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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 63/ मन्त्र 4
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    स प्र॒त्नथा॑ कविवृ॒ध इन्द्रो॑ वा॒कस्य॑ व॒क्षणि॑: । शि॒वो अ॒र्कस्य॒ होम॑न्यस्म॒त्रा ग॒न्त्वव॑से ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । प्र॒त्नऽथा॑ । क॒वि॒ऽवृ॒धः । इन्द्रः॑ । वा॒कस्य॑ । व॒क्षणिः॑ । शि॒वः । अ॒र्कस्य॑ । होम॑नि । अ॒स्म॒ऽत्रा । ग॒न्तु॒ । अव॑से ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स प्रत्नथा कविवृध इन्द्रो वाकस्य वक्षणि: । शिवो अर्कस्य होमन्यस्मत्रा गन्त्ववसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । प्रत्नऽथा । कविऽवृधः । इन्द्रः । वाकस्य । वक्षणिः । शिवः । अर्कस्य । होमनि । अस्मऽत्रा । गन्तु । अवसे ॥ ८.६३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 63; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 42; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    He, Indra, as ever before, strengthens the poets and promotes and extends the divine speech. May the lord of peace and bliss, we pray, come and join our yajna of worship.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे सत्पुरुषांचे तो (परमेश्वर) सदैव कल्याण करतो, तसे जर आम्हीही सन्मार्गावर चाललो तर तो आमच्यासाठी सुखकारक होईल यात शंका नाही. ॥४॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    इन्द्रगुणान् दर्शयति ।

    पदार्थः

    स इन्द्रः । प्रत्नथा=पुरातनकालवदिदानीमपि । कविवृधः=कवीनां वर्धयिता । वाकस्य=स्तुतिरूपस्य वचनस्य । वक्षणिः=वोढा श्रोता । अर्कस्य=अर्चनीयस्य पूज्यस्याचार्य्यादेः । शिवः=मङ्गलकारी । ईदृगीशः । अस्मत्रा=अस्मासु मध्ये । होमनि=यागे । अवसे= रक्षणाय । गन्तु=गच्छतु ॥४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    इन्द्र के गुणों को दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (सः+इन्द्रः) वह इन्द्रवाच्य ईश्वर (प्रत्नथा) पूर्ववत् अब भी (कविवृधः) कवियों का वर्धयिता (वाकस्य+वक्षणिः) स्तुतिरूप वाणी का श्रोता और (अर्कस्य) अर्चनीय आचार्य्यादिकों को (शिवः) सुख पहुँचानेवाला है । वह ईश (अस्मत्रा+होमनि) हम लोगों के होमकर्म में (अवसे+गन्तु) रक्षा के लिये जाए ॥४ ॥

    भावार्थ

    जिस कारण सत्पुरुषों को वह सदा कल्याण पहुँचाता है, अतः यदि हम भी सन्मार्ग पर चलेंगे, तो वह हमारे लिये भी सुखकारी होगा, इसमें सन्देह नहीं ॥४ ॥

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    विषय

    सर्वोपरि ज्ञानप्रद गुरु, परमेश्वर।

    भावार्थ

    ( सः ) वह ( इन्द्रः ) ज्ञानदर्शी, ज्ञान का प्रकाशक प्रभु, ( प्रत्नथा ) पहले पूर्व कल्पों में भी ( कवि-वृधः ) विद्वानों को आचार्यवत् बढ़ाने वाला, (वाकस्य वक्षणिः) प्रवचन योग्य वेद को धारण-प्रवचन करने और मनुष्यों तक पहुंचाने वाला हो। वही ( शिवः ) कल्याणकारी, सब में व्यापक ( अर्कस्य होमनि ) अर्चनीय वेद मन्त्र के उच्चारण वा होम-काल में ( अस्मत्रा अवसे ) हमें ज्ञान प्रदान करने वा रक्षा करने के लिये ( आ गन्तु ) प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ १—११ इन्द्रः। १२ देवा देवताः॥ छन्द:—१, ४, ७ विराडनुष्टुप्। ५ निचुदनुष्टुप्। २, ३, ६ विराड् गायत्री। ८, ९, ११ निचृद् गायत्री। १० गायत्री। १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    वाकस्य वक्षाणिः

    पदार्थ

    [१] (सः) = वे प्रभु (प्रत्नथा) = सनातन काल से (कविवृधः) = विद्वानों का वर्धन करनेवाले हैं। (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (वाकस्य) = स्तोता के (वक्षणि:) [वोढा] = लक्ष्यस्थान पर प्राप्त करानेवाले हैं। [२] (अर्कस्य) = स्तोता के पूजा करनेवाले का (शिवः) = वे कल्याण करनेवाले हैं। वे प्रभु (होमनि) = हमें प्राप्त होम के होने पर - पुकार के व यज्ञों के होने पर (अवसे) = रक्षण के लिए (अस्मत्रा गन्तु) = हों। जब हम प्रभु को पुकारें व यज्ञों द्वारा प्रभु का उपासन करें तो प्रभु हमें प्राप्त हों-हमारा रक्षण करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ज्ञानियों का वर्धन करते हैं। स्तोता को लक्ष्यस्थान पर पहुँचाते हैं। पुजारी का कल्याण करते हैं। प्रार्थना करनेवाले को प्राप्त होकर उसका रक्षण करते हैं।

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