ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 97/ मन्त्र 15
तन्म॑ ऋ॒तमि॑न्द्र शूर चित्र पात्व॒पो न व॑ज्रिन्दुरि॒ताति॑ पर्षि॒ भूरि॑ । क॒दा न॑ इन्द्र रा॒य आ द॑शस्येर्वि॒श्वप्स्न्य॑स्य स्पृह॒याय्य॑स्य राजन् ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । मा॒ । ऋ॒तम् । इ॒न्द्र॒ । शू॒र॒ । चि॒त्र॒ । पा॒तु॒ । अ॒पः । न । व॒ज्रि॒न् । दुः॒ऽइ॒ता । अति॑ । प॒र्षि॒ । भूरि॑ । क॒दा । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । रा॒यः । आ । द॒श॒स्येः॒ । वि॒श्वऽप्स्न्य॑स्य । स्पृ॒ह॒याय्य॑स्य । रा॒ज॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तन्म ऋतमिन्द्र शूर चित्र पात्वपो न वज्रिन्दुरिताति पर्षि भूरि । कदा न इन्द्र राय आ दशस्येर्विश्वप्स्न्यस्य स्पृहयाय्यस्य राजन् ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । मा । ऋतम् । इन्द्र । शूर । चित्र । पातु । अपः । न । वज्रिन् । दुःऽइता । अति । पर्षि । भूरि । कदा । नः । इन्द्र । रायः । आ । दशस्येः । विश्वऽप्स्न्यस्य । स्पृहयाय्यस्य । राजन् ॥ ८.९७.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 97; मन्त्र » 15
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 38; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 38; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, wondrous hero of universal might, may the constant and ever true divine law of existence, Rtam, protect me and guide me along the paths of rectitude. O lord of the thunderbolt of justice and karma, Indra, like my karmas, cleanse my mind and soul of all sins and evil. Indra, refulgent ruler of the world, when would you bless me with wealth, honour and excellence of universal form and most cherished value?
मराठी (1)
भावार्थ
उपासकाला फक्त परमेश्वराकडून आशा असते; परंतु तो हे जाणतो, की संपूर्ण जग त्याच्या सत्य व अबाधित नियमांनी बांधलेले आहे. उपासक हे जाणतो, की जर ईश्वराचे साह्य मिळेल तर संपूर्ण दुर्भावना व दुष्ट विचारांपासून सुटका होऊ शकते. ॥१५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (शूर) दुष्ट दोषों के संहारकर्ता! (चित्र) पूजनीय! इन्द्रप्रभु! (तत्) आपका वह (ऋतम्) सत्य सनातन नियम (मा) मुझे (पातु) अपना संरक्षण दे। हे (वज्रिन्) न्यायरूप दण्ड धारक! आप (भूरि) हमारे बहुत से (दुरिता) पापों को (अपः) जलों के तुल्य (अतिपर्षि) पार कराएं। हे (इन्द्र राजन्) हे सर्वोपरि ऐश्वर्यवान्! आप (विश्वप्स्न्यस्य) सभी रूपों में विद्यमान (स्पृहयाय्यस्य) स्पृहणीय (रायः) धन (नः) हमें (कदा) कब (दशस्यः) देंगे?॥१५॥
भावार्थ
उपासक की एकमात्र आशा प्रभु ही है। परन्तु वह यह भी समझता है कि सकल संसार उसके सत्य--अबाधित नियमों में आबद्ध है। उसे विदित है कि यदि प्रभु की सहायता मिले तो सारी दुर्भावनाओं, दुष्ट विचारों से सरलता से मुक्ति मिल सकती है॥१५॥ अष्टम मण्डल में सतानवेवाँ सूक्त व अड़तीसवाँ वर्ग समाप्त॥ इति षष्ठाष्टके षष्ठोऽध्यायः॥
विषय
राजा के कर्त्तव्य के साथ साथ परमेश्वर के गुणों का वर्णन।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यप्रद ! ( तत् ऋतम् ) वह सत्य ज्ञान ( मे पातु ) मेरी रक्षा करे। हे ( चित्र ) पूज्य ! हे अद्भुत गुण कर्म स्वभाव ! हे ( वज्रिन् ) बलवन् ! ( अपः न ) जलों के समान तू ( भूरि दुरिता अति पर्षि ) बहुत से दुःखों और पापों से पारकर। हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( विश्वप्स्न्यस्य ) सब प्रकार के ( स्पृहयाय्यस्य ) चाहने योग्य ( रायः ) धन का हे ( राजन् ) तेजस्विन् ! तू ( नः कदा आ दशस्ये ) हमें कब प्रदान करेगा। इत्यष्टात्रिंशो वर्गः॥ इति षष्ठोऽध्यायः।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रेभः काश्यप ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ११ विराड् बृहती। २, ६, ९, १२ निचृद् बृहती। ४, ५, बृहती। ३ भुरिगनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्। १० भुरिग्जगती। १३ अतिजगती। १५ ककुम्मती जगती। १४ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
सत्य-निष्पापता-धन
पदार्थ
[१] हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले, (चित्र) = आश्चर्यमय अथवा [चित्] ज्ञान-प्रदात:, (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (मे) = मुझे (तत्) = वह (ऋते) = ऋत [सत्य] (पातु) = रक्षित करे। हे (वज्रिन्) = वज्रहस्त प्रभो! आप हमें सब (दुरिता) = पापों के (भूरि) = खूब ही (अतिपर्षि) = इस प्रकार पार करिये, (न) = जैसे एक नाविक (अपः) = यात्री को जलों के पार करता है। [२] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् (राजन्) = शासक प्रभो! आप (कदा) = कब (नः) = हमारे लिये (विश्वप्स्न्यस्य) = स्पृहणीय (रायः) = धन को आदशस्ये देंगे? कब हम आप से इस धन को प्राप्त करेंगे ?
भावार्थ
भावार्थ- सत्य हमारा रक्षण करे। प्रभु हमें पापों से पार करें और स्पृहणीय अनेकरूप धन को प्राप्त करायें। यह सुपथ से चलनेवाला सत्यवादी 'नृ-मेध' बनता है, सब मनुष्यों के साथ मेल से चलता है । यह इन्द्र का स्तवन करता है-
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