ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 63/ मन्त्र 11
बळृ॒त्विया॑य॒ धाम्न॒ ऋक्व॑भिः शूर नोनुमः । जेषा॑मेन्द्र॒ त्वया॑ यु॒जा ॥
स्वर सहित पद पाठबट् । ऋ॒त्विया॑य । धाम्नै॑ । ऋक्व॑ऽभिः । शू॒र॒ । नो॒नु॒मः॒ । जेषा॑म । इ॒न्द्र॒ । त्वया॑ । यु॒जा ॥
स्वर रहित मन्त्र
बळृत्वियाय धाम्न ऋक्वभिः शूर नोनुमः । जेषामेन्द्र त्वया युजा ॥
स्वर रहित पद पाठबट् । ऋत्वियाय । धाम्नै । ऋक्वऽभिः । शूर । नोनुमः । जेषाम । इन्द्र । त्वया । युजा ॥ ८.६३.११
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 63; मन्त्र » 11
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 43; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 43; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
0 mighty lord of energy, ambition and victory, with resounding hymns of joy in homage we bow to you, treasure home of life and progress, creator and promoter of strength and energy through seasonal yajnas, and we pray that joined to you in body and mind we may win in our struggles for life and living.
मराठी (1)
भावार्थ
आम्ही अंत:करणाने त्याची उपासना करावी, ज्यामुळे ती सत्य अर्थात फलप्रद व्हावी व त्याच्याच साह्याने आपापल्या संपूर्ण विघ्नांना दूर करावे. ॥११॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे शूर हे इन्द्र ! वयं मनुष्याः । तुभ्यम् । ऋक्वभिः=मन्त्रैः । नोनुमः=अतिशयेन स्तुमः । तत् बट्=सत्यं भवतु । कथं भूताय । ऋत्वियाय=क्रतौ स्वमहिमप्रदर्शकाय । धाम्ने=तेजःस्वरूपाय । हे इन्द्र ! त्वया युजा=मित्रेण सह । जेषाम=सर्वान् विघ्नान् जयेम ॥११ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(शूर) हे शूर (इन्द्र) हे महेश ! हम मनुष्य तुझको ही (ऋक्वभिः) विविध मन्त्रों द्वारा (नोनुमः) वारंवार नमस्कार करें (बट्) वह सत्य है, जो तू (ऋत्वियाय) ऋतु-ऋतु में अपनी महिमा को दिखलाता है और तू (धाम्ने) तेज आनन्द कृपा धन आदि का धाम है । हे इन्द्र ! (त्वया+युजा) तुझ मित्र के साथ (जेषाम) निखिल विघ्नों को जीतें ॥११ ॥
भावार्थ
हम अपने अन्तःकरण से उसकी उपासना करें, जिससे वह सत्य अर्थात् फलप्रद हो और उसी की सहायता से अपने-अपने निखिल विघ्नों को दूर किया करें ॥११ ॥
विषय
सुखार्थी जीव का प्रभु के आनन्द की ओर झुकाव।
भावार्थ
( बड् ) सत्य ही, हम ( ऋत्वियाय ) ऋतु २ में आने वाले ( ) को प्राप्त करने के लिये हे ( शूर ) शूरवीर ! हम ( ऋक्वभिः ) ऋचाओं, अर्चनादि सत्कारों से ( नोनुमः ) स्तुति करते हैं और ( त्वया युजा ) तुझे सहयोगी बनाकर हम ( जेषाम ) विजय लाभ करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ १—११ इन्द्रः। १२ देवा देवताः॥ छन्द:—१, ४, ७ विराडनुष्टुप्। ५ निचुदनुष्टुप्। २, ३, ६ विराड् गायत्री। ८, ९, ११ निचृद् गायत्री। १० गायत्री। १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
जेषाम त्वया युजा
पदार्थ
[१] हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो ! (बट्) = यह सत्य है कि (ऋत्वियाय) = समय पर प्राप्त होनेवाले (धाम्ने) = उस-उस तेज के लिए (ऋक्वभिः) = ऋचाओं के द्वारा - स्तुतिवचनों के द्वारा (नोनुमः) = हम आपका खूब ही स्तवन करते हैं। आपका यह स्तवन हमें तेजस्वी बनाता है। [२] हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो ! (त्वया युजा) = आपको साथी के रूप में पाकर हम (जेषाम) = विजय को प्राप्त करें।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुस्तवन हमें तेज प्राप्त करता है। प्रभु को साथी के रूप में पाकर हम शत्रुओं को पराजित करते हैं।
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