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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 33/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    यः सु॑ष॒व्यः सु॒दक्षि॑ण इ॒नो यः सु॒क्रतु॑र्गृ॒णे । य आ॑क॒रः स॒हस्रा॒ यः श॒ताम॑घ॒ इन्द्रो॒ यः पू॒र्भिदा॑रि॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । सु॒ऽस॒व्यः । सु॒ऽदक्षि॑णः । इ॒नः । यः । सु॒ऽक्रतुः॑ । गृ॒णे । यः । आ॒ऽक॒रः । स॒हस्रा॑ । यः । श॒तऽम॑घः । इन्द्रः॑ । यः । पूः॒ऽभित् । आ॒रि॒तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः सुषव्यः सुदक्षिण इनो यः सुक्रतुर्गृणे । य आकरः सहस्रा यः शतामघ इन्द्रो यः पूर्भिदारितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । सुऽसव्यः । सुऽदक्षिणः । इनः । यः । सुऽक्रतुः । गृणे । यः । आऽकरः । सहस्रा । यः । शतऽमघः । इन्द्रः । यः । पूःऽभित् । आरितः ॥ ८.३३.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 33; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I sing and celebrate the glory of Indra who is generous with both hands right and left, magnificent, holy in action, treasure home of a thousandfold riches, who commands a hundredfold power, honour and excellence and who breaks down the strongholds of evil, darkness and suffering. Indeed he is glorious and adorable.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राष्ट्रनेत्याच्या आवश्यक गुणांचे या मंत्रात वर्णन आहे. ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    उस इन्द्र का वर्णन करें (यः) जो (इन्द्रः) राष्ट्राध्यक्ष या सेनापति (सु-सव्यः सुदक्षिणः) जिसका बायाँ व दायाँ--दोनों हाथ अर्थात् समस्त कर्म शक्तियाँ समर्थ हैं, (इनः) जो दृढ़ निश्चयी व साहसपूर्वक स्वामित्व करता है, (यः सुक्रतुः) जिसकी संकल्प या इच्छाशक्ति सुदृढ़ है (गृणे) ऐसी घोषणा है। (यः आकरः सहस्रा) जो सहस्रों गुणों की खान है; (शत-मघः) सैकड़ों प्रकार के न्याय से कमाए धन का स्वामी है; (यः पूर्भित्) जो शत्रु-नगरों को तोड़ देता है और (आरितः) सभी स्तुत्य गुण-कर्म-स्वभाव (स्तोम) जिसमें हैं ॥५॥

    भावार्थ

    राष्ट्र नेता के गुणों का वर्णन करते हुए बताया गया है कि वह दृढ़ संकल्पी, साहसी, गुणवान् व शत्रु दमन में समर्थ हो॥५॥

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    विषय

    पुरुषोत्तम के लक्षण ।

    भावार्थ

    पुरुषोतम कैसा है ? ( यः ) जो (सु-सव्यः सु-दक्षिणः) बायें और दायें दोनों हाथों से उत्तम कुशल, कर्म करने में समर्थ वा (सु-सव्यः ) उत्तम रीति से पूजा करने योग्य वा जगत् को उत्पन्न करने, शासन करने और संचालन करने में समर्थ, और ( सु-दक्षिणः ) उत्तम धन दान, बल, बुद्धि से सम्पन्न, ( इनः ) सबका स्वामी, ( यः ) जो ( सु-क्रतुः ) उत्तम कर्म व प्रज्ञावान् ( गृणे ) स्तुति किया जाता है। ( यः सहस्रा आकरः ) जो सहस्रों उत्तम कर्मों का करने वाला, वा खनि के समान सहस्रों गुणों, ऐश्वर्यो को धरने वाला है, ( यः शत-मघः ) जो सैकड़ों ऐश्वर्यो का स्वामी, (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् ( यः पूर्मित् ) शत्रु नगरों को तोड़ने वाला, वा ज्ञानपूर्वक योगिजनों के देह-बन्धन का विच्छेदक, मुक्तिदाता और जो ( आरितः ) स्तुति द्वारा प्राप्त होता है। इति सप्तमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथि: काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१—३, ५ बृहती। ४, ७, ८, १०, १२ विराड् बृहती। ६, ९, ११, १४, १५ निचृद् बृहती। १३ आर्ची भुरिग बृहती। १६, १८ गायत्री। १७ निचृद् गायत्री। १९ अनुष्टुप्॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'सुक्रतु- पूर्भित्' इन्द्र

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो (सुषव्यः सुदक्षिणः) = उत्तम बायें व दायें हाथवाले हैं अथवा (सुषव्यः) = उत्तमता से जगत् का निर्माण करनेवाले हैं और उत्तम दान देनेवाले हैं। (इनः) = स्वामी हैं । (यः सुक्रतुः) = जो शोभन प्रज्ञा व शक्तिवाले हैं । (गृणे) = वे प्रभु हमारे से स्तुति किये जाते हैं। [२] (यः) = जो (सहस्रा आकरः) = हजारों लोक-लोकान्तरों को बनानेवाले हैं। (यः शतामघः) = जो सैंकड़ों ऐश्वर्योंवाले हैं। (यः) = जो (इन्द्रः) = शत्रुओं का विदारण करनेवाले वे प्रभु आरितः स्तुति द्वारा प्राप्त हुए हुए [ऋ गतौ] पूर्भित्-काम-क्रोध-लोभ रूप शत्रुओं की पुरियों का विदारण करनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम उस अनन्त शक्ति व अनन्त प्रज्ञावाले प्रभु का स्मरण करें, जो स्तुति किये जाने पर सब अध्यात्म शत्रुओं का विध्वंस करनेवाले हैं।

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