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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 110 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 110/ मन्त्र 5
    ऋषिः - त्रयरुणत्रसदस्यू देवता - पवमानः सोमः छन्दः - पाद्निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    अ॒भ्य॑भि॒ हि श्रव॑सा त॒तर्दि॒थोत्सं॒ न कं चि॑ज्जन॒पान॒मक्षि॑तम् । शर्या॑भि॒र्न भर॑माणो॒ गभ॑स्त्योः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भिऽअ॑भि । हि । श्रव॑सा । त॒तर्दि॑थ । उत्स॑म् । न । कम् । चि॒त् । ज॒न॒ऽपान॑म् । अक्षि॑तम् । शर्या॑भिः । न । भर॑माणः । गभ॑स्त्योः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभ्यभि हि श्रवसा ततर्दिथोत्सं न कं चिज्जनपानमक्षितम् । शर्याभिर्न भरमाणो गभस्त्योः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभिऽअभि । हि । श्रवसा । ततर्दिथ । उत्सम् । न । कम् । चित् । जनऽपानम् । अक्षितम् । शर्याभिः । न । भरमाणः । गभस्त्योः ॥ ९.११०.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 110; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    हे परमात्मन् !  त्वं  (श्रवसा)  स्वकीयज्ञानरूपैश्वर्येण  (अभ्यभि) प्रत्येकोपासकस्य  (ततर्दिथ)  दुर्गुणान्  नाशयसि (न) यथा कश्चिद् (कञ्चित्) कमपि (अक्षितम्)। जलपूर्णं (जनपानं, उत्सं) उदपानं संशोध्य जलं निर्मलं करोति (न) यथा  (गभस्त्योः) सूर्य्यकिरणयोः (शर्याभिः) शक्तिभिः (भरमाणः) पूर्णं कुर्वाणः दोषरहितं करोति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे परमात्मन् ! आप (श्रवसा) अपने ज्ञानरूप ऐश्वर्य्य से (अभ्यभि) प्रत्येक उपासक के (ततर्दिथ) दुर्गुणों का नाश करते हैं, (न) जैसे कोई (अक्षितं) जल से भरे हुए (उत्सं) उत्सरणयोग्य जलवाले (जलपानं, कंचित्) वापी आदि जलाधार को मलिन जल निकालकर स्वच्छ बनाता है, (हि) निश्चय करके (न) जैसे सूर्य्य (गभस्त्योः) अपनी किरणों की (शर्याभिः) कर्मशक्ति द्वारा (भरमाणः) सब विकारों को दूर करके प्रजा का पालन करता है ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र का आशय यह है कि जिस प्रकार सूर्य्य अपनी गरमी तथा प्रकाश शक्ति से प्रजा के सब विकार तथा अपगुणों को दूर करके शुभगुण देता है, इसी प्रकार परमात्मा सदाचारी पुरुषों के दोष दूर करके उनमें सद्गुणों का आधान कर देता है, इसलिये पुरुष को कर्मयोगी तथा सदाचारी होना परमावश्यक है ॥५॥

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    विषय

    ज्ञान स्रोत का खनन

    पदार्थ

    हे सोम! तू (श्रवसा) = ज्ञान के हेतु से (कञ्चित्) = किसी अद्भुत (अक्षितम्) = [न क्षितं यस्मात्] नाश से बचानेवाले (जनपानं) = लोकों के रक्षक व लोगों से पीने के योग्य (उत्सं न) = स्रोत के समान (हि) = ही ज्ञानस्रोत को (अभि ततर्दिथ) = खोद डालता है । सोम के द्वारा इस ज्ञानस्रोत पर ज्ञानजल को पीते हुए लोग ज्ञान को बढ़ा पाते हैं। सोम ही वस्तुतः इस सूक्ष्म बुद्धि को प्राप्त कराता है जो ज्ञान वृद्धि का कारण बनती है। (नः) = और यह सोम (शर्याभिः) = वासनाओं के संहार के द्वारा (गभस्त्योः) = भुजाओं में (भरमाण:) = शक्ति का भरण करता है। भुजाओं को शक्ति सम्पन्न बनाता हुआ यह सोम हमें उत्तम कर्मों के करने में समर्थ बनाता है । है और हमारे में शक्ति का

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम हमारे जीवन में ज्ञानस्रोत को खोल देता भरण करता है।

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    भावार्थ

    तू (श्रवसा) श्रवण योग्य आत्मज्ञान से (उत्सम् न कंचित्) किसी जल-निकास वा कूप के तुल्य (अक्षितम् जनपानम्) अक्षय इस जीव-जगत् के पालक प्रभु को (ततर्दिथ) खन ले, यत्न से प्राप्त कर। और (गभस्त्योः) बाहुओं में लगी अंगुलियों से जैसे पदार्थ धारण किया जाता है उसी प्रकार सूर्य-चन्द्रवत् प्राण-अपान की (शर्याभिः) साधनाओं से (भरमाणः) अपने बल को धारण करता हुआ, अपने को पुष्ट करता हुआ उस प्रभु को प्राप्त कर। (२) राजा बाहुओं में, अपने वश में शत्रु-नाशक शक्तियों से अपने को पुष्ट करता हुआ अक्षय जन-रक्षक राष्ट्र बनावे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्र्यरुणत्रसदस्यू ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, १२ निचृदनुष्टुप्। ३ विराडनुष्टुप्। १०, ११ अनुष्टुप्। ४, ७,८ विराडुबृहती। ५, ६ पादनिचृद् बृहती। ९ बृहती॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Bearing in hands as if, and maintaining in balance by evolutionary powers, you hold and control the means of life sustenance, and release them in constant flow of food and energy like an inexhaustible stream of water for the maintenance and fulfilment of common humanity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्राचा आशय हा आहे की, ज्याप्रकारे सूर्य आपल्या गर्मी व प्रकाशशक्तीने प्रजेचे सर्व विकार व अवगुण दूर करून शुभ गुण देतो. त्याचप्रकारे परमात्मा सदाचारी पुरुषांचे दोष दूर करून त्यांच्यात सद्गुणांचे आधान करतो. त्यासाठी पुरुषाला कर्मयोगी व सदाचारी होणे परम आवश्यक आहे. ॥५॥

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