ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 106/ मन्त्र 9
आ न॑: सुतास इन्दवः पुना॒ना धा॑वता र॒यिम् । वृ॒ष्टिद्या॑वो रीत्यापः स्व॒र्विद॑: ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । सु॒ता॒सः॒ । इ॒न्द॒वः॒ । पु॒ना॒नाः । धा॒व॒त॒ । र॒यिम् । वृ॒ष्टिऽद्या॑वः । री॒ति॒ऽआ॒पः॒ । स्वः॒ऽविदः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ न: सुतास इन्दवः पुनाना धावता रयिम् । वृष्टिद्यावो रीत्यापः स्वर्विद: ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नः । सुतासः । इन्दवः । पुनानाः । धावत । रयिम् । वृष्टिऽद्यावः । रीतिऽआपः । स्वःऽविदः ॥ ९.१०६.९
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 106; मन्त्र » 9
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दवः) हे प्रकाशस्वरूप ! (सुतासः) सर्वत्र विद्यमानो भवान् (नः) अस्मान् (पुनानाः) पवित्रयन् (रयिम्) धनं (आधावत) प्रापयन्तु (वृष्टिद्यावः) द्युलोकमभिलक्ष्य वर्षणशीलः (रीत्यापः) सर्वगः भवान् (स्वर्विदः) आनन्दमयः मामप्यानन्दयतु ॥९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दवः) हे प्रकाशस्वरूप ! (सुतासः) सर्वत्र विद्यमान परमात्मन् ! आप (नः) हमको (पुनानाः) पवित्र करते हुए (रयिं) धन को (आधावत) प्राप्त करायें (वृष्टिद्यावः) द्युलोक को लक्ष्य रखकर वृष्टि करनेवाले (रीत्यापः) सर्वव्यापक आप ! (स्वर्विदः) आनन्दस्वरूप हैं, हमको भी आनन्दित करें ॥९॥
भावार्थ
जिस प्रकार बाह्य जगत् में परमात्मा की शक्तियों से अनन्त प्रकार की वृष्टि होती है, इसी प्रकार कर्मयोगी और ज्ञानयोगी पुरुषों के अन्तःकरण में परमात्मा की ज्ञानरूपी वृष्टि सदैव होती रहती है, इसको योगशास्त्र की परिभाषा में धर्ममेघसमाधि के नाम से कहा गया है अर्थात् धर्मरूपी मेघ से योगी जन सदैव सुसिञ्चित रहते हैं ॥९॥
विषय
वृष्टिद्यावः- रीत्यापः
पदार्थ
(सुतासः) = उत्पन्न हुए हुए (इन्दवः) = सोमकण (पुनानाः) = पवित्र करते हुए (नः) = हमारे लिये रयिं रयि को, सब अन्नमय आदि कोशों के ऐश्वर्य को आधावता - प्राप्त कराओ। ये सोम (वृष्टिद्यावः) = मस्तिष्क रूप द्युलोक को धर्ममेघ समाधि में आनन्द की वर्षा से युक्त करनेवाले हैं । (रीत्यापः) = रेतः कणरूप जलों को शरीर में सर्वत्र प्राप्त करानेवाले हैं [= उदप्रुतः] । (स्वर्विदः) = अन्ततः उस स्वयं प्रकाशमान प्रभु को प्राप्त करानेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम अन्नमय आदि कोशों के ऐश्वर्य को प्राप्त कराते हैं। धर्ममेघ समाधि में ये ही आनन्द की वृष्टि का कारण बनते हैं । प्रभु को प्राप्त कराते हैं ।
विषय
बन्धन-मोचन के लिये प्रभु की उपासना।
भावार्थ
हे (नः सुतासः इन्दवः) हमारे उत्पन्न जीव आत्माओ ! आप लोग (वृष्टि-द्यावः) कर्मबन्धन के विच्छेद के लिये ज्ञान, प्रकाश को प्राप्त करने वाले और (रीति-आपः) जलों के तुल्य प्राणों को वा प्रकृति को निर्गमन मार्गों में से क्षेत्रिक के तुल्य कर लेने वाले और (स्वर्विदः) सुख-प्रकाश को प्राप्त करने वाले होकर (रयिम्) सुख-प्रदाता, ऐश्वर्यवान् प्रभु को लक्ष्य कर (पुनानः) अपने तईं पवित्र होकर (आ धावत) और वेग से आगे बढ़ो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि:-१-३ अग्निश्चाक्षुषः। ४–६ चक्षुर्मानवः॥ ७-९ मनुराप्सवः। १०–१४ अग्निः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ३, ४, ८, १०, १४ निचृदुष्णिक्। २, ५–७, ११, १२ उष्णिक् । ९,१३ विराडुष्णिक्॥ चतुदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O streams of the beauty and bliss of peace and joy filtered from experience, heavenly showers, liquid floods, paradisal bliss pure and purifying, bring us the wealth, honour and excellence of the highest order.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या प्रकारे बाह्य जगात परमेश्वराच्या शक्तींनी अनंत प्रकारची वृष्टी होते. त्याच प्रकारे कर्मयोगी व ज्ञानयोगी पुरुषांच्या अंत:करणात परमात्म्याची ज्ञानरूपी वृष्टी सदैव होत असते. त्याला योगशास्त्राच्या परिभाषेत धर्ममेघ समाधीच्या नावाने संबोधलेले आहे. अर्थात, धर्मरूपी मेघाने योगिजन सदैव सुसिञ्चित करतात. ॥९॥
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