करते (स्वर्वन्तः) वा बहु सुखयुक्त (यजताः) समस्त विद्याओं का सङ्ग करते (अग्निजिह्वाः) वा अग्नि के समान सत्य विद्या से सुन्दर प्रकाशित जिह्वाएँ जिनकी वा (सुज्योतिषः) सुन्दर विनय के प्रकाश करनेवाले विद्वान् हों उन (सुमहः) श्रेष्ठ महान् महाशय (दक्षपितॄन्) चतुर पिता और विद्या पढ़ानेवाले (देवान्) विद्वानों को आप निरन्तर (वीहि) प्राप्त होओ व उनकी कामना करो, ऐसा होने पर सर्वदा कल्याण प्राप्त होवे ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्य के समान विद्या और धर्म के प्रकाश करनेवाले अध्यापक, उपदेशक वा विद्वानों की सेवा करते हैं, वे भी वैसे ही होते हैं ॥२॥

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    विषय

    सूर्यवत् तेजस्वी विद्वान् राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    सूर्य जिस प्रकार (सु-महः) उत्तम तेज युक्त ( दक्ष-पितॄन् ) दाहक सामर्थ्य, ताप से युक्त (सु-ज्योतिषः) उत्तम कान्तियुक्त ( देवान् ) किरणों को प्राप्त है उसी प्रकार हे (सूर्य) सूर्य के समान तेजस्विन् ! विद्वन् ! राजन् ! तू भी ( सु-ज्योतिषः ) उत्तम ज्ञान प्रकाश से युक्त, ( दक्ष-पितॄन् ) चतुर माता पिता और गुरुजनों ( देवान् ) ज्ञान, धन, अन्न, वस्त्रादि के दाता (स-महः) उत्तम उन पूजनीय पुरुषों को तू ( अनागास्त्वे ) अपराध और पाप से मुक्त होने के लिये ( वीहि ) प्राप्त हो ( वे ) जो ( द्वि-जन्मानः ) माता पिता और गुरु द्वारा जो जन्म प्राप्त होकर द्विज, हो, ( ऋत-सापः ) सत्य वचन और ज्ञान से सम्बन्ध बनाने वाले, सत्यवादी ( सत्याः ) सत्य कर्मा, ( यजताः ) सत्संग योग्य, दानी, और ( अग्नि-जिह्वाः ) अग्नि के समान वाणी द्वारा यथार्थ बात को प्रकाशित करने वाले और (स्वर्वन्तः ) सुख और उत्तम उपदेशमय ज्ञान को धारण करने वाले हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ।। विश्वे देवा देवताः ॥ छन्दः–१, ७ त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, १३ विराट् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्ति: । ९ पंक्ति: । १४ भुरिक् पंक्ति: । १५ निचृत्पंक्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    अनागास्त्व

    पदार्थ

    [१] हे (सुमहः) = शोभन दीप्तिवाले (सूर्य) = [सुवति] सबके प्रेरक प्रभो! आप (अनागास्त्वे) = निरपराधता के निमित्त, हमारे जीवनों को अपराध शून्य बनाने के निमित्त (देवान्) = दिव्य वृत्तिवाले पुरुषों को (वीहि) = [कामयस्व] = हमारे लिये प्राप्त कराइये। उन देवों को जो (सुज्योतिषः) = उत्तम ज्योतिवाले हैं तथा (दक्षपितॄन्) = निपुण पितर हैं, कुशलता से रक्षण करनेवाले हैं। [२] हमें उन पुरुषों का सम्पर्क प्राप्त कराइये (ये) = जो (द्विजन्मानः) = द्विजन्मा हैं, जिन्होंने पितृकुल के बाद आचार्यकुल से जन्म लिया है। (ऋतसाप:) = ऋत का सेवन करनेवाले हैं। (सत्याः) = सत्य जीवनवाले, (स्वर्वन्तः) = प्रशस्त प्रकाशवाले हैं। (यजता:) = यज्ञशील हैं। (अग्निजिह्वा:) = अग्नि के समान तेजस्वी वाणीवाले हैं। जिनका एक-एक वचन अग्नि की तरह प्रकाश को देनेवाला व बुराइ को भस्म करनेवाला है।

    भावार्थ

    भावार्थ– ज्योतिर्मय यज्ञशील पुरुषों के सम्पर्क में हमारा जीवन भी अपराध शून्य बने ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे सूर्याप्रमाणे विद्या व धर्माचा प्रकाश करणाऱ्या अध्यापक, उपेदशक, विद्वानांची सेवा करतात तीही त्यांच्याप्रमाणे बनतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O man bright as the sun, if you want to maintain your simplicity, innocence and freedom from sin, approach, honour and exalt the generous and brilliant seniors of parental nature who command the holy light of knowledge, expertise of action and greatness of character, who are nobly born and divinely educated, who are true to the bone and unshakably committed to nothing but the truth and the law of Dharma, and who enjoy perfect peace of mind with an open door hospitality but have a tongue of fire that brooks no nonsense and burns double dealing with a whiff of air.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men constantly do-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O scholar! you, who, are like the sun, approach or desire those enlightened & clever fatherly persons or teachers for freedom from sin," who have two births one from the physical mother and the other from Vidya-knowledge, who are always concerned with truth, whose promises are true, who are endowed with much happiness, who are associated with various sciences, whose tongue is illuminated with true knowledge like the fire, revealers of humility, very great and large hearted. By so doing, you will enjoy happiness and welfare.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those men who serve teachers and preachers well who are revealers of Vidya (true knowledge) and Dharma (righteousness) like the sun; become all like them.

    Foot Notes

    (सुज्योतिषः) सुष्ठु विनयप्रकाशकाः । ज्योतिः शब्दो द्युतदीप्तौ इतिधातौ निष्यन्वः । दयुतेरिसिन्ना देश्च ज: (उणादिकोषे 2, 110 ) इतिइमिन् प्रस्यम् आदेश्वदस्य जः तस्मात्प्रकाशार्थं व्याख्या | = Good revealers or manifesters of humility. (अनागास्त्वे) अनपराधित्वे । इण वागोऽपराधे च (उणा 4,212 ) अपराधार्थंक आग: शब्द: इण् धातो निष्यन्न् जायते विद्वद्भिनार्थेः । = In the act of sinlessness. (वीहि) प्राप्नुहि कामय वा । वी-गति व्याप्ति प्रजनकान्त्यसन खादनेषु (अदा.) । गतेस्त्रिष्वर्थेष्व-प्राप्त्यर्थग्रहणं कान्त्यर्थंग्रहणं च । कान्ति-कामना | = Approach or desire. (यजता:) ये सर्वां विद्या: संङ्गच्छन्ते । (यजता) यज-देवपूजा सक्तिकरण दानेषु (स्वा.) म मदुचि पिविपचयमित मिन मिथ्यभ्योऽतच् ( उणादि कोष 3,110 ) इति अजघातो अतच् प्रत्ययः अन संङ्गतिकरणर्थः = -Who are associated with various sciences.

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