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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 63/ मन्त्र 3
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    स वि॒द्वाँ अङ्गि॑रोभ्य॒ इन्द्रो॒ गा अ॑वृणो॒दप॑ । स्तु॒षे तद॑स्य॒ पौंस्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । वि॒द्वाँन् । अङ्गि॑रःऽभ्यः । इन्द्रः॑ । गाः । अ॒वृ॒णो॒त् । अप॑ । स्तु॒षे । तत् । अ॒स्य॒ । पौंस्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स विद्वाँ अङ्गिरोभ्य इन्द्रो गा अवृणोदप । स्तुषे तदस्य पौंस्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । विद्वाँन् । अङ्गिरःऽभ्यः । इन्द्रः । गाः । अवृणोत् । अप । स्तुषे । तत् । अस्य । पौंस्यम् ॥ ८.६३.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 63; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 42; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That omniscient and omnipresent Indra brought the earths and stars into existence for the living and breathing forms of being. Therefore I sing and celebrate his divine power and love.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अङ्गिरस - हे नाव प्राणयुक्त जीवाचे आहे. जर ही सृष्टी नसती तर हे नित्य जीव कुठेतरी निष्क्रिय पडून राहिले असते. त्यांचा विकास झाला नसता. त्यासाठी इन्द्राने (परमेश्वराने) त्यांच्या कल्याणासाठी ही सृष्टी उत्पन्न केलेली आहे, यामुळेही तो जीवांकडून स्तवनीय व पूजनीय आहे. ॥३॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    इन्द्रस्य महत्त्वं प्रदर्शयति ।

    पदार्थः

    खलु इन्द्रो विद्वान्=सर्वविदस्ति । अङ्गिरोभ्यः= प्राणसहितेभ्यो जीवेभ्यः । गाः=पृथिव्यादिलोकान् । अपावृणोत्=प्रकाशितवान् । हे मनुष्याः ! अस्य तत्पौंस्यं=वीर्य्यम् । स्तुषे=स्तवनीयमास्ते ॥३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    इन्द्र का महत्त्व दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (सः+इन्द्रः+विद्वान्) वह इन्द्रवाच्य ईश्वर सर्वविद् है, अतएव (अङ्गिरोभ्यः) प्राणसहित जीवों के कल्याण के लिये इसने (गाः) पृथिव्यादि लोकों को (अप+अवृणोत्) प्रकाशित किया है अर्थात् जो पृथिव्यादिलोक अव्यक्तावस्था में थे, उनको जीवों के हित के लिये ईश्वर ने रचा है । (तत्) इस कारण (अस्य+तत्+पौंस्यम्) इसका वह पुरुषार्थ और सामर्थ्य (स्तुषे) स्तवनीय है ॥३ ॥

    भावार्थ

    अङ्गिरस्−यह नाम प्राणसहित जीव का है । यदि यह सृष्टि न होती, तो सदा ही ये नित्य जीव कहीं निष्क्रिय पड़े रहते । इनका विकास न होता । अतः इन्द्र ने इनके कल्याण के लिये यह सृष्टि रची है । इस कारण भी जीवों द्वारा वह स्तवनीय और पूजनीय है ॥३ ॥

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    विषय

    सर्वोपरि ज्ञानप्रद गुरु, परमेश्वर।

    भावार्थ

    ( सः ) वह ( विद्वान् ) ज्ञानवान् प्रभु आचार्य के समान (इन्द्रः) सत्य ज्ञान को साक्षात् करने वाला, सूर्यवत् ज्ञान का प्रकाशक, प्रभु (अंगिरोभ्यः) अंगारों के तुल्य तेजस्वी एवं देह में बलवीर्य के धारक ज्ञानी पुरुषों को ( गाः अप अवृणोत् ) वेद वाणियों का प्रकाश करता है। ( अस्य तत् ) उसके उस ( पौंस्यं ) परम पुरुष रूप की मैं (स्तुषे) स्तुति करूं। ( २ ) इसी प्रकार ( इन्द्रः ) सूर्य या प्रभु ने सर्वत्र ( अंगिरोभ्यः ) जीवों, देहधारियों के लिये (गा:) भूमियों को प्रकट किया।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ १—११ इन्द्रः। १२ देवा देवताः॥ छन्द:—१, ४, ७ विराडनुष्टुप्। ५ निचुदनुष्टुप्। २, ३, ६ विराड् गायत्री। ८, ९, ११ निचृद् गायत्री। १० गायत्री। १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    इन्द्रियों का अनावरण

    पदार्थ

    [१] (सः) = वे (विद्वान्) = ज्ञानी (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (अंगिरोभ्यः) = [अगि गतौ ] क्रियाशील पुरुषों के लिए (गाः) = इन्द्रियों का (अप अवृणोत्) = विषयवासनाओं के आवरण से रहित करता है। क्रियाशील बने रहने पर इन्द्रियाँ विषयों में नहीं फंसती। [२] मैं (अस्य) = इन प्रभु के (तत्) = उस (पौंस्यम्) = वीरतापूर्ण कर्म का स्तुषे स्तवन करता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- मैं प्रभु का स्तवन करता हूँ। प्रभु मेरी इन्द्रियों को वासनाओं के आवरण से रहित करते हैं।

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