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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 68/ मन्त्र 8
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    नू न॑ इन्द्रावरुणा गृणा॒ना पृ॒ङ्क्तं र॒यिं सौ॑श्रव॒साय॑ देवा। इ॒त्था गृ॒णन्तो॑ म॒हिन॑स्य॒ शर्धो॒ऽपो न ना॒वा दु॑रि॒ता त॑रेम ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नु । नः॒ । इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णा॒ । गृ॒णा॒ना । पृ॒ङ्क्तम् । र॒यिम् । सौ॒श्र॒व॒साय॑ । दे॒वा॒ । इ॒त्था । गृ॒णन्तः॑ । म॒हिन॑स्य । शर्धः॑ । अ॒पः । न । ना॒वा । दुः॒ऽइ॒ता । त॒रे॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नू न इन्द्रावरुणा गृणाना पृङ्क्तं रयिं सौश्रवसाय देवा। इत्था गृणन्तो महिनस्य शर्धोऽपो न नावा दुरिता तरेम ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नु। नः। इन्द्रावरुणा। गृणाना। पृङ्क्तम्। रयिम्। सौश्रवसाय। देवा। इत्था। गृणन्तः। महिनस्य। शर्धः। अपः। न। नावा। दुःऽइता। तरेम ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 68; मन्त्र » 8
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते राजप्रजाजनाः कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्रावरुणेव नो गृणाना देवा राजप्रजाजनौ ! यथा युवां सौश्रवसाय रयिं पृङ्क्तमित्था महिनस्य शर्धो गृणन्तो वयं नावाऽपो न दुरिता नू तरेम ॥८॥

    पदार्थः

    (नू) क्षिप्रम् (नः) अस्मान् (इन्द्रावरुणा) सूर्य्यचन्द्रवद्वर्त्तमानौ राजप्रजाजनौ (गृणाना) स्तुवन्तौ (पृङ्क्तम्) संबध्नीतम् (रयिम्) श्रियम् (सौश्रवसाय) सुश्रवसो भावाय (देवा) दातारौ (इत्था) अनेन प्रकारेण (गृणन्तः) स्तुवन्तः (महिनस्य) महतः (शर्धः) बलम् (अपः) जलानि (न) इव (नावा) नौकया (दुरिता) दुःखेनोल्लङ्घयितुं योग्यानि (तरेम) ॥८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! ये राजप्रजाजनाः परस्परस्मिन् प्रीताः सन्तोऽन्नाद्याय श्रियं संचिन्वन्ति ते सूर्य्यचन्द्रवत्प्रतापिनो भूत्वा यथा महत्या नौकया दुर्गानपि समुद्रान् जनास्तरन्ति तथैव महान्त्यपि दुःखदारिद्र्याणि सद्यस्तरन्ति ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे राजप्रजाजन कैसे वर्त्तें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्रावरुणा) सूर्य और चन्द्रमा के तुल्य वर्त्तमान (नः) हम लोगों को (गृणाना) प्रशंसा करने और (देवा) देनेवाले राजप्रजाजनो ! जैसे तुम दोनों (सौश्रवसाय) उत्तम यश होने के लिये (रयिम्) धन का (पृङ्क्तम्) सम्बन्ध करो (इत्था) ऐसे (महिनस्य) बड़े के (शर्धः) बल की (गृणन्तः) प्रशंसा करते हुए हम लोग (नावा) नाव से (अपः) जलों को (न) जैसे वैसे (दुरिता) दुःख से उल्लङ्घन करने योग्य कष्टों को (नू) शीघ्र (तरेम) तरें ॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो राजप्रजाजन आपस में प्रीतिवाले होकर अन्नादि पदार्थों के लिये धन इकट्ठा करते हैं, वे सूर्य और चन्द्रमा के तुल्य प्रतापी होकर जैसे बड़ी नौका से दुःख से तरने योग्य समुद्रों को जन पार होते हैं, वैसे ही बड़े बड़े दुःख और दारिद्र्यों को शीघ्र तरते हैं ॥८॥

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    विषय

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    भावार्थ

    हे ( इन्द्रावरुणा ) शत्रुहन्तः ! हे शत्रुवारक सेनापति एवं सैन्यवर्ग ! आप दोनों ( देवा ) विजयशील होकर ( गृणाना ) मा बाप के तुल्य उत्तम २ आज्ञाएं और उपदेश करते हुए, ( सौश्रवसाय ) उत्तम कीर्ति लाभ करने के लिये ( रयिं पृङ्क्तम् ) ऐश्वर्य प्राप्त करो । (इत्था) इस प्रकार सत्य २ ( महिनस्य शर्धः ) महान् पुरुष, प्रभु के बल की हम लोग ( गृणन्तः ) स्तुति करते हुए (नावा अपः न) नाव से जलों के समान ( नावा) उत्तम स्तुति और तेरी प्रेरणा से हम लोग ( दुरिता ) सब पापों और कष्टों से ( तरेम ) पार होजायं ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रावरुणौ देवते । छन्दः - १, ४, ११ त्रिष्टुप् । । ६ निचृत्त्रिष्टुप् । २ भुरिक पंक्ति: । ३, ७, ८ स्वराट् पंक्तिः । ५ पंक्तिः । ९ , १० निचृज्जगती ।। दशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    आपो न नावादुरिता तरेम

    पदार्थ

    [१] (नू) = अब (गृणाना) = स्तुति किये जाते हुए (इन्द्रावरुणा) = इन्द्र और वरुण, जितेन्द्रियता व निर्देषता के भाव (न:) = हमारे लिये (रयिम्) = धन को (पृतम्) = देनेवाले हो । (देवौ) = प्रकाशमय इन्द्र और वरुण हमारे (सौश्रवसाय) = उत्कृष्ट ज्ञान के लिये हो । [२] (इत्था) = इस प्रकार (महिनस्य) = उस महान् महिमावाले प्रभु के (शर्ध:) = बल का (गृणन्तः) = स्तवन करते हैं हम (दुरिता तरेम) = दुरितों को इस प्रकार तैर जायें, (न) = जैसे कि (नावा आपः) = नौका से जलों को तैर जाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- जितेन्द्रियता व निर्देषता का आराधन हमारे ऐश्वर्य व ज्ञान का साधक हो । उस महान् प्रभु के सामर्थ्य का स्तवन करते हुए हम पापों से पार हो जायें। निष्पाप जीवनवाले बनें ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जे राज प्रजाजन परस्पर प्रेमाने अन्न इत्यादी पदार्थांसाठी धन एकत्र करतात ते सूर्य व चंद्राप्रमाणे पराक्रमी बनतात. जसे मोठ्या नावेतून लोक समुद्र तरून जातात तसेच ते मोठमोठ्या दुःख व दारिद्र्यातून तत्काळ तरून जातात. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra and Varuna, brilliant and generous lords of nature and humanity praised and adored by all, bless us with abundant wealth for honour and excellence of life so that grateful and worshipful, celebrating the power and glory of your grace and grandeur, we may cross over the difficult problems, evils and negativities of the world as we cross the seas by boat.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should the kings and their subjects deal with one another- is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king and the people ! you who are like the sun and the moon, you who praise us and are liberal donors, as you utilize wealth for attaining good reputation, in the same manners, let us, admiring the strength of great men, overcome all miseries like the water with a steamer.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! those kings and their subjects, who gather wealth for food and other necessities, loving one another, being mighty like the sun and the moon, go across or overcome even the great miseries and poverty as men cross the oceans with the help of a great steamer.

    Foot Notes

    (सोस्रवसाय) सुश्रवसो भावाय । श्रवः-यशः । श्रुयते इति सतः । श्रवः प्रशंसा ( NKT 4, 4, 24 )। = For good reputation. ( इन्द्रा-वरुणा) सूर्यचन्द्रवद् वर्तमानौ राजा प्रजाजनौ । = The king and his subjects who are like the sun and the moon. (शर्ध:) बलम् । शर्ध इति बलनाम (NG_2, 9)। = Strength.

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