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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 33/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    स॒त्यमि॒त्था वृषेद॑सि॒ वृष॑जूति॒र्नोऽवृ॑तः । वृषा॒ ह्यु॑ग्र शृण्वि॒षे प॑रा॒वति॒ वृषो॑ अर्वा॒वति॑ श्रु॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒त्यम् । इ॒त्था । वृषा॑ । इत् । अ॒सि॒ । वृष॑ऽजूतिः । नः॒ । अवृ॑तः । वृषा॑ । हि । उ॒ग्र॒ । शृ॒ण्वि॒षे । प॒रा॒ऽवति॑ । वृषः॑ । अ॒र्वा॒ऽवति॑ । श्रु॒तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सत्यमित्था वृषेदसि वृषजूतिर्नोऽवृतः । वृषा ह्युग्र शृण्विषे परावति वृषो अर्वावति श्रुतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सत्यम् । इत्था । वृषा । इत् । असि । वृषऽजूतिः । नः । अवृतः । वृषा । हि । उग्र । शृण्विषे । पराऽवति । वृषः । अर्वाऽवति । श्रुतः ॥ ८.३३.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 33; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    True it is thus you are virile and generous yourself and an inspiration and driving force for the virile and the brave, unbound, uncountered, brave and illustrious, harbinger of the showers of peace and joy and known as omnificent and sublime all over the world far and near.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मन जेथे बलवान असते तेथे ते सुख देणारेही असते. त्याला एकाग्रतेच्या अभ्यासाने दुर्भावानांच्या वेढ्यातून वाचविले पाहिजे. ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इत्था) इस तरह सुसंस्कृत मन (सत्यम् इत्) सचमुच ही (वृषा असि) सुख वर्धक सिद्ध होता है; (वृषजूतिः) बलवती एकाग्रताशक्ति युक्त है; (नः) हम में से (अवृतः) दुर्भावना वालों से घिरा हुआ नहीं; हे (उग्र) बलवन् ! तू (वृषा हि) निश्चित रूप से सुख देने वाले के रूप में (शृण्विषे) प्रसिद्ध है; (परावति) दूर देश में भी (अर्वावति) तथा समीप में भी (वृषः) सुखदाता (श्रुतः) प्रसिद्ध है ॥१०॥

    भावार्थ

    मन बलवान् तो है ही। वह सुखदाता भी है। एकाग्रता के अभ्यास से उसे दुर्भावनाओं द्वारा घेराव किए जाने से बचाना चाहिये ॥१०॥

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    विषय

    समस्त सुखवर्षी प्रभु।

    भावार्थ

    ( इत्था ) इस प्रकार ( सत्यम् ) सचमुच, ( वृषा इत् असि ) समस्त सुखों का वर्षाने वाला ही है। तू ( नः ) हमारे बीच ( अवृतः ) किसी से न घिरा, असंग, ( वृषजूतिः ) सुखवर्षक सूर्यादि को सञ्चालन करने में समर्थ सब का सारथिवत् नेता है। तू ( परावति ) दूर, परमार्थ में भी हे ( उग्र ) बलवन् ! ( वृषा हि शृण्विषे ) बलवान् ही सुना जाता है, और ( अर्वावति ) समीप, इह लोक में भी ( वृषः श्रुतः ) जगत् का प्रबन्धक, बलवान्, सुखों का वर्षक ही प्रसिद्ध है । इत्यष्टमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथि: काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१—३, ५ बृहती। ४, ७, ८, १०, १२ विराड् बृहती। ६, ९, ११, १४, १५ निचृद् बृहती। १३ आर्ची भुरिग बृहती। १६, १८ गायत्री। १७ निचृद् गायत्री। १९ अनुष्टुप्॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    वृषा

    पदार्थ

    [१] (सत्यम्) = सचमुच (इत्था) = इस प्रकार आप (वृषा इत् असि) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले हैं। (नः) = हमारे लिये (वृषजूतिः) = सुखकर प्रेरणा को देनेवाले हैं। (अवृतः) = आप कभी भी शत्रुओं से घेरे नहीं जाते। [२] हे (उग्र) = तेजस्विन् प्रभो ! आप (हि) = निश्चय से (वृषा) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले (शृण्विषे) = सुने जाते हैं। (परावति) = सुदूर देश में भी आप वृषा सुखवर्षक हैं। (उ) = और (अर्वावति) = समीप देश में भी [वृषा] (श्रुतः) = सुखवर्षक रूप में प्रसिद्ध हैं। क्या दूर, क्या समीप, आप सर्वत्र कल्याण करनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु वृषा हैं, सुखवर्षक हैं। सुखकर प्रेरणाओं को देते हुए और हमारे शत्रुओं को समाप्त करते हुए, वे दूर व समीप सर्वत्र ही सुख प्राप्त करानेवाले हैं।

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