ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 33/ मन्त्र 2
स्वर॑न्ति त्वा सु॒ते नरो॒ वसो॑ निरे॒क उ॒क्थिन॑: । क॒दा सु॒तं तृ॑षा॒ण ओक॒ आ ग॑म॒ इन्द्र॑ स्व॒ब्दीव॒ वंस॑गः ॥
स्वर सहित पद पाठस्वर॑न्ति । त्वा॒ । सु॒ते । नरः॑ । वसो॒ इति॑ । नि॒रे॒के । उ॒क्थिनः॑ । क॒दा । सु॒तम् । तृ॒षा॒णः । ओकः॑ । आ । ग॒मः॒ । इन्द्र॑ । स्व॒ब्दीऽइ॑व । वंस॑गः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वरन्ति त्वा सुते नरो वसो निरेक उक्थिन: । कदा सुतं तृषाण ओक आ गम इन्द्र स्वब्दीव वंसगः ॥
स्वर रहित पद पाठस्वरन्ति । त्वा । सुते । नरः । वसो इति । निरेके । उक्थिनः । कदा । सुतम् । तृषाणः । ओकः । आ । गमः । इन्द्र । स्वब्दीऽइव । वंसगः ॥ ८.३३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 33; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, Vasu, giver of peace and security in self settlement, while the soma of faith and love has been distilled in the heart and the devotees sing and celebrate your honour in hymns of praise, when would you, keen to join us at the celebration, come to the yajnic hall thirsting to meet the people you love and admire.
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा साधकाला परमेश्वराच्या सान्निध्यरूप परमानंदाचा अनुभव येतो तेव्हा जणू तो आपल्या सर्व तहान लागलेल्या अवयवाची तृषा त्याच्या उपयोगाने मिटवू इच्छितो ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (वसो!) सारे जग को बसाने वाले (निरेके) संशययुक्त अर्थात् निश्चित रूप से (सुते) अन्तःकरण में परमानन्द के प्राप्त हो जाने पर (उक्थिनः नरः) स्तोता (त्वा) आपको (स्वरन्ति) पुकारते हैं। मानो वे कहते हैं कि हे इन्द्र! हे मेरे जीवात्मा! (स्वब्दीव) श्रेष्ठ जलदाता के तुल्य (वंसगः) विभाग करके देने वाला तू (सुतं तृषाण) प्राप्त परमानन्द से प्यास बुझाना चाहने वाले के समान (ओके) निवास स्थान में (कदा आगमः) कब आएगा ॥२॥
भावार्थ
जब साधक भगवान् के सान्निध्यरूप परमानन्द का अनुभव करता है, तो मानो वह अपने सभी तृषार्त अधिकरणों की पिपासा ही उसके उपयोग से मिटाना चाहता है॥२॥
विषय
प्रभु ईश्वर की उपासना।
भावार्थ
हे (वसो) समस्त जगत् को बसाने, सबकी रक्षा करने हारे हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( उक्थिनः नरः ) उत्तम वेद-वचन को धारण करने वाले जन, ( सुते ) इस उत्पन्न जगत् में, ( निरेके ) एकान्त में भी ( त्वा स्वरन्ति ) तुझे लक्ष्य कर पुकारते हैं। हे ( इन्द्र) ऐश्वर्यवन्, उत्तम गति से चलने हारा ( सु-अब्दीव ) गर्जते मेघवत् या महा वृषभवत् ( तृषाण: ) पिपासित के समान अति उत्कण्ठित होकर ( सुतं कदा आगमः ) इस उत्पन्न जीव संसार को कब प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेधातिथि: काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१—३, ५ बृहती। ४, ७, ८, १०, १२ विराड् बृहती। ६, ९, ११, १४, १५ निचृद् बृहती। १३ आर्ची भुरिग बृहती। १६, १८ गायत्री। १७ निचृद् गायत्री। १९ अनुष्टुप्॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
स्वब्दीव वंसगः
पदार्थ
[१] हे (वसो) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले प्रभो ! (उक्थिनः) = स्तोता (नरः) = लोग (सुते) = शरीर में सोम का सम्पादन करने पर तथा (निरेके) = [रेकृ शंकायाम्] शंकाशून्य हृदय के होने पर, आप में पूर्ण श्रद्धा के होने पर (त्वा स्वरन्ति) = आपके स्तोत्रों का उच्चारण करते हैं, आपके गुणों का गायन करते हैं। [२] हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! (कदा) = कब (सुतं तृषाण:) = उत्पन्न सोम के प्रति तीव्र व्याप्तवाला होता हुआ, सोमरक्षण की प्रबल कामनावाला होता हुआ यह स्तोता (ओके आगमः) = अपने घर में आयेगा ? अर्थात् विषयों में न भटकता हुआ कब यह अन्तर्मुखी वृत्तिवाला बनेगा ! कब यह (स्वब्दी इव) = उत्तम वर्षोंवाले पुरुष के समान होगा? अर्थात् कब समझदार होकर (वंसगः) = वननीय, सुन्दर गतिवाला होगा।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का उपासन वही करता है जो [क] सोम का रक्षण करता है तथा [ख] हृदय में प्रभुसत्ता के विषय में शंका रहित होता है। यह यही चाहता है कि मैं [क] सोम का रक्षण कर पाऊँ, [ख] इन्द्रियों को विषयों में भटकने से रोक सकूँ, [ग] तथा समझदार बनकर सुन्दर आचरणवाला होऊँ।
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