अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 17
ऋषिः - अथर्वा
देवता - शतौदना (गौः)
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शतौदनागौ सूक्त
64
यस्ते॑ प्ला॒शिर्यो व॑नि॒ष्ठुर्यौ कु॒क्षी यच्च॒ चर्म॑ ते। आ॒मिक्षां॑ दुह्रतां दा॒त्रे क्षी॒रं स॒र्पिरथो॒ मधु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ते॒ । प्ला॒शि: । य: । व॒नि॒ष्ठु: । यौ । कु॒क्षी इति॑ । यत् । च॒ । चर्म॑ । ते॒ । अ॒मिक्षा॑म् । दु॒ह्र॒ता॒म् । दा॒त्रे । क्षी॒रम् । स॒र्पि:। अथो॒ इति॑ । मधु॑ ॥९.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते प्लाशिर्यो वनिष्ठुर्यौ कुक्षी यच्च चर्म ते। आमिक्षां दुह्रतां दात्रे क्षीरं सर्पिरथो मधु ॥
स्वर रहित पद पाठय: । ते । प्लाशि: । य: । वनिष्ठु: । यौ । कुक्षी इति । यत् । च । चर्म । ते । अमिक्षाम् । दुह्रताम् । दात्रे । क्षीरम् । सर्पि:। अथो इति । मधु ॥९.१७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो (ते) तेरी (प्लाशिः) प्लाशि [अन्न की आधार आँत], (यः) जो (वनिष्ठुः) [अन्न, रक्त आदि बाँटनेवाली आँत], (यौ) जो (कुक्षी) दो कोखें (च) और (यत्) जो (ते) तेरा (चर्म) चर्म है, वे सब (आमिक्षाम्) आमिक्षा ...... म० १३ ॥१७॥
भावार्थ
मन्त्र १३ के समान है ॥१७॥
टिप्पणी
१७−(प्लाशिः) अ० ९।७।१२। अन्नाधार आन्त्रविशेषः (वनिष्ठुः) अ० ९।७।१२। अन्नरक्तादिसंभाजकं स्थूलान्त्रम् (कुक्षी) उदरपार्श्वौ। अन्यत् स्पष्टम् ॥
विषय
आमिक्षा, क्षीर, सर्पि, मधु
पदार्थ
१. हे वेदधेनो! (यत् ते शिर:) = जो तेरा सिर है, (यत् ते मुखम्) = जो तेरा मुख है, (यौ कर्णौ) = जो कान हैं, (ये च ते हनू) = और जो तेरे जबड़े हैं। इसी प्रकार (यौ ते ओष्ठौ) = जो तेरे ओष्ठ हैं, ये नासिके जो नासाछिद्र हैं, (ये शङ्गे) = जो सींग हैं, (ये च ते अक्षिणी) = जो तेरी आँखें हैं। (यत् ते क्लोमा) = जो तेरा फेफड़ा है (यत् हृदयम्) = जो हृदय है, (सहकण्ठिका पुरीतत्) = कण्ठ के साथ मल की बड़ी आँत है, (यत् ते यकृत्) = जो तेरा कलेजा है, (ये मतस्ने) = जो गुर्दे हैं, (यत् आन्त्रम्) = जो आँत है, (याः च ते गुदा) = और जो तेरी मलत्याग करनेवाली नाडियाँ हैं। (यः ते प्लाशि:) = जो तेरी अन्न की आधारभूत आँत है, (य: वनिष्ठुः) = जो अन्त:रक्त को बाँटनेवाली आँत है, (यौ कक्षी) = जो कुक्षिप्रदेश हैं, (यत् च ते चर्म) = और जो तेरी चमड़ी है, २. ये सब-के-सब अवयव अर्थात् भिन्न-भिन्न लोक-लोकान्तरों व पदार्थों का ज्ञान (दात्रे) = तेरे प्रति अपने को देनेवाले के लिए [दादाने] वासनाओं का विनाश करनेवाले के लिए [दाप लवने] और इसप्रकार अपने जीवन को शुद्ध बनानेवाले के लिए [दैप शोधने] (आमिक्षाम्) = [तसे पयसि दध्यानयति सा वैश्वदेवी आमिक्षा भवति] गर्म दूध में दही के मिश्रण से उत्पन्न पदार्थ को (क्षीरः सर्पिः अथो मधु) = दूध, घृत व शहद को (दुह्रताम्) = दूहें-प्राप्त कराएं।
भावार्थ
वेदज्ञान हमारे लिए 'आमिक्षा-सर्पि, क्षीर व मधु' को प्राप्त कराता है, अर्थात् हमें इनके प्रयोग के लिए प्रेरित करता है।
भाषार्थ
(यः) जो (ते) तेरा (प्लाशिः) मांस (Flesh) है (यः) जो (वनिष्ठुः) बड़ी आन्त का अन्तिम किनारा है, (यौ) जो (कुक्षी) दो कोखें, (यत् च) और जो (ते) तेरा (चर्म) चमड़ा है, वे (दात्रे) दाता के लिये आमिक्षा, क्षीर, सर्पिः, तथा मधु (दुह्रताम्) प्रदान करें।
टिप्पणी
[प्लाशयः= पर्वताः; वनिष्ठुः= इरा (अन्नः) इरा अन्ननाम (निघं० २। ७); कृक्षिः=क्षुत् [भूख] (अथर्व० ९।१२(७)१२)। चर्म= विश्वव्यचाः। (९।१२(७)१२)। ये ब्रह्माण्डगौ के अवयव है]।
विषय
‘शतौदना’ नाम प्रजापति की शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(ये ते प्लाशिः) जो तेरी पिलही है (यः वनिष्ठुः) जो तेरा गुदा भाग है (यौ कुक्षी) जो दो कोख हैं (यत् च चर्म ते) और जो तेरा चर्म है,
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता शतोदना देवता। १ त्रिष्टुप्, २- ११, १३-२४ अनुष्टुभः, १२ पथ्यापंक्तिः, २५ द्व्युष्णिग्गर्भा अनुष्टुप्, २६ पञ्चपदा बृहत्यनुष्टुप् उष्णिग्गर्भा जगती, २७ पञ्चपदा अतिजगत्यनुष्टुब् गर्भा शक्वरी। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Shataudana Cow
Meaning
Let the rectum and omentum, the belly and the skin yield curd and cheese, milk, ghrta and the honey sweets of life’s nourishments for the generous giver.
Translation
May your this large intestine (plasih) this rectum (vanisthuh) these two paunches (kuksī) and your this skin, yield to your donor mingled curd, milk, melted butter and honey as well.
Translation
Let the rectum and omentum of it and let its belly’s hollow and let its skin pour Amiksha and sweet milk for the giver.
Translation
Let thy spleen, rectum, thy belly's bellows; and thy skin, grant for a charitably disposed person, curd, milk, butter and the knowledge of God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१७−(प्लाशिः) अ० ९।७।१२। अन्नाधार आन्त्रविशेषः (वनिष्ठुः) अ० ९।७।१२। अन्नरक्तादिसंभाजकं स्थूलान्त्रम् (कुक्षी) उदरपार्श्वौ। अन्यत् स्पष्टम् ॥
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