ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 110/ मन्त्र 8
ऋषिः - त्रयरुणत्रसदस्यू
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराड्बृहती
स्वरः - मध्यमः
दि॒वः पी॒यूषं॑ पू॒र्व्यं यदु॒क्थ्यं॑ म॒हो गा॒हाद्दि॒व आ निर॑धुक्षत । इन्द्र॑म॒भि जाय॑मानं॒ सम॑स्वरन् ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वः । पी॒यूष॑म् । पू॒र्व्यम् । यत् । उ॒क्थ्य॑म् । म॒हः । गा॒हात् । दि॒वः । आ । निः । अ॒धु॒क्ष॒त॒ । इन्द्र॑म् । अ॒भि । जाय॑मानम् । सम् । अ॒स्व॒र॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवः पीयूषं पूर्व्यं यदुक्थ्यं महो गाहाद्दिव आ निरधुक्षत । इन्द्रमभि जायमानं समस्वरन् ॥
स्वर रहित पद पाठदिवः । पीयूषम् । पूर्व्यम् । यत् । उक्थ्यम् । महः । गाहात् । दिवः । आ । निः । अधुक्षत । इन्द्रम् । अभि । जायमानम् । सम् । अस्वरन् ॥ ९.११०.८
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 110; मन्त्र » 8
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(दिवः, पीयूषं) यः द्युलोकस्यामृतं (पूर्व्यं) सनातनः (यत्) यः (उक्थ्यं) प्रशंसनीयः (महः, गाहात्) अतिगहनात् (दिवः) द्युलोकात् (आ, निः, अधुक्षत) साध्वदोहि (इन्द्रं, अभि) कर्मयोगिनमभिलक्ष्य (जायमानं) यो विद्यमानस्तं (परमात्मानं) साधवः (सं, अस्वरन्) स्तुवन्ति ॥८॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(दिवः, पीयूषं) जो द्युलोक का अमृत (पूर्व्य) सनातन (उक्थ्यं) प्रशंसनीय (यत्) जो (महः, गाहात्) बड़े गहन (दिवः) द्युलोक से (आ, निः, अधुक्षत) भली-भाँति दोहन किया गया है (इन्द्रं, अभि) जो कर्मयोगी को लक्ष्य रखकर (जायमानं) विद्यमान है, उस परमात्मा की उपासक लोग (सं, अस्वरन्) भले प्रकार स्तुति करते हैं ॥८॥
भावार्थ
द्युलोक का अमृत परमात्मा को इस अभिप्राय से कथन किया गया है कि “पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि” ऋग्. १०।९०।३। इस मन्त्र में यह वर्णन किया है कि यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उसके एकदेश में है और अनन्त परमात्मा अमृतरूप से द्युलोक में विस्तृत हो रहा है अर्थात् उसका अमृतस्वरूप अनन्त नभोमण्डल में सर्वत्र परिपूर्ण हो रहा है, ऐसे सर्वव्यापक परमात्मा की उपासक लोग स्तुति करते हैं ॥८॥
विषय
पीयूषं - पूर्व्यम् उक्थ्मम्
पदार्थ
(दिवः) = ज्ञान ज्योति से दीप्त होनेवाले पुरुष [द्युति] अथवा वासनाओं को जीतने की कामना वाले पुरुष विजिगीष (दिवः) = ज्ञान के (महः गाहात्) = महान् आलोडन से, अर्थात् गम्भीर स्वाध्याय के द्वारा, उस सोम को (आ निरधुक्षत) = समन्तात् अपने अन्दर प्रपूरित करते हैं, (यत्) = जो (पीयूषम्) = अमृत है, हमें रोगों से मरने नहीं देता । (पूर्व्यम्) = हमारा पालन व पूरण करने वालों में उत्तम है। (उक्थ्यम्) = जो प्रशंसनीय व स्तुत्य है । सोमरक्षण के लिये सर्वोत्तम उपाय यही है कि हम अपने अतिरिक्त समय का विनियोग स्वाध्याय, गम्भीर अध्ययन में ही करें। ये स्वाध्यायशील पुरुष (इन्द्रं अभि) = जितेन्द्रिय पुरुष का लक्ष्य करके (जायमानम्) = प्रादुर्भूत होते हुए सोम को (समस्वरन्) = स्तुत करते हैं, इसके गुणों का प्रत्यापन करते हैं। इसके गुणों का स्मरण ही उन्हें इसके रक्षण के लिये रुचि वाला बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण का उपाय 'गम्भीर अध्ययन में प्रवृत्ति' ही है। यह हमें रोगों से आक्रान्त नहीं होने देता, पूर्ति को करता है और जितेन्द्रिय पुरुष की शक्तियों का विकास करता है ।
विषय
प्रभु-कृपा से प्रभु की प्राप्ति।
भावार्थ
(दिवः) ज्ञानमय, प्रकाशमय प्रभु का (पीयूषं) पान करने योग्य (यत् पूर्व्यं उक्थ्यं) जो पूर्व विद्वानों वा प्रभु द्वारा, पूर्ण उपदिष्ट प्रशंसनीय ज्ञान है उसको (दिवः) उसी तेजोमय (महः गाहात्) महान् गंभीर प्रभु से वे (निर् अधुक्षन्) प्राप्त करते हैं। (जायमानं) हृदय में प्रकट होने वाले (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर को लक्ष्य कर (सम् अस्वरन्) उसी की स्तुति करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्र्यरुणत्रसदस्यू ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, १२ निचृदनुष्टुप्। ३ विराडनुष्टुप्। १०, ११ अनुष्टुप्। ४, ७,८ विराडुबृहती। ५, ६ पादनिचृद् बृहती। ९ बृहती॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
That nectar of divinity, eternal and adorable, which the ancient sages distilled from the mighty great and infinite heaven of light, and which they perceived rising for the soul while they sang in adoration, that same nectar, O Soma, may shower on us too, we pray.
मराठी (1)
भावार्थ
द्युलोकाचे अमृत परमेश्वराला या अभिप्रायाने कथन केलेले आहे की, ‘‘पादोऽस्य विश्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि’’ ऋग्वेद १०।९०।३ हे संपूर्ण ब्रह्मांड त्याच्या एकदेशात आहे व अनंत परमात्मा अमृतरूपाने द्युलोकात विस्तृत होत आहे. अर्थात्, त्याचे अमृतस्वरूप अनंत नभोमंडलात सर्वत्र परिपूर्ण होत आहे. अशा सर्वव्यापक परमात्म्याची उपासक लोक स्तुती करतात. ॥८॥
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