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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 68/ मन्त्र 11
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रा॑वरुणा॒ मधु॑मत्तमस्य॒ वृष्णः॒ सोम॑स्य वृष॒णा वृ॑षेथाम्। इ॒दं वा॒मन्धः॒ परि॑षिक्तम॒स्मे आ॒सद्या॒स्मिन्ब॒र्हिषि॑ मादयेथाम् ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑वरुणा । मधु॑मत्ऽतमस्य । वृष्णः॑ । सोम॑स्य । वृ॒ष॒णा॒ । आ । वृ॒षे॒था॒म् । इ॒दम् । वा॒म् । अन्धः॑ । परि॑ऽसिक्तम् । अ॒स्मे इति॑ । आ॒ऽसद्य । अ॒स्मिन् । ब॒र्हिषि॑ । मा॒द॒ये॒था॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रावरुणा मधुमत्तमस्य वृष्णः सोमस्य वृषणा वृषेथाम्। इदं वामन्धः परिषिक्तमस्मे आसद्यास्मिन्बर्हिषि मादयेथाम् ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रावरुणा। मधुमत्ऽतमस्य। वृष्णः। सोमस्य। वृषणा। आ। वृषेथाम्। इदम्। वाम्। अन्धः। परिऽसिक्तम्। अस्मे इति। आऽसद्य। अस्मिन्। बर्हिषि। मादयेथाम् ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 68; मन्त्र » 11
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ किं कृत्वा किं कारयेतामित्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्रावरुणेव वृषणा ! युवां मधुमत्तमस्य वृष्णः सोमस्य सेवनेना वृषेथां ययोर्वामिदं परिषिक्तमन्धोऽस्ति तौ युवामस्मे अस्मिन् बर्हिष्यासद्याऽस्मान् मादयेथाम् ॥११॥

    पदार्थः

    (इन्द्रावरुणा) विद्युद्वायुवद्वर्त्तमानौ राजप्रजाजनौ (मधुमत्तमस्य) अतिशयेन मधुरादिगुणयुक्तस्य (वृष्णः) बलकरस्य (सोमस्य) महौषधिरसस्य (वृषणा) बलिष्ठौ (आ) (वृषेथाम्) बलिष्ठौ भवेथाम् (इदम्) (वाम्) (अन्धः) अन्नम् (परिषिक्तम्) सर्वतः सिक्तम् (अस्मे) अस्मास्वस्मान् वा (आसद्य) उपविश्य (अस्मिन्) (बर्हिषि) अवकाशे (मादयेथाम्) आनन्दयतम् ॥११॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सोमलतादिरसेन युक्तेनान्नेन पानेन वा स्वयमानन्द्याऽस्मानानन्दयन्ति त एव सर्वैः सत्कर्त्तव्या जायन्त इति ॥११॥ अस्मिन् सूक्ते इन्द्रावरुणवद्राजप्रजाकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यष्टषष्टितमं सूक्तं द्वादशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे क्या करके क्या करावें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्रावरुणा) बिजुली और वायु के समान वर्त्तमान (वृषणा) बलवान् राजा प्रजाजनो ! तुम (मधुमत्तमस्य) अतीव मधुरादिगुणयुक्त (वृष्णः) बल करनेवाले (सोमस्य) बड़ी बड़ी ओषधियों के रसों के सेवने से (आ, वृषेथाम्) बलिष्ठ होओ जिन (वाम्) तुम दोनों का (इदम्) यह (परिषिक्तम्) सब ओर से सींचा हुआ (अन्धः) अन्न है वे तुम (अस्मे) हम लोगों में वा हम को (अस्मिन्) इस (बर्हिषि) अवकाश में (आसद्य) बैठ के (मादयेथाम्) आनन्दित करो ॥११॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सोमलतादि रसयुक्त अन्न वा पान से आप आनन्दित होकर हमको आनन्दित करते हैं, वे ही सब से सत्कार करने योग्य होते हैं ॥११॥ इस सूक्त में वरुण के समान राजप्रजा के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह अड़सठवाँ सूक्त और बारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ

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    विषय

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    भावार्थ

    हे ( इन्द्रा वरुणा ) ऐश्वर्ययुक्त और हे श्रेष्ठ और दुःखों के वारण करने और उत्तम पद पर वरण करने योग्य स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( मधुमतृ तमस्य ) अति मधुर ( वृष्णः ) बलकारक ( सोमस्य ) अन्न, जल और ऐश्वर्य के उपभोग से ( वृषेथाम् ) खूब बलवान् बनो । हे ( वृषणा ) बलवान् स्त्री पुरुषो ! ( इदं ) यह ( वाम् ) आप दोनों का ( अन्धः ) उत्तम अन्न ( अस्मे ) हमारे लिये भी ( परि-सिक्तम् ) सब प्रकार से सिंच कर पात्रादि में रक्खा हो और आप दोनों ( अस्मिन् बर्हिषि ) इस वृद्धिशील राष्ट्रगृह और उत्तम आसन पर (आसद्य) विराजकर ( मादयेथाम् ) अति हर्ष लाभ करो, सुखी होओ । इति द्वादशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रावरुणौ देवते । छन्दः - १, ४, ११ त्रिष्टुप् । । ६ निचृत्त्रिष्टुप् । २ भुरिक पंक्ति: । ३, ७, ८ स्वराट् पंक्तिः । ५ पंक्तिः । ९ , १० निचृज्जगती ।। दशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    सोमरक्षण व आनन्द प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] हे (वरुणा) = शक्तिशाली इन्द्रावरुणा इन्द्र और वरुण, जितेन्द्रियता व निर्देषता के भावो! आप (मधुमत्तमस्य) = हमारे जीवन को अत्यन्त मधुर बनानेवाले (वृष्णः) = शक्तिशाली (सोमस्य) = सोम का, वीर्यशक्ति का (वृषणा) = सोम शक्ति के द्वारा (आवृषेथाम्) = शरीर में ही चारों ओर सेचन करो। यही आपका सोमभक्षण है। [२] (इदम्) = यह (वाम्) = आपके द्वारा (अस्मे) = हमारे लिये (अन्धः) = आध्यातव्य सोम (परिषिक्तम्) = शरीर में चारों ओर सिक्त हुआ है। (अस्मिन्) = इस (बर्हिषि) = वासनाशून्य हृदय में (आसद्य) = आसीन होकर हे इन्द्र और वरुण ! (मादयेथाम्) = आप हमारे जीवनों को आनन्दयुक्त करो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- जितेन्द्रियता व निर्देषता के भाव हमारे जीवनों में सोमरक्षण के द्वारा आनन्द के जनक होते हैं। अगले सूक्त के देवता 'इन्द्राविष्णू' हैं। 'इन्द्र' बल का प्रतीक है और 'विष्णु' व्यापकता व धारण का। हम बल को प्राप्त करते उदार वृत्तिवाले बनें और बल के द्वारा सभी का धारण करनेवाले बनें -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सोमलता इत्यादी रसयुक्त अन्नपान करून स्वतः आनंदित होऊन आम्हाला आनंदित करतात त्यांचाच सर्वांनी सत्कार करावा. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Generous Indra and Varuna, give us abundant showers of the most exhilarating honey sweets of soma. This nectar of devotion is distilled and seasoned for you. Come, sit on the holy grass and rejoice with us and for us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should they do and urge others to do is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king and his subjects ! you who are mighty like the wind and electricity, become strong by taking the sweet juice of the invigorating great herbs, which has been prepared for you, sitting on this good Asana (seat) and gladden us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons only become worthy of veneration, who being delighted by taking Soma and the juice of other plants and herbs and proper food and drink, and gladden others.

    Foot Notes

    (अन्धः) अन्नम् । अन्ध इत्यन्ननाम (NG 2, 7) = Food.

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