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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 50/ मन्त्र 13
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒त स्य दे॒वः स॑वि॒ता भगो॑ नो॒ऽपां नपा॑दवतु॒ दानु॒ पप्रिः॑। त्वष्टा॑ दे॒वेभि॒र्जनि॑भिः स॒जोषा॒ द्यौर्दे॒वेभिः॑ पृथि॒वी स॑मु॒द्रैः ॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । स्यः । दे॒वः । स॒वि॒ता । भगः॑ । नः॒ । अ॒पाम् । नपा॑त् । अ॒व॒तु॒ । दानु॑ । पप्रिः॑ । त्वष्टा॑ । दे॒वेभिः॑ । जनि॑ऽभिः । स॒ऽजोषाः॑ । द्यौः । दे॒वेभिः॑ । पृ॒थि॒वी । स॒मु॒द्रैः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत स्य देवः सविता भगो नोऽपां नपादवतु दानु पप्रिः। त्वष्टा देवेभिर्जनिभिः सजोषा द्यौर्देवेभिः पृथिवी समुद्रैः ॥१३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। स्यः। देवः। सविता। भगः। नः। अपाम्। नपात्। अवतु। दानु। पप्रिः। त्वष्टा। देवेभिः। जनिऽभिः। सऽजोषाः। द्यौः। देवेभिः। पृथिवी। समुद्रैः ॥१३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 50; मन्त्र » 13
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्भिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! भवान् यथा स्यो देवः सविता भग उताऽपां नपाद्देवेभिर्जनिभिः सह त्वष्टा सजोषा देवेभिस्स द्यौः समुद्रैः सह पृथिवी दानु पप्रिरिव नोऽवतु ॥१३॥

    पदार्थः

    (उत) अपि (स्यः) सः (देवः) देदीप्यमानः (सविता) प्रसवकर्त्ता सूर्य्यः (भगः) भजनीयः प्राणः (नः) अस्मान् (अपाम्) जलानाम् (नपात्) यो विद्युद्रूपोऽग्निर्न पतति सः (अवतु) (दानु) दानम् (पप्रिः) पूरयन् (त्वष्टा) छेदकः (देवेभिः) दिव्यगुणैः (जनिभिः) जन्मभिर्जनकैर्वा (सजोषाः) समानप्रीतिसेवी (द्यौः) सूर्य्यः (देवेभिः) सूर्यादिभिर्दिव्यैर्वा (पृथिवी) भूमिः (समुद्रैः) सागरैस्सह ॥१३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथेश्वरेण सृष्टाः सूर्य्यादयः पदार्थाः सर्वमनुष्यादिप्राणिनां कार्य्यसिद्धिनिमित्तानि तथा भवन्तोऽपि सर्वेषां कार्य्यसिद्धिकराः सन्तु ॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! आप जैसे (स्यः) वह (देवः) देदीप्यमान (सविता) उत्पत्ति करनेवाला सूर्य (भगः) सेवने योग्य प्राण (उत) और (अपाम्) जलों के बीच (नपात्) न गिरनेवाला विद्युत् रूप अग्नि तथा (देवेभिः) दिव्य गुणों के और (जनिभिः) जन्म वा जन्म देनेवालों के साथ (त्वष्टा) छिन्न-भिन्नकर्त्ता (सजोषाः) समान प्रीति का सेवनेवाला (देवेभिः) सूर्यादि वा दिव्य पदार्थों के साथ (द्यौः) सूर्य (समुद्रैः) समुद्रों के साथ (पृथिवी) भूमि (दानु) दान को (पप्रिः) पूर्ण करते हुए (नः) हम लोगों की (अवतु) रक्षा करे ॥१३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे ईश्वर से रचे हुए सूर्यादि पदार्थ सब मनुष्य आदि प्राणियों के कार्यसिद्धि के निमित्त हैं, वैसे आप लोग भी सब की कार्यसिद्धि करनेवाले हों ॥१३॥

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    विषय

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    भावार्थ

    ( उत ) और ( स्यः देवः ) वह तेजस्वी ( सविता ) सूर्य और सूर्यवत् तेजस्वी और ( भगः ) ऐश्वर्यवान् पुरुष और (अपां नपात्) जलों के बीच विद्यमान, उनमें से ही उत्पन्न, न गिरने वाला अग्नि, विद्युत्, (पप्रिः) सबको पूर्ण और पालन करने वाला, (त्वष्टा) तेजस्वी, (देवेभिः) दिव्य गुणों उत्तम पुरुषों और ( जनिभिः ) जन्मयुक्त प्राणियों सहित, ( द्यौः) सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष ( देवेभिः ) किरणवत् तेजस्वी पुरुषों सहित, ( समुद्रै: पृथिवी ) समुद्रों सहित पृथिवी, ये सब ( सजोषसः ) समान प्रीतियुक्त होकर ( नः दानु ) हमारे देने योग्य पदार्थ की (अवत्) रक्षा करें ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ।। विश्वे देवा देवताः ॥ छन्दः–१, ७ त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, १३ विराट् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्ति: । ९ पंक्ति: । १४ भुरिक् पंक्ति: । १५ निचृत्पंक्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    सम्पूर्ण वातावरण कल्याणमय हो

    पदार्थ

    [१] (उत) = और (स्य:) = वह (देवः) = प्रकाशमय (सविता) = प्रेरक प्रभु (नः) = हमें (अवतु) = रक्षित करे । (भगः) = ऐश्वर्य का पुञ्ज प्रभु हमारा रक्षण करे। (दानु पप्रिः) = सब धनों का हमारे में पूरण करनेवाला (अपांनपात्) = शक्तियों को [आप: रेतो भूत्वा०] न नष्ट होने देनेवाला प्रभु हमारा रक्षण करे। [२] (जनिभिः) = सब अच्छाइयों को जन्म देनेवाले (देवेभिः) = दिव्यगुणों के साथ (त्वष्टा) = वह निर्माता प्रभु हमारा रक्षण करे। (देवेभिः सजोषाः) = सूर्यादि प्रकाशमय पिण्डों के साथ प्रीतिवाला होता हुआ (द्यौः) = यह द्युलोक हमारा रक्षण करे तथा (समुद्रैः) = सब समुद्रों के साथ (पृथिवी) = यह पृथिवी हमारा रक्षण करे ।

    भावार्थ

    भावार्थ–'प्रकाशमय - प्रेरक शक्ति को न नष्ट होने देनेवाले' प्रभु हमारा रक्षण करें। दिव्यगुणों के विकास को करनेवाले निर्माता प्रभु हमारा कल्याण करें। दीप्त पिण्डों से युक्त द्युलोक हमारा कल्याण करे तथा समुद्र युक्त यह पृथिवी भी हमारा कल्याण करे ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे ईश्वरनिर्मित सूर्य इत्यादी पदार्थ सर्व माणसे इत्यादींच्या कार्यसिद्धीचे निमित्त आहेत तशी तुम्हीही सर्वांची कार्यसिद्धी करणारे व्हा. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    And that refulgent Savita, the sun, Bhaga, pranic energy, Apam-napat, unfailing electric energy born of waters, Tvashta, maker of forms with brilliant generative powers, the heaven with all its lights, the earth with the seas, may all these together, friendly and supportive, generously giving and fulfilling, protect and promote us in life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What are the duties of the enlightened men-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned person ! protect us like the bright sun, Prana, electricity along with the enlightened men and fathers, an artist or analyzer, who, loves and serves equally to: earth with seas, and the sun with other luminaries. Protect us like all these and a liberal donor, who fills up the deficiencies of all.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! as all objects like the sun and others made by God are means for the accomplishment of all acts done by men and other living beings, so you should also be the accomplishers of all good deeds.

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