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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 33/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    यो धृ॑षि॒तो योऽवृ॑तो॒ यो अस्ति॒ श्मश्रु॑षु श्रि॒तः । विभू॑तद्युम्न॒श्च्यव॑नः पुरुष्टु॒तः क्रत्वा॒ गौरि॑व शाकि॒नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । धृ॒षि॒तः । यः । अवृ॑तः । यः । अस्ति॑ । श्मश्रु॑षु । श्रि॒तः । विभू॑तऽद्युम्नः । च्यव॑नः । पु॒रु॒ऽस्तु॒तः । क्रत्वा॑ । गौःऽइ॑व । शा॒कि॒नः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो धृषितो योऽवृतो यो अस्ति श्मश्रुषु श्रितः । विभूतद्युम्नश्च्यवनः पुरुष्टुतः क्रत्वा गौरिव शाकिनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । धृषितः । यः । अवृतः । यः । अस्ति । श्मश्रुषु । श्रितः । विभूतऽद्युम्नः । च्यवनः । पुरुऽस्तुतः । क्रत्वा । गौःऽइव । शाकिनः ॥ ८.३३.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 33; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I celebrate the glory of Indra who is bold and resolute, unbounded irresistible, wears the marks of manly vigour, commands honour and excellence, is an inspirer, mover and shaker, universally respected for his acts of piety, and who for the men of mighty dynamism is generous as earth, gracious as holy speech and loving as mother cow.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजनेता जेव्हा साहसी, धूर्तांच्या संगतीरहित असतो, तेव्हा समर्थ लोक त्याचा लाभ करून घेतात व त्याची सर्वत्र कीर्ती पसरते. ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यः) जो (धृषितः) साहसी है; (अवृतः) चाटुकारों अथवा वञ्चकों से नहीं घिरा रहता है; (यः) जो (श्मश्रुषु श्रितः) पौरुष के चिह्नों से सम्पन्न है; (विभूतद्युम्नः) विशिष्ट यशस्वी है; (च्यवनः) शत्रुओं को गिराता है; (पुरुस्तुतः) अनेकों से प्रसंशित है, (ऋत्वा) क्रियाशील है; (शाकिनः) कर सकने वाले सामर्थ्यवान् के लिये (गौः इव) भूमि, वाणी व गौ के तुल्य फल देने वाला है ॥६॥

    भावार्थ

    राजनेता के साहसी होने व घृतों की संगति से बचे रहने से ही समर्थ जन उससे लाभान्वित होते हैं और उसका सर्वत्र यश गूंजता है ॥६॥

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    विषय

    पुरुषोत्तम के लक्षण ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो ( घृषितः ) पराजय करने वाला, सबका वश कर्त्ता, (यः अवृतः) जो न विरा, असंग, (यः) जो (श्मश्रुषु श्रितः) युद्ध कालों में आश्रय करने योग्य, वा ( श्मश्रुषु = श्मसु शरीरेषु श्रूयन्ते इति श्मश्रवो जीवाः ) शरीरों में विद्यमान जीवों या श्मश्रु अर्थात् मूछों वाले, वीर पुरुषों में ( श्रितः ) आश्रय करने योग्य, उन द्वारा सेवित, ( विभूतद्युम्नः ) अति ऐश्वर्यवान्, तेजस्वी, (च्यवनः) शत्रुओं को विचलित करने वाला, वा सर्वव्यापक, ( पुरु-स्तुतः ) बहुतों से प्रशंसित, और ( क्रत्वा ) कर्मसामर्थ्य से ( शाकिनः ) शक्ति प्राप्त करने वाले जीव के लिये ( गौः इव ) गौ, भूमि के समान अनेक सुख उत्पन्न करने वाला है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथि: काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१—३, ५ बृहती। ४, ७, ८, १०, १२ विराड् बृहती। ६, ९, ११, १४, १५ निचृद् बृहती। १३ आर्ची भुरिग बृहती। १६, १८ गायत्री। १७ निचृद् गायत्री। १९ अनुष्टुप्॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    क्रत्वा गौरिव शाकिनः

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो प्रभु (धृषितः) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले हैं। (यः अवृतः) = जो शत्रुओं से घिरे हुए नहीं है, घेरे नहीं जा सकते हैं । (यः) = जो (श्मश्रुषु) = [युद्धेषु, श्रयन्त्यस्मिन् वीराः] युद्धों में (श्रितः अस्ति) = आश्रय किये जाते हैं। युद्धों के समय सब प्रभु का ही स्मरण करते हैं। [२] वे (विभूतद्युम्नः) = देदीप्यमान ज्ञान ज्योतिवाले व प्रभूत धनवाले [द्युम्न - धन] प्रभु च्यवनः शत्रुओं को च्युत करनेवाले हैं। अतएव (पुरुष्टुतः) = खूब ही स्तुति किये जाते हैं। ये प्रभु (क्रत्वा) = प्रज्ञानपूर्वक कर्म के द्वारा [क्रतु- प्रज्ञान, कर्म] (शाकिनः) = अपने को शक्तिशाली बनानेवाले यज्ञशील पुरुष के लिये (गौः इव) = गौ के समान हैं। जैसे गौ दूध को देती है, इसी प्रकार प्रभु इस यजमान की सब कामनाओं को पूर्ण करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- शक्तिशाली अनन्त धनवाले प्रभु कर्मों द्वारा अपने को शक्तिशाली बनानेवाले यजमान की सब कामनाओं को पूर्ण करते हैं।

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