ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 97/ मन्त्र 7
मा न॑ इन्द्र॒ परा॑ वृण॒ग्भवा॑ नः सध॒माद्य॑: । त्वं न॑ ऊ॒ती त्वमिन्न॒ आप्यं॒ मा न॑ इन्द्र॒ परा॑ वृणक् ॥
स्वर सहित पद पाठमा । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । परा॑ । वृ॒ण॒क् । भव॑ । नः॒ । स॒ध॒ऽमाद्यः॑ । त्वम् । नः॒ । ऊ॒ती । त्वम् । इत् । नः॒ । आप्य॑म् । मा । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । परा॑ । वृ॒ण॒क् ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा न इन्द्र परा वृणग्भवा नः सधमाद्य: । त्वं न ऊती त्वमिन्न आप्यं मा न इन्द्र परा वृणक् ॥
स्वर रहित पद पाठमा । नः । इन्द्र । परा । वृणक् । भव । नः । सधऽमाद्यः । त्वम् । नः । ऊती । त्वम् । इत् । नः । आप्यम् । मा । नः । इन्द्र । परा । वृणक् ॥ ८.९७.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 97; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 37; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 37; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord supreme of truth, goodness and beauty, pray forsake us not, be with us as a friend in the great hall of life and joy, you are our protector, you alone are ultimately our end and aim worth attaining, pray do not forsake us.
मराठी (1)
भावार्थ
उपासकाला मनात सदैव या गोष्टीची चिंता वाटली पाहिजे, की कधी त्याने इकडे तिकडे भटकून परमेश्वराला सोडता कामा नये. सर्वव्यापक परमात्मा जीवाला कधीच सोडणार नाही. जीवच परमेश्वराच्या गुणांपासून आपले लक्ष हरवून त्यापासून विचलित होतो. पुन्हा तो संकल्प करतो, की मी परमेश्वराला कधीच सोडून देणार नाही. ॥७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (इन्द्र) प्रभु! (नः) हमारा (मा) मत (परा वृणक्) परित्याग करें; (नः) हमारे (सधमाद्यः) साथ-साथ हर्षित होने वाले हों। (त्वं न ऊती) आप ही हमारे रक्षणादि क्रियायुक्त हैं; (त्वम् इत्) आप ही (नः) हमारे (आप्यम्) प्राप्ति योग्य सखा हैं। हे (इन्द्र) परमेश्वर! (न मा परावृणक्) हमारा त्याग न कीजिये॥७॥
भावार्थ
उपासक का मन सदैव इस चिन्ता में रहना चाहिये कि कहीं वह भटककर प्रभु को न छोड़ दे। सर्वव्यापक परमात्मा तो जीव को कैसे छोड़ेगा! परन्तु जीव ही परमेश्वर के गुणों से ध्यान हटा कर विचलित हो जाता है। इस चिन्ता में विकल जीव पुनः संकल्प करता है कि ऐसा न हो कि मैं प्रभु को छोड़ दूँ॥७॥
विषय
राजा के कर्त्तव्य के साथ साथ परमेश्वर के गुणों का वर्णन।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यप्रद ! राजन् ! प्रभो ! तू ( नः ) हमें ( मा परा वृणक ) मत परित्याग कर। तू ( नः सधमाद्यः भवः ) हमारे साथ आनन्द युक्त हो। ( त्वं नः ऊती ) तू ही हमारी रक्षा है। ( त्वम् इत् नः आप्यं ) तू ही हमारा बन्धु है। अर्थात् तू ही हमारा रक्षक, तूही हमारा बन्धु है। अतः हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् विभो ! तू ( नः मा परा वृणक् ) हमें मत छोड़।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रेभः काश्यप ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ११ विराड् बृहती। २, ६, ९, १२ निचृद् बृहती। ४, ५, बृहती। ३ भुरिगनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्। १० भुरिग्जगती। १३ अतिजगती। १५ ककुम्मती जगती। १४ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'सच्चे बन्धु, सच्चे रक्षक'
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (नः) = हमें आप (मा परावृणक्) = छोड़ मत दीजिये। आप (नः) = हमारे (सधमाद्यः) = साथ होते हुए हृदयों में आनन्द को प्राप्त करानेवाले (भवा) = होइये। आपके साथ हृदयों में स्थित होते हुए हम आनन्द का अनुभव करें। [२] (त्वम्) = आप ही (नः) = हमारे (ऊती) = रक्षक हैं। (त्वं इत्) = आप ही (नः आप्यम्) = हमारे बन्धुत्ववाले हैं। वास्तविक बन्धु आप ही हैं। हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (नः) = हमें (मा परावृणक्) = मत छोड़ दीजिये । आपकी छत्रछाया में हम 'सत्य शिव व सुन्दर' जीवनवाले बनें।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का साथ हमें सदा प्राप्त हो । प्रभु के साहचर्य में हम आनन्द का अनुभव करें। प्रभु ही हमारे रक्षक हैं, प्रभु ही सच्चे बन्धु हैं।
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