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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 106 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 106/ मन्त्र 12
    ऋषिः - अग्निः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    अस॑र्जि क॒लशाँ॑ अ॒भि मी॒ळ्हे सप्ति॒र्न वा॑ज॒युः । पु॒ना॒नो वाचं॑ ज॒नय॑न्नसिष्यदत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस॑र्जि । क॒लशा॑न् । अ॒भि । मी॒ळ्हे । सप्तिः॑ । न । वा॒ज॒ऽयुः । पु॒ना॒नः । वाच॑म् । ज॒नय॑न् । अ॒सि॒स्य॒द॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असर्जि कलशाँ अभि मीळ्हे सप्तिर्न वाजयुः । पुनानो वाचं जनयन्नसिष्यदत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असर्जि । कलशान् । अभि । मीळ्हे । सप्तिः । न । वाजऽयुः । पुनानः । वाचम् । जनयन् । असिस्यदत् ॥ ९.१०६.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 106; मन्त्र » 12
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वाजयुः) सर्वबलाश्रयः परमात्मा (मीळ्हे) सङ्ग्रामे (सप्तिर्न) विद्युदिव (कलशानभि) पूतान्तःकरणे (असर्जि) साक्षात्क्रियते, स च (वाचम्, पुनानः) वाणीं पावयन् (जनयन्) उत्तमभावानुत्पादयन् (असिस्यदत्) शुद्धान्तःकरणं सिञ्चन् विराजते ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वाजयुः) सब लोकों को प्राप्त परमात्मा (मीळ्हे) संग्राम में (सप्तिर्न) विद्युत् के समान (कलशानभि) पवित्र अन्तःकरणों में (असर्जि) साक्षात्कार किया जाता है, वह परमात्मा (वाचं, पुनानः) वाणी को पवित्र करके (जनयन्) उत्तम भावों को उत्पन्न करता हुआ (असिस्यदत्) शुद्ध अन्तःकरणों को सिञ्चन करता हुआ स्थिर होता है ॥१२॥

    भावार्थ

    उपासकों को चाहिये कि वे उपासना से प्रथम अपने अन्तःकरणों को शुद्ध करें, क्योंकि वह उपास्य देव स्वच्छ अन्तःकरणों में ही अपनी अभिव्यक्ति को प्रकट करता है ॥१२॥

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    विषय

    संग्राम विजय व प्रभु वाणी श्रवण

    पदार्थ

    (वाजयुः) = हमारे साथ शक्ति को जोड़ने की कामना वाला यह सोम (कलशान् अभि) = शरीर रूप कलशों का लक्ष्य करके (असर्जि) = इस प्रकार उत्पन्न किया जाता है, (न) = जैसे कि (मीढे) = संग्राम में (सप्तिः) = घोड़ा सृष्ट किया जाता है। घोड़े के द्वारा हम संग्राम में विजय पाते हैं, इसी प्रकार इस सोम के द्वारा शरीर के अन्दर चलनेवाले रोगकृमियों के साथ संग्राम में हम विजयी होते हैं । (पुनानः) = पवित्र करता हुआ यह सोम (वाचं जनयन्) = हृदयस्थ प्रभु की वाणी को पैदा करता हुआ (असिष्यदत्) = प्रवाहित होता है। शरीर में व्याप्त सोम के द्वारा हृदय का पवित्रीकरण होकर वहाँ प्रभु की वाणी सुनाई पड़ने लगती है। यही 'वाचं जनयन्' शब्दों का भाव है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम शरीर में चलनेवाले संग्रामों में विजय प्राप्त कराने के लिये उत्पन्न किया गया है। यह हृदय को पवित्र करके हमें प्रभु की वाणी को सुनाता है।

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    विषय

    हृदय में प्रभु का आविर्भाव।

    भावार्थ

    (वाजयुः सप्तिः न) (मीढे) संग्राम में वेगवान् अश्व के तुल्य, (कलशान् अभि असर्जि) कलशों के तुल्य अन्तःकरणों में प्रकट होता है। (वाचं जनयन्) वाणी को प्रकट करता और (पुनानः) पवित्र करता हुआ, संन्यासी के तुल्य (असिष्यदत्) सर्वत्र विचरता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि:-१-३ अग्निश्चाक्षुषः। ४–६ चक्षुर्मानवः॥ ७-९ मनुराप्सवः। १०–१४ अग्निः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ३, ४, ८, १०, १४ निचृदुष्णिक्। २, ५–७, ११, १२ उष्णिक् । ९,१३ विराडुष्णिक्॥ चतुदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Soma, vibrant spirit of divinity, rushes to the heart core of realised souls like instant energy radiating to the centre of its target in the human battle of survival and distinguished search for immortality, there stimulating, creating and sanctifying hymns of adoration, and there in the soul it abides.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उपासकांनी उपासनेने प्रथम आपले अंत:करण शुद्ध करावे. कारण तो उपास्यदेव स्वच्छ अंत:करणामध्येच आपली अभिव्यक्ती प्रकट करतो. ॥१२॥

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