ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 33/ मन्त्र 4
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्बृहती
स्वरः - मध्यमः
पा॒हि गायान्ध॑सो॒ मद॒ इन्द्रा॑य मेध्यातिथे । यः सम्मि॑श्लो॒ हर्यो॒र्यः सु॒ते सचा॑ व॒ज्री रथो॑ हिर॒ण्यय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठपा॒हि । गाय॑ । अन्ध॑सः । मदे॑ । इन्द्रा॑य । मे॒ध्य॒ऽअ॒ति॒थे॒ । यः । सम्ऽमि॑श्लः । हर्योः॑ । यः । सु॒ते । सचा॑ । व॒ज्री । रथः॑ । हि॒र॒ण्ययः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पाहि गायान्धसो मद इन्द्राय मेध्यातिथे । यः सम्मिश्लो हर्योर्यः सुते सचा वज्री रथो हिरण्यय: ॥
स्वर रहित पद पाठपाहि । गाय । अन्धसः । मदे । इन्द्राय । मेध्यऽअतिथे । यः । सम्ऽमिश्लः । हर्योः । यः । सुते । सचा । वज्री । रथः । हिरण्ययः ॥ ८.३३.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 33; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O man, you are a visitor and respectable guest on this earth of a golden order of beauty, prosperity and culture. Observe the rules of this order, advance the beauty and prosperity of it, and in the pleasure and ecstasy of its plenty of soma hospitality, sing and celebrate the glory of Indra, lord ruler of vision and action united, commander of the nation’s forces, dynamic and creative, friendly and cooperative, wielder of the thunderbolt of justice and retribution, burden bearer and pilot of the golden chariot of humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
राष्ट्राचा अध्यक्ष राजा किंवा सेनापती प्राण व अपानच्या सम्मिलित शक्तीद्वारे बलवान, योद्धा अर्थात संघर्षशील बनून संसारातील पदार्थांना उपलब्ध करून देणारा, साधनसंपन्न, गतिशील व तेजस्वी असावा. ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (मेध्य अतिथे) पूज्य अभ्यागत विद्वान्! आप (पाहि) भक्ष्य तथा पेय ग्रहण कीजिये व (अन्धसः मदे) अन्न के हर्षदायक सुख में विभोर हो (इन्द्राय) इन्द्र को लक्ष्य कर कुछ (गाय) गीतों में वर्णन करिए। उस इन्द्र का वर्णन करें कि जो (हर्योः) शरीररूपी रथ ले जाने वाली प्राण व अपान शक्तियों का (संमिश्लः) मिश्रण है; (सूते) उत्पन्न संसार में (अर्यः) वीर है, (सचा) साथ ही (वज्री) लक्ष्यप्राप्ति के साधनों से युक्त है, (रथः) गतिशील तथा (हिरण्ययः) तेजोमय है॥४॥
भावार्थ
राष्ट्राध्यक्ष राजा या सेनापति प्राण व अपान की सम्मिलित शक्ति से बलिष्ठ; योद्धा अर्थात् संघर्षशील होकर सांसारिक पदार्थों को प्रदान करने वाला साधनयुक्त, गतिशील और तेजस्वी हो॥४॥
विषय
राजा और विद्वान् के कर्त्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
हे ( मेध्यातिथे ) 'मेघ' अर्थात् सत्संग और अन्नादि द्वारा सत्कार करने योग्य अतिथे ! विद्वन् ! तू ( अन्धसः मदे ) अन्न द्वारा तृप्ति और आनन्द लाभ करने पर ( इन्द्राय ) उस ऐश्वर्यवान् के सम्बन्ध में ( गाय ) उपदेश कर और ( पाहि ) उसका ज्ञान-रस पान कर। ( यः ) जो ( हर्योः संमिश्लः ) स्त्री पुरुष दोनों में समान रूप से व्यापक है, ( यः सुते सचा ) जो उत्पन्न हुए पुत्रवत् जगत् में भी सदा सत्य विद्यमान है जो ( वज्री ) बलवान् ( रथः ) रसरूप, रमणीय ( हिरण्ययः ) सुवर्णवत् तेजोमय है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेधातिथि: काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१—३, ५ बृहती। ४, ७, ८, १०, १२ विराड् बृहती। ६, ९, ११, १४, १५ निचृद् बृहती। १३ आर्ची भुरिग बृहती। १६, १८ गायत्री। १७ निचृद् गायत्री। १९ अनुष्टुप्॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु रूप 'ज्योतिर्मय रथ '
पदार्थ
[१] हे (मेध्यातिथे) = उस मेध्य [पवित्र] प्रभु का आतिथ्य करनेवाले जीव ! तू (पाहि) = सोम का रक्षण कर । (अन्धसः) = इस सोम के (मदे) = उल्सास में (इन्द्राय) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिये (गाय) = गायन कर। [२] उस प्रभु का तू गायन कर (यः) = जो (हर्यो:) = इन्द्रियरूप अश्वों का (संमिश्ल:) = हमारे शरीर-रथ में मेल करनेवाला है। (यः) = जो (सुते) = सोम के सम्पादन में (सचा) = हमारा साथी होता है, अर्थात् सोमरक्षण में प्रभु ही सहायक होते हैं। (वज्री) = जो प्रभु वज्रहस्त हैं, शत्रुओं को दण्डित करनेवाले हैं और (हिरण्ययः रथः) = ज्योतिर्मय रथ हैं। प्रभु को अपना आधार बनाकर ही तो हम जीवनयात्रा पूरी कर पाते हैं। प्रभुरूप रथ हमें लक्ष्य - स्थान पर पहुँचाता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के गुणों का गायन करें, सोम का रक्षण करें। प्रभु ही हमें प्रशस्त इन्द्रियों को देते हैं। प्रभु ही जीवनयात्रा की पूर्ति के लिये हमारे ज्योतिर्मय रथ बनते हैं।
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