Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 63 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 63/ मन्त्र 7
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यत्पाञ्च॑जन्यया वि॒शेन्द्रे॒ घोषा॒ असृ॑क्षत । अस्तृ॑णाद्ब॒र्हणा॑ वि॒पो॒३॒॑ऽर्यो मान॑स्य॒ स क्षय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । पाञ्च॑ऽजन्यया । वि॒शा । इन्द्रे॑ । घोषाः॑ । असृ॑क्षत । अस्तृ॑णात् । ब॒र्हणा॑ । वि॒पः । अ॒र्यः । मान॑स्य । सः । क्षयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्पाञ्चजन्यया विशेन्द्रे घोषा असृक्षत । अस्तृणाद्बर्हणा विपो३ऽर्यो मानस्य स क्षय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । पाञ्चऽजन्यया । विशा । इन्द्रे । घोषाः । असृक्षत । अस्तृणात् । बर्हणा । विपः । अर्यः । मानस्य । सः । क्षयः ॥ ८.६३.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 63; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 43; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When the universal community of five classes of people join together and raise their voices of prayer to Indra, then with his might he wards off their enemies and misfortunes. That same lord of the people, omniscient and master is the centre of my worship too.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    विश्वातील सर्व देशांच्या प्रजेचा एकमात्र आराध्य तोच परमेश्वर आहे व तो सर्वांची विघ्ने दूर करतो. ॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    तस्यानुग्रहं दर्शयति ।

    पदार्थः

    यद्=यदा-यदा । पाञ्चजन्यया=पञ्चजनेषु भवा पाञ्चजन्या । तया “निषदपञ्चमाश्चत्वारो वर्णाः पञ्चजनाः” । विशा=प्रजया । इन्द्रे=परमात्मनि । घोषाः=स्वस्ववाण्यः । असृक्षत=सृज्यन्ते=क्रियन्ते । तदा तदा स हीश्वरः । बर्हणा=स्वमहत्त्वेनैव । प्रजायाः । विघ्नान् । अस्तृणान्= दूरीकरोति । यतः । स विपः=विशेषेण पाता । अर्य्यः=पूज्यः । मानस्य=पूजायाश्च । क्षयः= निवासोऽस्तीति ॥७ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    उसके अनुग्रह को दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (यद्) जब-२ (पाञ्चजन्यया+विशा) समस्त मनुष्य जातियाँ अपने-अपने देश के पवित्र स्थानों में सम्मिलित हों (इन्द्रे) परमात्मा के निकट (घोषाः+असृक्षत) निज प्रार्थनाओं को सुनाती हैं, तब-तब वह देव (बर्हणा) स्वकीय महत्त्व से (अस्तृणात्) उनके विघ्नों को दूर कर देता है, क्योंकि वह (विपः) विशेषरूप से पालक है, (अर्य्यः) माननीय है और (मानस्य) पूजा का (क्षयः) निवासस्थान है ॥७ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सर्वपूज्य स्वामी ईश्वर।

    भावार्थ

    ( पाञ्चजन्यया ) पाचों जनों से बनी, ( विशा) प्रजा ( यत् इन्द्रे घोषाः असृक्षत ) जिस, इन्द्र, ईश्वर वा राजा विषयक स्तुतियें करती हैं वही ( बर्हणा ) बड़े भारी सामर्थ्य से जगत् को विस्तारित करता है, ( सः ) वही ( अर्थः ) स्वामी ( विपः मानस्य क्षयः ) विद्वान् जन की पूजा, परिचर्या का निवासस्थान होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ १—११ इन्द्रः। १२ देवा देवताः॥ छन्द:—१, ४, ७ विराडनुष्टुप्। ५ निचुदनुष्टुप्। २, ३, ६ विराड् गायत्री। ८, ९, ११ निचृद् गायत्री। १० गायत्री। १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पञ्चजन्य का प्रभुपूजन

    पदार्थ

    [१] (यत्) = जब पाञ्चजन्यया 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र व निषाद' रूप पंचजनों का हित करनेवाले (विशा) = प्रजा से (इन्द्रे) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के विषय में घोषाः स्तुतिवचन (असृक्षत) = किये जाते हैं तो वे प्रभु (बर्हणा) = [बृहि वृद्धौ] अपनी शत्रुओं के उद्धर्हण की शक्ति से अस्तृणात् काम आदि शत्रुओं का हिंसन करते हैं। [२] इसीलिए (विपः) = मेधावी स्तोता के (सः अर्य:) = वे स्वामी प्रभु (मानस्य) = पूजा के (क्षय:) = निवासस्थान होते हैं। मेधावी स्तोता प्रभु का पूजन करता हुआ काम आदि शत्रुओं का विनाश कर पाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ:- प्रभु का स्तोता वही है जो पञ्जजनों का हित करे। प्रभु स्तोता के शत्रुओं का विनाश करते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top