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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 52/ मन्त्र 2
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अति॑ वा॒ यो म॑रुतो॒ मन्य॑ते नो॒ ब्रह्म॑ वा॒ यः क्रि॒यमा॑णं॒ निनि॑त्सात्। तपूं॑षि॒ तस्मै॑ वृजि॒नानि॑ सन्तु ब्रह्म॒द्विष॑म॒भि तं शो॑चतु॒ द्यौः ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अति॑ । वा॒ । यः । म॒रु॒तः॒ । मन्य॑ते । नः॒ । ब्रह्म॑ । वा॒ । यः । क्रि॒यमा॑णम् । निनि॑त्सात् । तपूं॑षि । तस्मै॑ । वृ॒जि॒नानि॑ । स॒न्तु॒ । ब्र॒ह्म॒ऽद्विष॑म् । अ॒भि । तम् । शो॒च॒तु॒ । द्यौः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अति वा यो मरुतो मन्यते नो ब्रह्म वा यः क्रियमाणं निनित्सात्। तपूंषि तस्मै वृजिनानि सन्तु ब्रह्मद्विषमभि तं शोचतु द्यौः ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अति। वा। यः। मरुतः। मन्यते। नः। ब्रह्म। वा। यः। क्रियमाणम्। निनित्सात्। तपूंषि। तस्मै। वृजिनानि। सन्तु। ब्रह्मऽद्विषम्। अभि। तम्। शोचतु। द्यौः ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 52; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः के मनुष्या निन्द्या वर्ज्जनीयाश्च सन्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मरुतो ! यो नोऽस्मानति मन्यते वा यः क्रियमाणं ब्रह्माऽति मन्यते वा निनित्सात् तं ब्रह्मद्विषं द्यौरभि शोचतु तस्मै तपूंषि वृजिनानि सन्तु ॥२॥

    पदार्थः

    (अति) (वा) (यः) (मरुतः) मनुष्याः (मन्यते) (नः) अस्मान् (ब्रह्म) धनम् (वा) (यः) (क्रियमाणम्) (निनित्सात्) निन्दितुमिच्छेत् (तपूंषि) तेजोमयानि (तस्मै) (वृजिनानि) बाधकानि (सन्तु) (ब्रह्मद्विषम्) धनस्य द्वेष्टारम् (अभि) (तम्) (शोचतु) (द्यौः) कामयमानो विद्वान् ॥२॥

    भावार्थः

    हे विद्वांसो ! ये मनुष्या अतिमानं धनादिद्वेषमाप्तनिन्दाञ्च कुर्वन्ति ते दण्डनीया निन्दनीयाः शोचनीयाश्च सन्ति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर कौन मनुष्य निन्दा करने और वर्जने योग्य हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मरुतः) मनुष्यो ! (यः) जो (नः) हम लोगों को (अति, मन्यते) अत्यन्त मानता है (वा) वा (यः) जो (क्रियमाणम्) क्रियमाण (ब्रह्म) धन को अत्यन्त मानता है (वा) वा (निनित्सात्) निन्दा करने को चाहे (तम्) उस (ब्रह्मद्विषम्) धनके द्वेषीजन को (द्यौः) कामना करता हुआ विद्वान् (अभि, शोचतु) सब ओर से शोचे (तस्मै) इसके लिये (तपूंषि) तेजोमय व्यवहार (वृजिनानि) बाधक (सन्तु) हों ॥२॥

    भावार्थ

    हे विद्वानो ! जो मनुष्य अतिमान, धनादिकों से द्वेष और अच्छे सज्जनों की निन्दा करते हैं, वे दण्ड देने, निन्दा करने और शोक करने योग्य होते हैं ॥२॥

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    विषय

    दुष्ट पुरुषों के प्रति वीरों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( यः वा ) और जो हे ( मरुतः ) विद्वान् पुरुषो ! ( नः ) हमारे ( क्रियमाणं ) किये जाते हुए ( ब्रह्म ) ब्रह्मज्ञान, धन, अन्न आदि को ( अति मन्यते ) अतिक्रमण करे, ( वा ) अथवा ( यः ) जो उसकी ( निनित्सात् ) निन्दा करे ( तस्मै ) उसके लिये ( तपूंषि ) समस्त तप, और तापदायक अस्त्रादि ( वृजिनानि ) वर्जन करने वाले, बाधक रूप से ( सन्तु ) हों । ( तं ) उस (ब्रह्म-द्विषम् ) ज्ञान, प्रभु, धन, अन्न आदि के द्वेषी पुरुष को ( द्यौः ) सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष, वा व्यवहार, वा धनादि कामना, और ( अभि शोचतु ) सब ओर से शोक, दुःखी, व्यथित, करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋजिश्वा ऋषिः ।। विश्वेदेवा देवताः ।। छन्दः – १, ४, १५, १६ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ३, ६, १३, १७ त्रिष्टुप् । ५ भुरिक् पंक्ति: । ७, ८, ११ गायत्री । ९ , १०, १२ निचृद्गायत्री । १४ विराड् जगती ॥

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    विषय

    'अतिमान' व 'स्तवन- निन्दा '

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो पुरुष हे (मरुतः) = मनुष्यो ! (नः) = हमारे में से (अतिमन्यते) = अतिमान करता है, गर्व करता है । (वा) = या (क्रियमाणम्) = किये जाते हुए (ब्रह्म) = ज्ञानपूर्वक स्तवन को (निनित्सात्) = निन्दित करे । (तस्मै) = उसके लिये वृजिनानि उसके ये पाप ही (तपूंषि सन्तु) = सन्ताप कर हों। 'अतिमान करना व प्रभु स्तवन का उपहास करना' ये ऐसे पाप हैं जो उसके कर्ता के लिये सन्तापजनक होते हैं। [२] (तम्) = उस (ब्रह्मद्विषम्) = ज्ञान के प्रति अप्रीतिवाले पुरुष के लिये (द्यौः) = यह देदीप्मान आदित्य (अभिशोचतु) = सन्ताप का कारण हो । अथवा यह सारा आकाश इसके शोक को पैदा करनेवाले हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- न तो हम अतिमान करें, नांही ज्ञानपूर्वक स्तवन की निन्दा करें ये पाप हमारे सन्ताप का कारण बनेंगे।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वानांनो! जी माणसे अति अभिमान धन इत्यादीचा द्वेष व चांगल्या लोकांची निंदा करतात ती दंड देण्यायोग्य, निंदा करण्यायोग्य व शोचनीय असतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O maruts, vibrant heroes, whoever hates us, or despises our wealth and piety, or deprecates our acts and holy programmes in progress, must have his tortuous paths exposed by the blazing light of truth. Let the loving and brilliant wise men subject the hater of nobility and eternal values to disapproval until he feels sorry.

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