ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 110/ मन्त्र 6
ऋषिः - त्रयरुणत्रसदस्यू
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - पाद्निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
आदीं॒ के चि॒त्पश्य॑मानास॒ आप्यं॑ वसु॒रुचो॑ दि॒व्या अ॒भ्य॑नूषत । वारं॒ न दे॒वः स॑वि॒ता व्यू॑र्णुते ॥
स्वर सहित पद पाठआत् । ई॒म् । के । चि॒त् । पश्य॑मानासः । आप्य॑म् । व॒सु॒ऽरुचः॑ । दि॒व्याः । अ॒भि । अ॒नू॒ष॒त॒ । वार॑म् । न । दे॒वः । स॒वि॒ता । वि । ऊ॒र्णु॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आदीं के चित्पश्यमानास आप्यं वसुरुचो दिव्या अभ्यनूषत । वारं न देवः सविता व्यूर्णुते ॥
स्वर रहित पद पाठआत् । ईम् । के । चित् । पश्यमानासः । आप्यम् । वसुऽरुचः । दिव्याः । अभि । अनूषत । वारम् । न । देवः । सविता । वि । ऊर्णुते ॥ ९.११०.६
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 110; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 6
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 22; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(आप्यं) पूजनीयं तं (केचित्) केचिज्जनाः (पश्यमानासः) ज्ञानदृष्ट्या पश्यन्तः (अभ्यनूषत) स्तुवन्ति (आत्) अथवा (ईं, वारं) वरणीयं तं(वसुरुचः, दिव्याः) ऐश्वर्य्यमिच्छवो विद्वांसः (देवः, सविता) दिव्यः सूर्य्यः (वि, ऊर्णुते) यथा स्वप्रकाशानाच्छादयति (न) तथा वर्णयन्ति ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(आप्यं) पूजनीय परमात्मा को (केचित्) कई एक लोग (पश्यमानासः) ज्ञानदृष्टि से देखते हुए (अभ्यनूषत) स्तुति करते हैं (आत्) अथवा (ईं, वारं) इस वरणीय परमात्मा को (वसुरुचः, दिव्याः) ऐश्वर्य्य चाहनेवाले विद्वान् (देवः, सविता) दिव्यरूप सूर्य्य (वि, ऊर्णुते) जिस प्रकार अपने प्रकाश से आच्छादन कर लेता है, (न) इस प्रकार वर्णन करते हैं ॥६॥
भावार्थ
भाव यह है कि जिस प्रकार सूर्य्य की प्रभा चहुँ ओर व्याप्त हो जाती है, इसी प्रकार ब्रह्मविद्यावेत्ता पुरुषों की ब्रह्मविषयिणी बुद्धि विस्तृत होकर सब ओर परमात्मा का अवलोकन करती है और ऐसे पुरुष परमात्मपरायण होकर ब्रह्मानन्द का उपभोग करते हैं ॥६॥
विषय
प्रभु दर्शन व साधन
पदार्थ
गतमन्त्र के अनुसार ज्ञानस्रोत व शक्ति को प्राप्त करके (आत् ईम्) = अब शीघ्र ही (केचित्) = कुछ (पश्यमानासः) = वस्तुतत्त्वों को देखते हुए, (वसुरुचः) = जीवन में निवास के लिये आवश्यक तत्त्वों से दीप्त होते हुए (दिव्याः) = दिव्य मनोवृत्ति वाले पुरुष आप्यं उस प्राप्त करने योग्य व सर्वत्र प्राप्त सर्वव्यापक प्रभु को (अभ्यनूषत) = स्तुत करते हैं। (न) = और अब [नः च, संगति] वह (देवः) = प्रकाशमय (सविता) = सब का प्रेरक प्रभु (वारं) = वरणीय ज्ञान धन को (व्यूर्णुते) आवरण से रहित करता है। प्रभु इन उपासकों के जीवन में ज्ञान को प्रकाशित करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञानी पुरुष प्रभु स्तवन में प्रवृत्त होते हैं । प्रभु उनके ज्ञानस्रोत को आवरण शून्य करते हैं।
भावार्थ
(केचित्) कई (दिव्याः) ज्ञान-प्रकाश के उपासक (वसु-रुचः) उस सबको बसाने वाले एवं समस्त लोकों के प्रकाशक प्रभु को चाहते हुए (आत्) अनन्तर (ईं पश्यमानासः) उस प्रभु को ही सर्वत्र अपना बन्धुवत् परम प्राप्य देखते हुए (अभि अनूषत) साक्षात् स्तुति करते हैं कि वह (देवः सविता) सब सुखों का दाता, प्रकाशस्वरूप प्रभु सब जगत् का उत्पादक है। वही (वारं न व्यूर्णुते) अन्धकार के तुल्य अज्ञान के आवरण को दूर करता है। इति द्वाविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्र्यरुणत्रसदस्यू ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, १२ निचृदनुष्टुप्। ३ विराडनुष्टुप्। १०, ११ अनुष्टुप्। ४, ७,८ विराडुबृहती। ५, ६ पादनिचृद् बृहती। ९ बृहती॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
And some men of vision who can perceive the adorable presence worthy of attainment, and some divinely blest lovers of the life sustainer Soma who adore and exalt him, these reveal the mystery and majesty of the supreme Soma spirit as the sun reveals the world of physical reality.
मराठी (1)
भावार्थ
हा भाव आहे की ज्या प्रकारे सूर्याची प्रभा चहुकडे व्याप्त होते. त्याचप्रकारे ब्रह्मवेत्ता पुरुषांची ब्रह्मविषयक बुद्धी विस्तृत होऊन सगळीकडे परमेश्वराचे अवलोकन करते व असे पुरुष परमात्मपरायण होऊन ब्रह्मानंदाचा उपभोग करतात. ॥३॥
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