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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 106 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 106/ मन्त्र 5
    ऋषिः - चक्षुर्मानवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    इन्द्रा॑य॒ वृष॑णं॒ मदं॒ पव॑स्व वि॒श्वद॑र्शतः । स॒हस्र॑यामा पथि॒कृद्वि॑चक्ष॒णः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑य । वृष॑णम् । मद॑म् । पव॑स्व । वि॒श्वऽद॑र्शतः । स॒हस्र॑ऽयामा । प॒थि॒ऽकृत् । वि॒ऽच॒क्ष॒णः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्राय वृषणं मदं पवस्व विश्वदर्शतः । सहस्रयामा पथिकृद्विचक्षणः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्राय । वृषणम् । मदम् । पवस्व । विश्वऽदर्शतः । सहस्रऽयामा । पथिऽकृत् । विऽचक्षणः ॥ ९.१०६.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 106; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    हे परमात्मन् ! भवान् (इन्द्राय) कर्मयोगिने (वृषणम्) सर्वकामान् वर्षुकः (मदम्) आनन्दं (पवस्व) कर्मयोग्यर्थमुत्पादयतु (विश्वदर्शतः) भवान् सर्वज्ञः (सहस्रयामा) अनन्तशक्तियुक्तः (विचक्षणः) चतुरः (पथिकृत्) स्वानुयायिपथानां सुगमकर्ता च ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे परमात्मन् ! आप (इन्द्राय) कर्म्मयोगी के लिये (वृषणं) सब कामनाओं की वृष्टि करनेवाले हैं, (मदं) आनन्द (पवस्व) कर्म्मयोगी को दें। आप (विश्वदर्शतः) सर्वज्ञ हैं (सहस्त्रयामा) अनन्त शक्तियुक्त हैं और (विचक्षणः) चतुर हैं, (पथिकृत्) अपने अनुयायियों के पथों को सुगम करनेवाले हैं ॥५॥

    भावार्थ

    परमात्मा कर्मयोगी के लिये सब प्रकार के ऐश्वर्य्य प्रदान करता है और उनको अपने ज्ञान से प्रकाशित करता है ॥५॥

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    विषय

    पथिकृद् विचक्षणः

    पदार्थ

    सब हे सोम ! तू (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (वृषणम्) = शक्ति का सञ्चार करनेवाले (मदम्) = उल्लास जनक रस को [मदं मदकरं रसं] (पवस्व) = प्राप्त करा । तू (विश्वदर्शतः) = दृष्टिकोणों से दर्शनीय है, सुन्दर ही सुन्दर है। (सहस्त्रयामा) = [सह हस्] उस आनन्दमय प्रभु की ओर ले जानेवाला है । (पथिकृद्) = जीवन में मार्ग का बनानेवाला है। (विचक्षणः) = [सर्वस्य द्रष्टा] सब का (द्रष्टा) = ध्यान करनेवाला है [look after] सोम ही हमें रोग आदि से बचाता है। यही अशुभ प्रवृत्तियों को हमारे से दूर रखता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम शक्ति व आनन्द का वर्धन करता हुआ सुन्दर ही सुन्दर है। यह हमें जीवन में रोग व वासनाओं का शिकार न होने देता हुआ, मार्ग पर ले चलता हुआ, प्रभु को प्राप्त कराता है।

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    विषय

    सर्वलोक नियन्ता, सब की एक मात्र गति सर्वद्रष्टा उससे सुखों की याचना।

    भावार्थ

    हे प्रभो ! तू (विश्व-दर्शतः) सबों से दर्शनीय ! समस्त विश्वों और जीवात्माओं को भी देखने हारा (सहस्र-यामा) सहस्रों, अनेकों जीवों का एक मात्र मार्ग, चारा या सहस्रों लोकों का नियन्ता, (पथिकृत्) सब मार्गों का उपदेश करने वाला, (विचक्षणः) विविध ज्ञानों का विशेष उपदेष्टा वा विश्व का विशेष द्रष्टा है। वह तू हे प्रभो ! (वृषणम् मदम्) सुखवर्षक, हर्षदायक रस को तू (इन्द्राय पवस्व) जीवात्मा मात्र के उपकार के लिये प्रवाहित कर। इति नवमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि:-१-३ अग्निश्चाक्षुषः। ४–६ चक्षुर्मानवः॥ ७-९ मनुराप्सवः। १०–१४ अग्निः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ३, ४, ८, १०, १४ निचृदुष्णिक्। २, ५–७, ११, १२ उष्णिक् । ९,१३ विराडुष्णिक्॥ चतुदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let divine showers and streams of visionary ecstasy rain and flow for Indra, the soul, O Soma, charming cosmic power, moving a thousand ways, maker of a thousand paths, shining, all watching and revealing.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा कर्मयोग्यासाठी सर्व प्रकारचे ऐश्वर्य प्रदान करतो व त्यांना ज्ञानाने प्रकाशित करतो. ॥५॥

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