ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 63/ मन्त्र 5
ऋषिः - प्रगाथः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
आदू॒ नु ते॒ अनु॒ क्रतुं॒ स्वाहा॒ वर॑स्य॒ यज्य॑वः । श्वा॒त्रम॒र्का अ॑नूष॒तेन्द्र॑ गो॒त्रस्य॑ दा॒वने॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआत् । ऊँ॒ इति॑ । नु । ते॒ । अनु॑ । क्रतु॑म् । स्वाहा॑ । वर॑स्य । यज्य॑वः । श्वा॒त्रम् । अ॒र्काः । अ॒नू॒ष॒त॒ । इन्द्र॑ । गो॒त्रस्य॑ । दा॒वने॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आदू नु ते अनु क्रतुं स्वाहा वरस्य यज्यवः । श्वात्रमर्का अनूषतेन्द्र गोत्रस्य दावने ॥
स्वर रहित पद पाठआत् । ऊँ इति । नु । ते । अनु । क्रतुम् । स्वाहा । वरस्य । यज्यवः । श्वात्रम् । अर्काः । अनूषत । इन्द्र । गोत्रस्य । दावने ॥ ८.६३.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 63; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 42; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 42; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
And then they, the yajakas, in pursuance of the holy act of chosen yajna offer oblations in truth of word and deed, and the singers immediately start the song of adoration in honour of Indra for the gift of wealth and joy-
मराठी (1)
भावार्थ
आम्ही जीवांनी ऋत्विकाप्रमाणे सत्यमार्गावलंबी होऊन त्याच्या (परमेश्वराच्या) कीर्तीचे गान गावे ॥५॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र ! वरस्य=श्रेष्ठस्य कर्मणः । यज्यवः=यष्टारः कर्तारः ऋत्विजः । स्वाहाशब्दमुच्चार्य्य । ते=तव । क्रतुम्=कर्म । अनु=अनुक्रमेण । नु=क्षिप्रम् । आद्+उ= अनन्तरम् । अनूषत=स्तुवन्ति । अर्काः=लोकेषु अर्चनीयास्ते ऋत्विजः । गोत्रस्य=गोरक्षकस्य= पृथिवीपालकस्य तव । दावने=प्राप्तये । श्वात्रम्=शीघ्रमेव । अनूषत ॥५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! (वरस्य+यज्यवः) उत्तमोत्तम कर्म करनेवाले ऋत्विग्गण (स्वाहा) स्वाहा शब्द का उच्चारण कर (ते+क्रतुम्) तेरे प्रशंसनीय कर्म को (अनु) क्रमपूर्वक (आद्+उ+नु) निश्चयरूप से और शीघ्रता से (अनूषत) गाते हैं । तथा (अर्काः) लोक में माननीय वे ऋत्विक् (गोत्रस्य+दावने) पृथिव्यादि लोकों के रक्षक तेरी प्राप्ति के लिये (श्वात्रम्) शीघ्रता से तेरी (अनूषत) स्तुति करते रहते हैं ॥५ ॥
भावार्थ
हम जीव भी वैसे ही सत्यमार्गावलम्बी हों, उसकी कीर्ति का गान करें ॥५ ॥
विषय
सर्वोपरि ज्ञानप्रद गुरु, परमेश्वर।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तेजस्विन् ! ( यज्यवः ) तेरे उपासक, यज्ञशील, ( अर्का: ) अर्चना करने हारे जन (आत् उ नु) भी (वरस्य ते ) सबसे वरण करने, चाहने योग्य तेरे ( क्रतुम् अनु ) वेद ज्ञान के अनुसार ( स्वाहा ) उत्तम वाणी और आहुति द्वारा ( गोत्रस्य ) वाणियों के रक्षक तेरा ही ( दावने ) दान प्राप्त करने के लिये ( श्वात्रम्) शीघ्र ही ( ते अनूषत ) तेरी स्तुति करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ १—११ इन्द्रः। १२ देवा देवताः॥ छन्द:—१, ४, ७ विराडनुष्टुप्। ५ निचुदनुष्टुप्। २, ३, ६ विराड् गायत्री। ८, ९, ११ निचृद् गायत्री। १० गायत्री। १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
यज्ञशीलता व स्तवन
पदार्थ
[१] (आत् उ) = अब शीघ्र ही (नु) = निश्चय से (क्रतुम्) = आप से दी गई शक्ति के (अनु) = अनुसार (स्वाहा- वरस्य) = 'स्वाहा' की वरणीय अग्नि की (यज्यवः) = पूजा करनेवाले यज्ञशील (अर्का:) = उपासक (श्वात्रम्) = [श्वि गतिवृद्धयोः] गतिशील सदावृद्ध उस प्रभु को (अनूषत) = स्तुत करते हैं। [२] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (गोत्रस्य) = ज्ञान की वाणियों के समूह के (दावने) = देने के निमित्त वे आपका स्तवन करते हैं। स्तोता को ही तो आपकी ये ज्ञान की वाणियाँ प्राप्त होती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के शक्ति को प्राप्त करके हम यज्ञशील बनें। प्रभु का स्तवन करते हुए हम ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करें।
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