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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 35/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    शं नो॒ द्यावा॑पृथि॒वी पू॒र्वहू॑तौ॒ शम॒न्तरि॑क्षं दृ॒शये॑ नो अस्तु। शं न॒ ओष॑धीर्व॒निनो॑ भवन्तु॒ शं नो॒ रज॑स॒स्पति॑रस्तु जि॒ष्णुः ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शम् । नः॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । पू॒र्वऽहू॑तौ । शम् । अ॒न्तरि॑क्षम् । दृ॒शये॑ । नः॒ । अ॒स्तु॒ । शम् । नः॒ । ओष॑धीः । व॒निनः॑ । भ॒व॒न्तु॒ । शम् । नः॒ । रज॑सः । पतिः॑ । अ॒स्तु॒ । जि॒ष्णुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शं नो द्यावापृथिवी पूर्वहूतौ शमन्तरिक्षं दृशये नो अस्तु। शं न ओषधीर्वनिनो भवन्तु शं नो रजसस्पतिरस्तु जिष्णुः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शम्। नः। द्यावापृथिवी इति। पूर्वऽहूतौ। शम्। अन्तरिक्षम्। दृशये। नः। अस्तु। शम्। नः। ओषधीः। वनिनः। भवन्तु। शम्। नः। रजसः। पतिः। अस्तु। जिष्णुः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 35; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्भिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे जगदीश्वरशिक्षकौ ! भवत्कृपोपदेशाभ्यां पूर्वहूतौ द्यावापृथिवी नश्शं दृशयेऽन्तरिक्षं नश्शमस्त्वोषधीर्वनिनो नश्शं भवन्तु रजसस्पतिर्जिष्णुर्नश्शमस्तु ॥५॥

    पदार्थः

    (शम्) (नः) (द्यावापृथिवी) विद्युद्भूमी (पूर्वहूतौ) पूर्वेषां हूतिः प्रशंसा यस्मिन् येन वा तस्याम् (शम्) (अन्तरिक्षम्) भूमिसूर्ययोर्मध्यमाकाशम् (दृशये) दर्शनाय (नः) (अस्तु) (शम्) (नः) (ओषधीः) यवसोमलताद्याः (वनिनः) वनानि सन्ति येषु ते वृक्षाः (भवन्तु) (शम्) (नः) (रजसः) लोकजातस्य (पतिः) स्वामी (अस्तु) (जिष्णुः) जयशीलः ॥५॥

    भावार्थः

    ये सर्वान् सृष्टिस्थान् पदार्थान् सुखाय संयोक्तुमर्हन्ति त एवोत्तमा विद्वांसस्सन्ति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे जगदीश्वर और शिक्षा देनेवाले ! आप की कृपा और उपदेश से (पूर्वहूतौ) जिसमें पिछलों की प्रशंसा विद्यमान वा जिससे पिछलों की प्रशंसा होती है उस में (द्यावापृथिवी) बिजुली और भूमि (नः) हम लोगों के लिये (शम्) सुख (दृशये) देखने को (अन्तरिक्षम्) भूमि और सूर्य्य के बीच का आकाश (नः) हम लोगों के लिये (शम्) सुखरूप (अस्तु) हो और (ओषधीः) ओषधि तथा (वनिनः) वन जिसमें विद्यमान वे वृक्ष (नः) हमारे लिये (शम्) सुखरूप (भवन्तु) होवें (रजसः) लोकों में उत्पन्न हुओं का (पतिः) स्वामी (जिष्णुः) जयशील (नः) हमारे लिये (शम्) सुखरूप (अस्तु) हो ॥५॥

    भावार्थ

    जो सब सृष्टिस्थ पदार्थों को सुख के लिये संयुक्त करने को योग्य होते हैं, वे ही उत्तम विद्वान् होते हैं ॥५॥

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    विषय

    शान्तिसूक्त, समस्त भौतिक तत्वों से शान्ति प्राप्त करने की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    (पूर्वहूतौ ) पूर्व के विद्वानों के उत्तम स्तुति या प्रशंसा के योग्य कार्य में संलग्न ( द्यावा पृथिवी) सूर्य और भूमि वा विद्युत् और भूमिवत् स्त्री पुरुष दोनों (नः शं) हमें शान्तिदायक हों । ( अन्तरिक्षं ) अन्तरिक्ष (नः) हमें ( दृशये) उत्तम रीति से देखने के लिये ( शम् अस्तु ) शान्तिदायक हो, ( वनिनः ओषधीः ) वनकी ओषधियें ( नः शं भवन्तु ) हमें शान्तिदायक हों । ( रजसः पतिः ) समस्त लोकों का पालक ( जिष्णुः ) विजयशील पुरुष भी (नः शम्) हमें शान्तिदायक हो । इत्यष्टाविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषि:॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः– १, २, ३, ४, ५, ११, १२ त्रिष्टुप्। ६, ८, १०, १५ निचृत्त्रिष्टुप्। ७, ९ विराट् त्रिष्टुप्। १३, १४ भुरिक् पंक्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    विद्युत् और भूमि शान्तिदायक हों

    पदार्थ

    पदार्थ- (पूर्वहूतौ) = पूर्व के विद्वानों के उत्तम कार्य में लगे (द्यावृथिवी) = विद्युत् और भूमिवत् स्त्री-पुरुष दोनों (नः शं) = हमें शान्तिदायक हों । (अन्तरिक्षं) = अन्तरिक्ष (नः) = हमें (दृशये) = देखने के लिये (शम् स्तु) = शान्तिदायक हो, (वनिनः ओषधीः) = वन की ओषधियें (नः शं भवन्तु) = हमें शान्तिदायक हों। (रजसः पतिः) = लोकों का पालक (जिष्णुः) = विजयशील पुरुष (नः शम्) = हमें शान्तिदायक हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ-प्रजापालक विजयशील राजा विद्वान् स्त्री-पुरुषों को प्रजा के कल्याण हेतु नियुक्त करे। ये विद्वान् स्त्री-पुरुष अन्तरिक्ष को प्रदूषण रहित बनाने, वन की उत्तम ओषधियों द्वारा स्वास्थ्य सुरक्षित रखने आदि का उपदेश एवं मार्गदर्शन करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे सृष्टीतील सर्व पदार्थांना चांगल्या प्रकारे संयुक्त करू शकतात तेच उत्तम विद्वान असतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May the heaven and earth invoked since eternity in the first yajna, and the middle regions so charming to see be good for our peace and joy. May the herbs instilled with the vitality of sun rays be for our peace and joy of good health, and may the victorious lord of life on earth and in distant regions be good and bring us peace, prosperity and happiness.

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