ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 97/ मन्त्र 8
अ॒स्मे इ॑न्द्र॒ सचा॑ सु॒ते नि ष॑दा पी॒तये॒ मधु॑ । कृ॒धी ज॑रि॒त्रे म॑घव॒न्नवो॑ म॒हद॒स्मे इ॑न्द्र॒ सचा॑ सु॒ते ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मे इति॑ । इ॒न्द्र॒ । सचा॑ । सु॒ते । नि । ष॒द॒ । पी॒तये॑ । मधु॑ । कृ॒धि । ज॒रि॒त्रे । म॒घ॒ऽव॒न् । अवः॑ । म॒हत् । अ॒स्मे इति॑ । इ॒न्द्र॒ । सचा॑ । सु॒ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मे इन्द्र सचा सुते नि षदा पीतये मधु । कृधी जरित्रे मघवन्नवो महदस्मे इन्द्र सचा सुते ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मे इति । इन्द्र । सचा । सुते । नि । षद । पीतये । मधु । कृधि । जरित्रे । मघऽवन् । अवः । महत् । अस्मे इति । इन्द्र । सचा । सुते ॥ ८.९७.८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 97; मन्त्र » 8
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 37; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 37; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, when we have distilled the soma of life’s knowledge and value, be with us as a friend and let us be together so that we may experience the divine joy of achievement. O lord of glory, create the great divine protective band for the devotee, be our friend in company, the soma of celebration is ready.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या सृष्टीत उत्पन्न झालेल्या पदार्थांचा बोध घेतल्यानंतर आनंद प्राप्त होतो; परंतु तो आनंद तेव्हाच मिळतो जेव्हा मनुष्य परमेश्वराला सदैव आपला मित्र समजतो. दु:खात त्याचे स्मरण सर्वजण करतात; परंतु सुखातही त्याच्या मैत्रीची अभिलाषा बाळगली पाहिजे. ॥८॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्य सम्पन्न! (सुते) पदार्थबोध रूप सारग्रहण क्रिया निष्पन्न करने पर (मधु पीतये) उसके रस का उपभोग करने हेतु (अस्मे सचा) हमारे साथ (नि षदा) बैठो! (मघवन्) हे आदरणीय ऐश्वर्यस्वामी! (जरित्रे) अपना गुण गाने वाले उपासक के हेतु (महद्) व्यापक (अवः) रक्षण (कृधी) करें॥८॥
भावार्थ
परमात्मा की सृष्टि में उत्पन्न पदार्थों का बोध पा लेने पर जो हर्ष मिलता है, उसका हर्ष भी उसे तभी मिलता है जब वह परमेश्वर को अपना सदैव साथी समझे। दुःख में तो सभी उसे पुकारते हैं सुख में भी उसके साथ ही अभिलाषा रहनी अपेक्षित है॥८॥
विषय
राजा के कर्त्तव्य के साथ साथ परमेश्वर के गुणों का वर्णन।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( मधु पीतये ) मधुर अन्नादि के उपभोग के लिये ( अस्मे सुते ) हमारे द्वारा अभिषिक्त पद पर तू (नि सद) विराज। हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( जरित्रे ) स्तोता विद्वान् उपदेष्टा के हितार्थ ( अस्मे सुते सचा ) हमारे ऐश्वर्य पर स्थिर रहकर ( महत् अवः कृधि ) बड़ी भारी रक्षा कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रेभः काश्यप ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ११ विराड् बृहती। २, ६, ९, १२ निचृद् बृहती। ४, ५, बृहती। ३ भुरिगनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्। १० भुरिग्जगती। १३ अतिजगती। १५ ककुम्मती जगती। १४ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
हृदयों में प्रभु का वास व सोमरक्षण
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = शत्रु - विद्रावक प्रभो! (अस्मे) = हमारे (सचा) = साथ सुते सोम का सम्पादन होने पर (निषदा) = निषण्ण होइये। आप हृदय में आसीन होंगे, तभी वासनाओं का विनाश होगा। सो (मधुपीतये) = इस जीवन को मधुर बनानेवाले सोम को पीने के लिये आप हमारे हृदयों में स्थित होइये। [२] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् इन्द्र प्रभो ! (अस्मे) = हमारे में (सुते) = सोम का सम्पादन होने पर (सचा) = साथ होते हुए आप (जरित्रे) = स्तोता के लिये (महत् अवः) = महान् रक्षण को (कृधि) = करिये।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे हृदयों में प्रभु का वास हो। इससे सोम का रक्षण होकर हमारा जीवन मधुर बने तो रोगों से बचा रहे ।
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