ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 68/ मन्त्र 10
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रावरुणौ
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
इन्द्रा॑वरुणा सुतपावि॒मं सु॒तं सोमं॑ पिबतं॒ मद्यं॑ धृतव्रता। यु॒वो रथो॑ अध्व॒रं दे॒ववी॑तये॒ प्रति॒ स्वस॑र॒मुप॑ याति पी॒तये॑ ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑वरुणा । सु॒त॒ऽपौ॒ । इ॒मम् । सु॒तम् । सोम॑म् । पि॒ब॒त॒म् । मद्य॑म् । धृ॒त॒ऽव्र॒ता॒ । यु॒वोः । रथः॑ । अ॒ध्व॒रम् । दे॒वऽवी॑तये । प्रति॑ । स्वस॑रम् । उप॑ । या॒ति॒ । पी॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रावरुणा सुतपाविमं सुतं सोमं पिबतं मद्यं धृतव्रता। युवो रथो अध्वरं देववीतये प्रति स्वसरमुप याति पीतये ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रावरुणा। सुतऽपौ। इमम्। सुतम्। सोमम्। पिबतम्। मद्यम्। धृतऽव्रता। युवोः। रथः। अध्वरम्। देवऽवीतये। प्रति। स्वसरम्। उप। याति। पीतये ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 68; मन्त्र » 10
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते राजप्रजाजनाः किं कृत्वा कीदृशा भवेयुरित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्रावरुणेव सुतपौ धृतव्रता सभासेनेशौ ! ययोर्युवो रथो देववीतये पीतये प्रति स्वसरमध्वरमुप याति ताविमं सुतं मद्यं सोमं प्रति पिबतम् ॥१०॥
पदार्थः
(इन्द्रावरुणा) विद्युद्वद्वर्त्तमानौ सभासेनेशौ (सुतपौ) सुष्ठुब्रह्मचर्याद्यनुष्ठानाख्यं तपो ययोस्तौ। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति सलोपः। (इमम्) प्रत्यक्षम् (सुतम्) निष्पादितम् (सोमम्) महौषधिरसम् (पिबतम्) (मद्यम्) येन माद्यति हृष्यत्यानन्दति तम् (धृतव्रता) धृतानि कर्माणि याभ्यां तौ (युवोः) युवयोः (रथः) विमानादियानम् (अध्वरम्) अहिंसामयम् (देववीतये) दिव्यगुणप्राप्तये (प्रति) वीप्सायाम् (स्वसरम्) दिनम् (उप) (याति) उपगच्छति (पीतये) पानाय ॥१०॥
भावार्थः
हे राजप्रजाजना यूयं प्रतिदिनं सोमलताद्युत्पन्नं सर्वरोगहरं बलबुद्धिपराक्रमवर्धकं हिंसारहितं महौषधिरसं पीत्वा धर्मात्मानो भवत ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे राज प्रजाजन क्या करके कैसे हो, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्रावरुणा) बिजुली के समान वर्त्तमान (सुतपौ) सुन्दर ब्रह्मचर्य आदि अनुष्ठान तप जिनका और (धृतव्रता) जिन्होंने उत्तम कर्म धारण किये हैं, वे सभा और सेनाधीशो ! जिन (युवोः) तुम लोगों का (रथः) विमान आदि यान (देववीतये) दिव्यगुणों की प्राप्ति और (पीतये) उत्तमोत्तम रस पीने के लिये (प्रति, स्वसरम्) प्रतिदिन (अध्वरम्) अहिंसामय यज्ञ को (उप, याति) प्राप्त होता है वे (इमम्) इस (सुतम्) उत्पन्न किये हुए (मद्यम्) जिससे जीव आनन्द को प्राप्त होता है उस (सोमम्) बड़ी-बड़ी ओषधियों के रस को (पिबतम्) पिओ ॥१०॥
भावार्थ
हे राजप्रजाजनो ! तुम प्रतिदिन सोमलता आदि से उत्पन्न किये हुए सर्व रोगों के हरने, बल बुद्धि, पराक्रम बढ़ानेवाले, हिंसारहित, महौषधियों के रस को पीकर धर्मात्मा होओ ॥१०॥
विषय
इन्द्र वरुण, स्त्री पुरुषों का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( इन्द्रा वरुणौ ) ऐश्वर्यवान् और श्रेष्ठ मान्य स्त्री पुरुष ! आप लोग ( धृत व्रता ) व्रतों को धारण करने वाले ( सुत-पा ) प्रजा जनों को, राष्ट्र को पुत्रवत् पालन करने वाले, आप दोनों (इमं सुतं ) इस पुत्रवत् उत्पन्न प्रजा जनको ( सोमं ) ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र वा, प्रिय सौम्य स्वभाव के ( मद्यम् ) आनन्द वा हर्ष के जनक, अन्नवत् तृप्तिदायक सुखजनक को ( पिबतम् ) पालन करो । ( युवोः ) आप दोनों का ( रथ: ) रथ और रमणीय व्यवहार (देव-वीतौ ) विद्याभिलाषी जन तथा उत्तम विद्वानों की रक्षा और कान्ति के लिये, ( स्व-सरम् अध्वरम् प्रति ) दिन के समान सुप्रकाशित, स्वयं उत्तम वेग से जाने वाले, हिंसा रहित, राज्यपालन, अध्ययनाध्यापन कार्य के प्रति ( प्रीतये ) प्रजाजन के पालन के लिये ( उप याति ) प्राप्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रावरुणौ देवते । छन्दः - १, ४, ११ त्रिष्टुप् । । ६ निचृत्त्रिष्टुप् । २ भुरिक पंक्ति: । ३, ७, ८ स्वराट् पंक्तिः । ५ पंक्तिः । ९ , १० निचृज्जगती ।। दशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
स्व-सरं अध्वरं प्रति
पदार्थ
[१] हे (सुतपौ) = उत्पन्न सोम का रक्षण करनेवाले (धृतव्रता) = व्रतों का धारण करनेवाले (इन्द्रावरुणा) = इन्द्र और वरुण, जितेन्द्रियता व निर्देषता के भावो! आप (इमम्) = इस (सुतम्) = उत्पन्न हुए-हुए (मद्यम्) = मद व उल्लास के जनक (सोमम्) = सोम को (पिबतम्) = पीनेवाले होवो, शरीर में ही इसे व्याप्त करनेवाले होवो । वस्तुतः जितेन्द्रियता व निर्देषता के भाव हमें व्रतमय जीवनवाला बनाते हैं। ऐसे जीवन में ही सोम के रक्षण का सम्भव होता है । [२] हे इन्द्र और वरुण ! (युवोः रथः) = आपका यह शरीररूप रथ (स्वसरम्) = [स्व+सृ] आत्मतत्त्व की ओर ले जानेवाले (अध्वरं प्रति) = जीवनयज्ञ की ओर उपयाति प्राप्त होता है और इस प्रकार यह (देववीतये) = दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिये होता है और (पीतये) = शरीर में सोम के रक्षण के लिये होता है।
भावार्थ
भावार्थ– जितेन्द्रियता व निर्देषता के धारण करने पर हम आत्मतत्त्व की प्राप्ति के मार्ग पर चलते हैं। दिव्य गुणों को प्राप्त करते हैं और शरीर में सोम को सुरक्षित कर पाते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा प्रजाननांनो ! तुम्ही प्रत्येक दिवशी सोमलता इत्यादीने उत्पन्न केलेल्या, सर्व रोग नष्ट करणाऱ्या, बल, बुद्धी, पराक्रम वाढविणाऱ्या, हिंसारहित, महौषधींचा रस प्राशन करून धर्मात्मा बना. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra and Varuna, rulers of power and justice, dedicated to your own law and discipline, protectors and sustainers of your own creation, come and drink of this exhilarating nectar of joyous celebration distilled for you. Your chariot moves to the constant self- sustaining yajna of love and non-violence every day so that you may drink of the soma in the company of divines.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the king and his subjects be after doing what is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the council of ministers and Commander-in-Chief of the army! you who are splendid like electricity and who have observed Brahmacharya (abstinence) and other kinds of austerity (Japa) well, who uphold many vows or good actions, whose vehicle in the form of the aircraft etc. comes every day to the place of Yajna or non-violent sacrifice for the attainment of divine virtues, drink the extracted juice of the great herbs and drugs which is very delightful.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king and his subjects! drink every day the juice of the great herbs, which keeps away all diseases, is increaser of the strength, intellect and vigor and non-violent and become righteous.
Foot Notes
(देववीतये) दिव्यगुणप्राप्तये । वी-गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु (अदा.) अत्र गतेस्त्रिष्वर्थेषु अत्र प्राप्त्यर्थं ग्रहणम् । = For the attainment of the divine virtues, (स्वसरम्) दिनम् । स्वसराणि इति अर्हनाम (NG 1, 9)। = Day.
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