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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 50/ मन्त्र 8
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ नो॑ दे॒वः स॑वि॒ता त्राय॑माणो॒ हिर॑ण्यपाणिर्यज॒तो ज॑गम्यात्। यो दत्र॑वाँ उ॒षसो॒ न प्रती॑कं व्यूर्णु॒ते दा॒शुषे॒ वार्या॑णि ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । दे॒वः । स॒वि॒ता । त्राय॑माणः । हिर॑ण्यऽपाणिः । य॒ज॒तः । ज॒ग॒म्या॒त् । यः । दत्र॑ऽवान् । उ॒षसः॑ । न । प्रती॑कम् । वि॒ऽऊ॒र्णु॒ते । दा॒शुषे॑ । वार्या॑णि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो देवः सविता त्रायमाणो हिरण्यपाणिर्यजतो जगम्यात्। यो दत्रवाँ उषसो न प्रतीकं व्यूर्णुते दाशुषे वार्याणि ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। नः। देवः। सविता। त्रायमाणः। हिरण्यऽपाणिः। यजतः। जगम्यात्। यः। दत्रऽवान्। उषसः। न। प्रतीकम्। विऽऊर्णुते। दाशुषे। वार्याणि ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 50; मन्त्र » 8
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसः किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यो दत्रवान् हिरण्यपाणिर्यजतो देवः सविता त्रायमाण उषसो न समयाद्दाशुषे प्रतीकं वार्याणि च व्यूर्णुते नोऽस्मानाऽऽजगम्यात्तं वयं सदा सुखयेम ॥८॥

    पदार्थः

    (आ) (नः) अस्मान् (देवः) दिव्यगुणकर्मस्वभावः (सविता) सूर्य इव (त्रायमाणः) रक्षकः (हिरण्यपाणिः) हिरण्यं सुवर्णादिकं पाणौ हस्ते यस्य सः (यजतः) सङ्गन्ता (जगम्यात्) भृशं प्राप्नुयात् (यः) (दत्रवान्) दानवान् (उषसः) प्रभातवेलायाः (न) इव (प्रतीकम्) प्रतीतिकरम् (व्यूर्णुते) आच्छादयति (दाशुषे) दात्रे (वार्याणि) स्वीकर्त्तुमर्हाणि वस्तूनि ॥८॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! ये दानशीलाः प्रभातवेलावत्सुप्रकाशकाः सर्वेभ्यो विद्याऽभयदाने प्रयच्छन्ति ते जगति वरा गण्यन्ते ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यः) जो (दत्रवान्) दान देनेवाला (हिरण्यपाणिः) हाथ में सुवर्णादि लिये हुए और (यजतः) सङ्ग करनेवाला (देवः) दिव्यगुण, कर्म, स्वभावयुक्त (सविता) सूर्य के तुल्य (त्रायमाणः) रक्षक जन (उषसः) प्रभातवेला के (न) समान समय से (दाशुषे) देनेवाले के लिये (प्रतीकम्) प्रतीति करनेवाले पदार्थ और (वार्याणि) स्वीकार करने योग्य पदार्थों को (व्यूर्णुते) आच्छादित करता है तथा (नः) हम लोगों को (आ, जगम्यात्) सब ओर से निरन्तर प्राप्त हो, उसको हम लोग सदा सुखी करें ॥८॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो दानशील प्रभातवेला के समान सुन्दर प्रकाश करनेवाले जन सब के लिये विद्या और अभयदान देते हैं, वे संसार में श्रेष्ठ गिने जाते हैं ॥८॥

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    विषय

    तेजस्वी रक्षक के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( देवः ) ज्ञान और धन का देने वाला, ( सविता ) पितावत् उत्पादक सूर्य के समान तेजस्वी, ( त्रायमाणः ) प्रजा की रक्षा वाला, (हिरण्यपाणिः ) सुवर्ण आदि धन को अपने हाथ में रखने वाला, ( यजतः ) पूज्य पुरुष (नः आजगम्यात् ) हमें प्राप्त हो । ( यः ) जो ( दत्रवान् ) दान योग्य धन का स्वामी, सूर्य के समान ( उषसः प्रतीकं न ) प्रभात वेला के समान प्रतीति कर वचन तथा (वार्याणि ) उत्तम धन और ज्ञान भी ( दाशुषे ) आत्मसमर्पक प्रजाजन को ( वि उर्णुते ) प्रकट करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ।। विश्वे देवा देवताः ॥ छन्दः–१, ७ त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, १३ विराट् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्ति: । ९ पंक्ति: । १४ भुरिक् पंक्ति: । १५ निचृत्पंक्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    सविता

    पदार्थ

    [१] (नः) = हमारे लिये (देवः सविता) = यह प्रकाशमय, कर्मों में प्रेरित करनेवाला सूर्य (आजगम्यात्) = प्राप्त हो । जो सूर्य (त्रायमाण:) = हमारा रक्षण करता है। (हिरण्यपाणिः) = हितरमणीय हाथोंवाला है, अपने किरणरूप हाथों में स्वर्ण को लिये हुए है। (यजतः) = संगतिकरण योग्य है । [२] (यः) = जो सूर्य (दत्रवान्) = सब धनोंवाला है। (उषसः न प्रतीकम्) = उषा के मुख के समान है, उषा का प्रारम्भ करनेवाला है। उषा सूर्य का पूर्वाभास ही तो है। यह सूर्य (दाशुषे) = दाश्वान् के लिये, सूर्य के प्रति अपना अर्पण करनेवाले के लिये, सूर्य के सम्पर्क में चलनेवाले के लिये (वार्याणि) = सब वरणीय स्वास्थ्य आदि धनों को (व्युर्णुते) = प्रकट करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सूर्य हमें रोगकृमियों के आक्रमण से बचाता है, इसकी किरणों में स्वर्ण है, यह हमारे लिये स्वास्थ्य आदि धनों को प्रकट करता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जी दानी व उषःकालाप्रमाणे चांगला प्रकाश देणारी माणसे सर्वांना अभयदान देतात ती जगात श्रेष्ठ समजली जातात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May the divine and refulgent Savita, creator, preserver and generator of golden handed charity, loving and adorable, come and bless us, he who, all giving, opens up treasures of wealth for the generous giver like the first lights of the dawn.

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