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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 52/ मन्त्र 14
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    विश्वे॑ दे॒वा मम॑ शृण्वन्तु य॒ज्ञिया॑ उ॒भे रोद॑सी अ॒पां नपा॑च्च॒ मन्म॑। मा वो॒ वचां॑सि परि॒चक्ष्या॑णि वोचं सु॒म्नेष्विद्वो॒ अन्त॑मा मदेम ॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वे॑ । दे॒वाः । मम॑ । शृ॒ण्व॒न्तु॒ । य॒ज्ञियाः॑ । उ॒भे इति॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । अ॒पाम् । नपा॑त् । च॒ । मन्म॑ । मा । वः॒ । वचां॑सि । प॒रि॒ऽचक्ष्या॑णि । वो॒च॒म् । सु॒म्नेषु॑ । इत् । वः॒ । अन्त॑माः । म॒दे॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वे देवा मम शृण्वन्तु यज्ञिया उभे रोदसी अपां नपाच्च मन्म। मा वो वचांसि परिचक्ष्याणि वोचं सुम्नेष्विद्वो अन्तमा मदेम ॥१४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वे। देवाः। मम। शृण्वन्तु। यज्ञियाः। उभे इति। रोदसी इति। अपाम्। नपात्। च। मन्म। मा। वः। वचांसि। परिऽचक्ष्याणि। वोचम्। सुम्नेषु। इत्। वः। अन्तमाः। मदेम ॥१४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 52; मन्त्र » 14
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः के सङ्गन्तुमर्हा इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे विश्वे देवा ! भवन्त उभे रोदसी इव यज्ञियाः सन्तो मम वचांसि शृण्वन्तु वोऽपां नपान्मन्म विरुद्धमहं मा वोचं परिचक्ष्याणि च प्रशंसेयमेवं वर्त्तमाना वयं वोऽन्तमाः सन्तः सुम्नेषु सदेन्मदेम ॥१४॥

    पदार्थः

    (विश्वे) सर्वे (देवाः) विद्वांसः (मम) (शृण्वन्तु) (यज्ञियाः) ये सत्सङ्गतिं कर्त्तुमर्हाः (उभे) (रोदसी) द्यावापृथिव्याविव सर्वेषां रक्षकाः (अपाम्) प्राणानाम् (नपात्) अनाशकम् (च) (मन्म) विज्ञानम् (मा) (वः) युष्माकम् (वचांसि) वचनानि (परिचक्ष्याणि) परितः सर्वतः ख्यातुं योग्यानि (वोचम्) (सुम्नेषु) सुखेषु (इत्) एव (वः) युष्माकम् (अन्तमाः) समीपस्थाः (मदेम) आनन्देम ॥१४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! येषां विदुषां वचनं वितथं न भवति येषां सङ्गः सर्वदा सुखविज्ञानवर्धको ये भूमिसूर्य्यवत्सर्वेषां पालका विवादं श्रुत्वा पक्षपातं विहाय न्यायकर्त्तारस्स्युस्तत्सन्निधौ स्थित्वा सदैवाऽऽनन्दं प्राप्नुवन्तु ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर कौन सङ्ग करने योग्य हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (विश्वे, देवाः) सब विद्वानो ! आप (उभे) दोनों (रोदसी) आकाश और पृथिवी के तुल्य सब की रक्षा करनेवाले (यज्ञियाः) सज्जनों का सङ्ग करनेवाले होते हुए (मम) मेरे (वचांसि) वचनों को (शृण्वन्तु) सुनिये तथा (वः) आपके (अपाम्) प्राणों के (नपात्) न विनाश करनेवाले (मन्म) विज्ञान को, विरुद्ध मैं (मा, वोचम्) मत कहूँ (परिचक्ष्याणि, च) और सब ओर से कहने के योग्यों की प्रशंसा करूँ, इस प्रकार वर्त्तमान हम लोग (वः) आपके (अन्तमाः) समीप स्थिर होते हुए (सुम्नेषु) सुखों में (इत्) सर्वदैव (मदेम) आनन्दित हों ॥१४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जिन विद्वानों का वचन असत्य नहीं होता तथा जिनका सङ्ग सर्वदा सुख और विज्ञान का बढ़ानेवाला है और जो भूमि और सूर्य के तुल्य सब के पालनेवाले और विवाद सुनकर पक्षपात को छोड़ न्याय करनेवाले हों, उनके निकट स्थित होकर सदैव आनन्द को प्राप्त होओ ॥१४॥

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे ( विश्वे देवाः ) समस्त विद्वान् पुरुषो ! हे ( यज्ञियाः ) सत्संग, दान पूजादि के योग्य जनो ! हे (उभे रोदसी) सूर्य पृथिवीवत् परस्पर के उपकारक स्त्री पुरुषो! वा राजप्रजावर्गीय जनो ! और (अपां नपात् च) प्राणों का नाश न करने वाला जन (मम) मेरे ( मन्म) मनन करने योग्य ज्ञान का आप लोग ( शृण्वन्तु ) श्रवण करे। मैं (वः ) आप लोगों के प्रति ( परि-चक्ष्याणि ) निन्दा योग्य वा प्रतिवाद करने योग्य (वचांसि ) वचन ( मा वोचम् ) कभी न कहूं । प्रत्युत ( परि-चक्ष्याणि ) सब प्रकार से सर्वत्र कहने योग्य वचन ही कहूं। हम लोग ( वः सुम्नेषु ) आप लोगों के सुखों में ( इत् ) ही ( अन्तमाः ) अति निकटवर्ती होकर ( मदेम ) सदा हर्ष लाभ करें ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ।। विश्वेदेवा देवताः ।। छन्दः – १, ४, १५, १६ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ३, ६, १३, १७ त्रिष्टुप् । ५ भुरिक् पंक्ति: । ७, ८, ११ गायत्री । ९ , १०, १२ निचृद्गायत्री । १४ विराड् जगती ॥

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    विषय

    स्तोत्रों में आनन्द की अनुभूति

    पदार्थ

    [१] (यज्ञियाः) = यज्ञमय जीवनवाले (विश्वे देवा:) = सब देव (मम मन्म शृण्वन्तु) = मेरे स्तोत्र को ही सुनें, मैं इनके लिये सदा शुभ वाणियों का उच्चारण करूँ । (उभे रोदसी) = दोनों द्यावापृथिवी (अपांनपात् च) = यह जलों को न गिरने देनेवाला, जलों का धारक, अन्तरिक्षलोक भी मेरे स्तोत्र को सुने। मेरी स्तुति-वाणियाँ ही त्रिलोकी में फैलें। [२] मैं (वः) = आपके प्रति (परिचक्षाणि) = वर्जनीय (वचांसि) = वचनों को (मा वोचम्) = मत बोलूँ। अपि तु समीचीन वचनों का ही सदा उच्चारण करूँ । (वः) = आपके (अन्तमाः) = अन्तिकतम [समीपतम] होते हुए हम (सुम्नेषु इत्) = [hymns] प्रभु स्तवनों में ही (मदेम) = आनन्द का नुभव करें।

    भावार्थ

    भावार्थ– सब देव मेरे स्तोत्रों को सुनें । त्रिलोकी में स्तोत्र ध्वनि ही फैले । वर्जनीय वचनों को न बोलते हुए हम स्तोत्रों में ही आनन्द का अनुभव करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! ज्या विद्वानांचे वचन असत्य नसते व ज्यांचा संग सदैव सुख व विज्ञान वाढविणारा असतो व जे सूर्याप्रमाणे सर्वांचे पालनकर्ते व विवाद ऐकून भेदभाव न करता न्याय करणारे असतात त्यांच्याजवळ राहून सदैव आनंद प्राप्त करा. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Vishvedevas, adorable leading lights, protective like both earth and sky, the fire divine, listen to my thought and word. Never shall I speak any words against your life sustaining powers and science worthy of universal celebration. Pray let us rejoice at the closest with you in comfort and joy of all aspects of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who are worthy of association-is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O all enlightened persons ! you being worthy of association and protectors like the heaven and the earth, please listen to my word. Let me not speak any thing against your knowledge, which is preserver of the Pranas (vital energy) and admire what are your admirable teaching (worthy of being told everywhere). Behaving in [this way, let us always remain in your company and enjoy happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! living in the company of those enlightened person, whose words are never untrue, whose association is always increaser of happiness and knowledge and who are sustainers of all like the earth and like the sun and who are dispensers of impartial justice after hearing both sides, you should always attain bliss and joy.

    Foot Notes

    (रोदसी) द्यावापृथिव्याविव सर्वेषां रक्षकाः । रोदसीति द्यावापृथिवीनाम (NG 3, 30)। = Protectors of all like the heavens and earth. (अपां नपात्) प्राणानाम् अनाशकम् । आपो वै प्राणु: । = Preserver of the Prānas (vital energy ). (मन्म:) विज्ञानम् । (मन्म), मनु-अवबोधने (तना.) । = True knowledge (सुम्नेषु) सुखेषु । सुम्नमिति सुखनाम (NG 3, 6)। = In happiness.

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