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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 97/ मन्त्र 5
    ऋषिः - रेभः काश्यपः देवता - इन्द्र: छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    यद्वासि॑ रोच॒ने दि॒वः स॑मु॒द्रस्याधि॑ वि॒ष्टपि॑ । यत्पार्थि॑वे॒ सद॑ने वृत्रहन्तम॒ यद॒न्तरि॑क्ष॒ आ ग॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । वा॒ । असि॑ । रो॒च॒ने । दि॒वः । स॒मु॒द्रस्य॑ । अधि॑ । वि॒ष्टपि॑ । यत् । पार्थि॑वे । सद॑ने । वृ॒त्र॒ह॒न्ऽत॒म॒ । यत् । अ॒न्तरि॑क्षे । आ । ग॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्वासि रोचने दिवः समुद्रस्याधि विष्टपि । यत्पार्थिवे सदने वृत्रहन्तम यदन्तरिक्ष आ गहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । वा । असि । रोचने । दिवः । समुद्रस्य । अधि । विष्टपि । यत् । पार्थिवे । सदने । वृत्रहन्ऽतम । यत् । अन्तरिक्षे । आ । गहि ॥ ८.९७.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 97; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 36; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Whether you are in some region of light in heaven or in some region of the skies above, or in the depth of seas or anywhere on the surface of earth, O, greatest destroyer of darkness, evil and suffering, come and be with us.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जोपर्यंत व्यक्ती परमेश्वराच्या शक्तीचा अनुभव घेत नाही तोपर्यंत त्याच्यासाठी ते एक रहस्यच असते. कारण तो कुठे आहे हे कळत नाही, त्यामुळे विघ्ननाशक परमेश्वराचा आश्रय घेतला पाहिजे. ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    पुनः दूसरे शब्दों में भी उसी भाव का वर्णन है-- हे प्रभु! (यद्वा) अथवा यदि आप किसी (दिवः रोचने) द्युलोक के किसी ज्योतिष्मान् लोक में है; या (समुद्रस्य) अन्तरिक्ष के (विष्टपि अधि) किसी लोक में आसीन हैं। हे (वृत्रहन्तम) विघ्नों के नाशक! आप (यत्) यदि किसी (पार्थिवे सदने) भूलोक के स्थान में या (यद्) यदि (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष स्थान में कहीं भी हो, (आ गहि) आकर हमें सहारा प्रदान करें॥५॥

    भावार्थ

    जब तक मानव परमेश्वर की शक्ति का अनुभव नहीं करता तब तक वह उसके लिये रहस्य ही रहता है--न जाने वह कहाँ हो। विघ्न-नाशक प्रभु की सहायता पाना आवश्यक है॥५॥

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य के साथ साथ परमेश्वर के गुणों का वर्णन।

    भावार्थ

    ( यद् वा ) तू चाहे ( दिवः रोचने ) भूमि के किसी अति रुचिकर देश में भी ( असिं ) हो, चाहे तू ( समुद्रस्य अधि विष्टपि ) वा समुद्र के किसी निस्ताप प्रदेश में भी हो, चाहे तू ( यत् पार्थिवे सदने ) या पृथिवी के किसी गृह में वा ( यत् अन्तरिक्षे ) वा अन्तरिक्ष में भी हो तो भी हे ( वृत्रहन्तम ) विप्नों के नाशक स्वामिन् ! तू ( आ गहि ) हमें प्राप्त हो। ( २ ) परमेश्वर सूर्य, समुद्र, पृथिवी, अन्तरिक्ष आदि में सर्वत्र व्यापक है। वह हमें सर्वत्र प्राप्त हो। इति षट् त्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रेभः काश्यप ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ११ विराड् बृहती। २, ६, ९, १२ निचृद् बृहती। ४, ५, बृहती। ३ भुरिगनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्। १० भुरिग्जगती। १३ अतिजगती। १५ ककुम्मती जगती। १४ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    हृदय में प्रभु दर्शन

    पदार्थ

    [१] हे (वृत्रहन्तम) = वासनाओं के अधिक से अधिक विनाशक प्रभो! आप (यत्) = जो (वा) = निश्चय से (दिवः रोचने) = द्युलोक के दीप्त प्रदेश में (असि) = विद्यमान हैं तथा (समुद्रस्य) = इस आकाश [मध्यलोक] के (विष्टपि) = लोक में हैं, (यत्) = जो (पार्थिवे सदने) = इस पृथिवीरूप गृह में हैं। आपकी सत्ता त्रिलोकी में है। [२] (यत्) = जो आप (अन्तरिक्षे) = हमारे हृदयान्तरिक्षों में भी (आगहि) = प्राप्त होते हैं। हम अपने हृदयों में आपकी सत्ता को अनुभव करें। आपकी सर्वव्यापकता का स्मरण करते हुए आपको हृदयों में देखने के लिये यत्नशील हों। हृदयों में आसीन हो । हृदयों में प्रभु का दर्शन

    भावार्थ

    भावार्थ- सर्वत्र त्रिलोकी में व्यापक प्रभु हमारे करते हुए हम अपने जीवनों को पवित्र बनायें।

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