ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 97/ मन्त्र 6
स न॒: सोमे॑षु सोमपाः सु॒तेषु॑ शवसस्पते । मा॒दय॑स्व॒ राध॑सा सू॒नृता॑व॒तेन्द्र॑ रा॒या परी॑णसा ॥
स्वर सहित पद पाठसः । नः॒ । सोमे॑षु । सो॒म॒ऽपाः॒ । सु॒तेषु॑ । श॒व॒सः॒ । प॒ते॒ । मा॒दय॑स्व । राध॑सा । सू॒नृता॑ऽवता । इन्द्र॑ । रा॒या । परी॑णसा ॥
स्वर रहित मन्त्र
स न: सोमेषु सोमपाः सुतेषु शवसस्पते । मादयस्व राधसा सूनृतावतेन्द्र राया परीणसा ॥
स्वर रहित पद पाठसः । नः । सोमेषु । सोमऽपाः । सुतेषु । शवसः । पते । मादयस्व । राधसा । सूनृताऽवता । इन्द्र । राया । परीणसा ॥ ८.९७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 97; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 37; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 37; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of strength and power, protector of the soma sweetness of life, beauty, vitality and joy, when we have distilled the soma essence of life, knowledge and existence, bless us with lovely, veritable wealth, means and modes of advancement, and all round success and lead us to the joy of the truth, goodness and beauty of life.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर स्व उत्पादित पदार्थांद्वारे सर्वांचे रक्षण करतो; परंतु माणसाने त्या पदार्थांचे ज्ञान प्राप्त करावे. पदार्थ बोधाद्वारे माणूस पदार्थांचा सदुपयोग करतो. तेच परमेश्वराचे दिलेले धन आहे. ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (सोमपाः) जगत् में उपजे पदार्थों के द्वारा सर्व रक्षक! (शवसस्पते) बल पालक! (सः) वह आप (नः सोमेषु सुतेषु) पदार्थबोध रूप उनके सार के निचोड़ लेने पर हे (इन्द्र) परमेश्वर! आप (राधसा) सिद्धिदायक, (सूनृतावता) सत्यवाणी युक्त, (राधसा) सुखसाधन, (परीणसा) बहुत से, (राया) सर्व प्रकार की विद्या से सम्पन्न पदार्थबोध रूप धन से (नः) हमें (मादयस्व) हर्षित करें॥६॥
भावार्थ
परमेश्वर अपने द्वारा उत्पन्न पदार्थों से सबकी रक्षा करते हैं। परन्तु इसका माध्यम यही है कि मानव उन पदार्थों का सदुपयोग कर पाता है--यही प्रभुप्रदत्त धन होता है॥६॥
विषय
राजा के कर्त्तव्य के साथ साथ परमेश्वर के गुणों का वर्णन।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यप्रद ! हे ( शवसः पते ) बल के पालक ! हे ( सोमपाः ) ऐश्वर्य के पालक ! तू ( सोमेषु सुतेषु ) ऐश्वर्यों के उत्पन्न होने पर ( नः ) हमें ( सूनृतावता ) अन्न और उत्तम वचन से युक्त ( राधसः ) दान योग्य धन से और ( परीणसा ) बहुत से ( राया ) ऐश्वर्य से ( मादयस्व ) प्रसन्न, सुखी, तृप्त कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रेभः काश्यप ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ११ विराड् बृहती। २, ६, ९, १२ निचृद् बृहती। ४, ५, बृहती। ३ भुरिगनुष्टुप्। ७ अनुष्टुप्। १० भुरिग्जगती। १३ अतिजगती। १५ ककुम्मती जगती। १४ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
शक्ति-धन
पदार्थ
[१] हे (शवसस्पते) = शक्तियों के स्वामिन् प्रभो ! (सः) = वे आप (सोमेषु सुतेषु) = सोमकणों के शरीर में उत्पन्न होने पर (नः) = हमारे लिये (सोमपाः) = सोम का रक्षण करनेवाले हैं। इस सोमरक्षण द्वारा आप हमें भी शक्तिशाली बनाते हैं। [३] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! आप (परीणसा) = बहुत [ पर्याप्त] (राया) = धन से (मादयस्व) = हमें आनन्दित कीजिये। जो धन (राधसा) = कार्यों को सिद्ध करनेवाला है और सूनृतावता सत्यवाला है। प्रिय सत्यवाणी से युक्त धन ही शोभा का बढ़ानेवाला है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें शक्ति प्राप्त करायें तथा सत्य मार्ग से अर्जित धन से हमें जीवन में सुखी करें।
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