ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 63/ मन्त्र 6
इन्द्रे॒ विश्वा॑नि वी॒र्या॑ कृ॒तानि॒ कर्त्वा॑नि च । यम॒र्का अ॑ध्व॒रं वि॒दुः ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रे॑ । विश्वा॑नि । वी॒र्या॑ । कृ॒तानि॑ । कर्त्वा॑नि । च॒ । यम् । अ॒र्काः । अ॒ध्व॒रम् । वि॒दुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रे विश्वानि वीर्या कृतानि कर्त्वानि च । यमर्का अध्वरं विदुः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रे । विश्वानि । वीर्या । कृतानि । कर्त्वानि । च । यम् । अर्काः । अध्वरम् । विदुः ॥ ८.६३.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 63; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 42; मन्त्र » 6
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 42; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
In Indra abide all the great works done and to be done, and the pious sages know him as loving and, non-violent worthy of worship.
मराठी (1)
भावार्थ
सृष्टी इत्यादीची रचना पूर्वकाळात झालेली आहे व कितीतरी लोकलोकान्तर सध्या निर्माण होत आहेत व कितीतरी अद्याप निर्माण व्हावयाचे आहेत. ही सर्व त्याची महानता आहे, त्यासाठीच त्याचे गान करा. ॥६॥
संस्कृत (1)
विषयः
तस्यैव महत्त्वं प्रदर्श्यते ।
पदार्थः
अस्मिन्नेव इन्द्रे=परमात्मनि । विश्वानि=सर्वाणि । वीर्य्या=वीर्य्याणि=शक्तयः । विद्यन्ते । यानि वीर्य्याणि प्रागेव कृतानि=साधितानि । यानि चाग्रे कर्त्वानि=कर्त्तव्यानि वर्तन्ते । अर्काः=अर्चनीयाः । आचार्य्यादयः । यमध्वरम्=अहिंसकं पूज्यतमञ्च । विदुः=जानन्ति ॥६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
उसी का महत्त्व दिखलाया जाता है ।
पदार्थ
(इन्द्रे) इसी परमात्मा में (विश्वानि+वीर्य्या) सर्व सामर्थ्य विद्यमान हैं, जो सामर्थ्य (कृतानि) पूर्व समय में दिखलाए गए और हो चुके हैं और (कर्त्वानि+च) कर्त्तव्य हैं, (अर्काः) अर्चनीय और माननीय आचार्य्यादिक (यम्) जिसको (अध्वरम्+विदुः) अहिंसक कृपालु और पूज्यतम समझते हैं ॥६ ॥
भावार्थ
सृष्टि आदि की रचना पूर्वकाल में हो चुकी है और कितने लोक-लोकान्तर अब भी बन रहे हैं और कितने अभी होनेवाले हैं, ये सब ही उसी का महत्त्व है, अतः उसी को गाओ ॥६ ॥
विषय
सर्वोपरि ज्ञानप्रद गुरु, परमेश्वर।
भावार्थ
( अर्का: ) स्तुतिकर्त्ता विद्वान् जन (यं) जिस प्रभु परमेश्वर को ( अध्वरं ) अहिंसक और अविनाशी, नित्य करुणा कर करके ( विदुः ) जानते हैं उसी ( इन्द्रे ) परमेश्वर में ( विश्वानि वीर्याणि ) समस्त वीर्य और समस्त ( कृतानि ) बने पदार्थ और ( कर्त्वानि ) करने योग्य कार्य आश्रित हैं। इति द्वाचत्वारिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ १—११ इन्द्रः। १२ देवा देवताः॥ छन्द:—१, ४, ७ विराडनुष्टुप्। ५ निचुदनुष्टुप्। २, ३, ६ विराड् गायत्री। ८, ९, ११ निचृद् गायत्री। १० गायत्री। १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'अध्वर' प्रभु
पदार्थ
[१] (इन्द्रे) = उस सर्वशक्तिमान् प्रभु में ही (विश्वानि) = सब (कृतानि) = आज तक किये गये (च) = और (कर्त्वानि) = भविष्य में किये जानेवाले (वीर्या) = शक्तिशाली कर्म हैं। [२] उस प्रभु में सब शक्तिशाली कर्म हैं (यम्) = जिसको (अर्का:) = उपासक (अध्वरं) = हिंसा से रहित (विदुः) = जानते हैं। प्रभु सर्वशक्ति सम्पन्न हैं, पर वे किसी का हिंसन नहीं करते।
भावार्थ
भावार्थ-उस सर्वशक्तिसम्पन्न प्रभु में ही सब शक्तिशाली कर्म होते हैं। ये प्रभु 'अध्वर' हैं- किसी की हिंसा करनेवाले नहीं।
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