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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 97/ मन्त्र 10
    ऋषिः - रेभः काश्यपः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिग्जगती स्वरः - निषादः

    विश्वा॒: पृत॑ना अभि॒भूत॑रं॒ नरं॑ स॒जूस्त॑तक्षु॒रिन्द्रं॑ जज॒नुश्च॑ रा॒जसे॑ । क्रत्वा॒ वरि॑ष्ठं॒ वर॑ आ॒मुरि॑मु॒तोग्रमोजि॑ष्ठं त॒वसं॑ तर॒स्विन॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वाः॑ । पृत॑नाः । अ॒भि॒ऽभूत॑रम् । नर॑म् । स॒ऽजूः । त॒त॒क्षुः॒ । इन्द्र॑म् । ज॒ज॒नुः । च॒ । रा॒जसे॑ । क्रत्वा॑ । वरि॑ष्ठम् । वरे॑ । आ॒ऽमुरि॑म् । उ॒त । उ॒ग्रम् । ओजि॑ष्ठम् । त॒वस॑म् । त॒र॒स्विन॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वा: पृतना अभिभूतरं नरं सजूस्ततक्षुरिन्द्रं जजनुश्च राजसे । क्रत्वा वरिष्ठं वर आमुरिमुतोग्रमोजिष्ठं तवसं तरस्विनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वाः । पृतनाः । अभिऽभूतरम् । नरम् । सऽजूः । ततक्षुः । इन्द्रम् । जजनुः । च । राजसे । क्रत्वा । वरिष्ठम् । वरे । आऽमुरिम् । उत । उग्रम् । ओजिष्ठम् । तवसम् । तरस्विनम् ॥ ८.९७.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 97; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 37; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    All the citizens together, in order to elect an equal for the purpose of governance, create and shape Indra, the ruler, the leader who is superior to others in all battles of life, highest by noble creative action, eliminator of negative and frustrative opposition, illustrious, most vigorous and emphatic in expression, courageous and passionate in action.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वेदात इन्द्रपद नेता व राजा यासाठीही वापरलेले आहे. या मंत्रात हा विचार आहे, की श्रेष्ठकर्मा, शत्रु विध्वंसक, बलवान पुरुषाला अशा प्रकारे शिक्षित करून आपला नेता निवडला पाहिजे, की तो सर्वात उत्तम असावा. ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पृतनाः) मानव जन (सजूः) एक साथ मिलकर (विश्वाः) सभी को (अभिभूतरम्) परास्त करने वाले (नरम्) नेता को (ततक्षुः) बनाते हैं तथा (राजसे) राज्य करने हेतु उसे (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् (जजनुः) बना देते हैं। फिर कैसे नेता को इन्द्र बनाते हैं कि जो (क्रत्वा वरिष्ठम्) अपने कृत्य में श्रेष्ठ है; (वरे) चुनाव के प्रयोजन से (आमुरिम्) अनभीष्टों का नाशक है (उत) साथ ही (उग्रम्) तेजस्वी है; (ओजिष्ठम्) पराक्रमी है; (तवसम्) बलशाली है और स्वयं (तरस्विनम्) बलवान् है॥१०॥

    भावार्थ

    वेद में इन्द्र पद से मनुष्यों के नेता राजा का वर्णन भी है। इस मन्त्र में यह विचार प्रस्तुत है कि श्रेष्ठकर्मा, शत्रुनाशक, बलशाली को इस प्रकार से शिक्षित कर अपना नेता बनाना चाहिये कि वह सर्वातिशायी हो॥१०॥

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य के साथ साथ परमेश्वर के गुणों का वर्णन।

    भावार्थ

    ( विश्वाः पृतनाः ) समस्त मनुष्य, ( अभि-भूतरं नरं ) शत्रु को खूब पराजय करने वाले नायक ( इन्द्रं ) ऐश्वर्यवान् पुरुष को ( सजू: ) परस्पर प्रेमपूर्वक मिलकर ( राजसे जजनुः ) राज्य करने के लिये प्रधान पद पर स्थापित करते हैं और वे (क्रत्वा वरिष्ठं) ज्ञान और कर्म से श्रेष्ठ ( आ-मुरिम् ) शत्रुओं के नाश करने वाले, ( उग्रम् ) भयंकर, ( ओजिष्ठं ) अति पराक्रमी, ( तरस्विनं ) बलवान्, वेगवान्, ( तवसं ) शक्तिशाली, पुरुष को ( इन्द्रम् जजनुः ) सूर्यवत् तेजस्वी और ऐश्वर्यवान् राजा रूप से नियुक्त करें। इति सप्तविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रेभः काश्यप ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ११ विराड् बृहती। २, ६, ९, १२ निचृद् बृहती। ४, ५, बृहती। ३ भुरिगनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्। १० भुरिग्जगती। १३ अतिजगती। १५ ककुम्मती जगती। १४ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु का प्रकाश व शत्रु विनाश

    पदार्थ

    [१] (विश्वा:) = सब (पृतनाः) = शत्रु सेनाओं को (अभिभूतरम्) = अभिभूत करनेवाले (नरम्) = सबको आगे ले चलनेवाले (इन्द्रम्) = शत्रु-विद्रावक प्रभु को (सजूः) = मिलकर स्तवन करते हुए [सह जुषन्ते] उपासक (ततक्षुः) = अपने में निर्मित करते हैं। स्तवन द्वारा प्रभु की दिव्यता को अपने अन्दर बढ़ाते हैं। इस प्रभु की भावना की वृद्धि से सब शत्रुओं को ये जीत पाते हैं। (च) = और (राजसे) = अपने प्रकाशन के लिये (जजनुः) = प्रभु को अपने में प्रादुर्भूत करते हैं। [२] (वरे) = श्रेष्ठता की प्राप्ति के निमित्त उस प्रभु को अपने में प्रादुर्भूत करते हैं, जो (क्रत्वा वरिष्ठम्) = प्रज्ञान व शक्ति से श्रेष्ठतम हैं। (आमुरिम्) = शत्रुओं को मारनेवाले हैं। (उत) = और (उग्रम्) = तेजस्वी हैं, (ओजिष्ठम्) = ओजस्वितम हैं, (तवसम्) = बलवान् हैं और (तरस्विनम्) = वेगवान् हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-स्तुति के द्वारा अपने में हम प्रभु का निर्माण करें। जीवन में दीप्ति के लिये प्रभु को प्रादुर्भूत करें। प्रभु सब शत्रुओं का संहार करते हैं।

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