ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 97/ मन्त्र 4
यच्छ॒क्रासि॑ परा॒वति॒ यद॑र्वा॒वति॑ वृत्रहन् । अत॑स्त्वा गी॒र्भिर्द्यु॒गदि॑न्द्र के॒शिभि॑: सु॒तावाँ॒ आ वि॑वासति ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । श॒क्र॒ । असि॑ । प॒रा॒ऽवति॑ । यत् । अ॒र्वा॒ऽवति॑ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । अतः॑ । त्वा॒ । गीः॒ऽभिः । द्यु॒ऽगत् । इ॒न्द्र॒ । के॒शिऽभिः॑ । सु॒तऽवा॑न् । आ । वि॒वा॒स॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यच्छक्रासि परावति यदर्वावति वृत्रहन् । अतस्त्वा गीर्भिर्द्युगदिन्द्र केशिभि: सुतावाँ आ विवासति ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । शक्र । असि । पराऽवति । यत् । अर्वाऽवति । वृत्रऽहन् । अतः । त्वा । गीःऽभिः । द्युऽगत् । इन्द्र । केशिऽभिः । सुतऽवान् । आ । विवासति ॥ ८.९७.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 97; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 36; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 36; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O Shakra, lord of mighty holy action, destroyer of evil and darkness, whether you are far off or close by, the man of creative yajna invokes you and draws your attention and presence from there by words of adoration radiating like rays of light across the spaces of skies and heavens of light.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर सर्व व्यापक आहे. त्यामुळे तो कुणापासूनही दूर नाही; परंतु त्याच्या गुणांना न जाणणारी व्यक्ती त्याचे सायुज्य (जवळीक) करू शकत नाही. स्तोता त्याच्या गुणांचे चांगल्या प्रकारे मनन करून त्याचे महत्त्व समजतो. हेच त्याला स्तोत्याचे आमंत्रण आहे. ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (शक्र) सब भाँति समर्थ! (वृत्रहन्) विघ्न विनाशक! प्रभो! आप (यत्) जिस (परावति) दूर देश में या (यत्) जिस (अर्वावति) समीप स्थित देश हैं, हे इन्द्रप्रभु (अतः) उस स्थान से (द्युगत्=द्युगद्भिः) अन्तरिक्ष में सर्वत्र फैली (केशिभिः) सूर्यरश्मियों के तुल्य किरणों वाली (गीर्भिः) स्तुतिवाणियों के द्वारा (सुतावान्) पदार्थबोध को प्राप्त साधक (त्वा) आप को (आ विवासति) बुला लाता है। ४॥
भावार्थ
यों तो भगवान् सर्वव्यापक है, अतः किसी से दूर नहीं। परन्तु उसके गुणों को न जाननेवाला व्यक्ति उसका सामीप्य नहीं पाता; स्तोता, गुणगान कर, उसके गुणों का भलीभाँति मनन करके उसकी महत्ता समझ लेता है--यही उसका अपने समीप आह्वान है॥४॥
विषय
राजा के कर्त्तव्य के साथ साथ परमेश्वर के गुणों का वर्णन।
भावार्थ
हे ( शक्र ) शक्तिशालिन् ! हे ( वृत्रहन् ) शत्रु के नाशक ! ( यत् ) जो तू ( परावति ) दूर और ( अर्वावति ) समीप देश में भी ( असि ) होता है तो भी हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यप्रद ! ( अतः ) इस अपने स्थान से ही, ( सुत-वान् ) उत्तम ऐश्वर्ययुक्त होकर तेरा प्रतिनिधि (द्युगत् केशिभिः ) भूमि पर जाने वाले अश्वों और तेजस्वी पुरुषों द्वारा ( त्वा आ विवासति ) तेरी ही परिचर्या करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रेभः काश्यप ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ११ विराड् बृहती। २, ६, ९, १२ निचृद् बृहती। ४, ५, बृहती। ३ भुरिगनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्। १० भुरिग्जगती। १३ अतिजगती। १५ ककुम्मती जगती। १४ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
शक्र-वृत्रहा
पदार्थ
[१] हे (शक्र) = सर्वशक्तिमन् ! (वृत्रहन्) = सब ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को विनष्ट करनेवाले प्रभो ! (यत्) = क्योंकि आप (परावति) = दूर से दूर देश में भी हैं और (यत्) = क्योंकि (अर्वावति) = समीप से समीप देश में भी है [तद् दूरे तद्वन्तिके, तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत: ], (अत:) = इसीलिए उन सर्वव्यापक (त्वा) = आपको (द्युगत्) = यह ज्ञान - ज्योति में चलनेवाला (सुतावान्) = सोम का शरीर में सम्पादन करनेवाला पुरुष (केशिभिः) = ज्ञान की रश्मियोंवाली (गीर्भिः) = स्तुति-वाणियों से (आविवासति) = पूजता है, परिचरित करता है। [२] आपकी सर्वव्यापकता का स्मरण ही इसे भोगमार्ग में फँसने से बचाता है और ज्ञान के मार्ग पर चलने में प्रवृत्त करता है। इस मार्ग पर चलता हुआ यह भी 'शक्र व वृत्रहा' बनने का प्रयत्न करता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु सर्वव्यापक हैं। यह सर्वव्यापकता का स्मरण हमें ज्ञानमार्ग पर चलते हुए, , शक्तिशाली व वासनाओं का विनाशक बनाये।
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