अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 26
ऋषिः - अथर्वा
देवता - शतौदना (गौः)
छन्दः - पञ्चपदा बृहत्यनुष्टुबुष्णिग्गर्भा जगती
सूक्तम् - शतौदनागौ सूक्त
81
उ॒लूख॑ले॒ मुस॑ले॒ यश्च॒ चर्म॑णि॒ यो वा॒ शूर्पे॑ तण्डु॒लः कणः॑। यं वा॒ वातो॑ मात॒रिश्वा॒ पव॑मानो म॒माथा॒ग्निष्टद्धोता॒ सुहु॑तं कृणोतु ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒लूख॑ले । मुस॑ले । य: । च॒ । चर्म॑णि । य: । वा॒ । शूर्पे॑ । त॒ण्डु॒ल: । कण॑: । यम् । वा॒ । वात॑: । मा॒त॒रिश्वा॑ । पव॑मान: । म॒माथ॑ । अ॒ग्नि: । तत् । होता॑ । सुऽहु॑तम् । कृ॒णो॒तु॒ ॥९.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
उलूखले मुसले यश्च चर्मणि यो वा शूर्पे तण्डुलः कणः। यं वा वातो मातरिश्वा पवमानो ममाथाग्निष्टद्धोता सुहुतं कृणोतु ॥
स्वर रहित पद पाठउलूखले । मुसले । य: । च । चर्मणि । य: । वा । शूर्पे । तण्डुल: । कण: । यम् । वा । वात: । मातरिश्वा । पवमान: । ममाथ । अग्नि: । तत् । होता । सुऽहुतम् । कृणोतु ॥९.२६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो (तण्डुलः) चावल [वा] (कणः) कनी [चावल का टुकड़ा] (उलूखले) ओखली में, (मुसले) मूसल में (च) और (चर्मणि) चर्म [मृग छाला वा बाघम्बर] में (वा) अथवा (यः) जो (शूर्पे) सूप में है, (वा) अथवा (यम्) जिसको (मातरिश्वा) आकाश में चलनेवाले (पवमानः) शोधनेवाले (वातः) वायु ने (ममाथ) मथा था, (होता) दाता, (अग्निः) सर्वव्यापक परमेश्वर (तत्) उस को (सुहुतम्) धार्मिक रीति से स्वीकार किया हुआ (कृणोतु) करे ॥२६॥
भावार्थ
जैसे मनुष्य अन्न को एक-एक बीज करके अनेक प्रकार कूट-फटक कर उपयोगी बनाते हैं, वैसे ही मनुष्य वेदवाणी को ब्रह्मचर्य आदि अनेक तप से प्राप्त करके परमेश्वर के आश्रय से संसार में उपकारी बनें ॥२६॥ इस मन्त्र का अन्तिम पाद अथर्व० ६।७१।२। में आ चुका है ॥
टिप्पणी
२६−(उलूखले) अ० ९।६(१)।१५। धान्यादिकण्डनसाधने (मुसले) अ० ६।(१)।१५। धान्यादिखण्डनसाधने (चर्मणि) आजनं चर्म कृतिः स्त्री-इत्यमरः १७।४७। अजिने। मृगचर्मणि। व्याघ्रचर्मणि (शूर्पे) अ० ९।६(१)।१६। धान्यस्फोटकयन्त्रे (तण्डुलः) सानसिवर्णसिपर्णसितण्डुला०। उ० ४।१७। तडि आघाते-उलच्। यद्वा, वृञ्लुटितनितडिभ्य उलच् तण्डश्च। उ० ५।९। वृञादिभ्यः-उलच्, सर्वेषां तण्डादेशश्च। तुषरहितो व्रीहिः (कणः) धान्यादेरतिसूक्ष्मांशः (यम्) (वा) (वातः) वायुः (मातरिश्वा) अ० ५।१०।८। आकाशगमनः (पवमानः) संशोधकः (ममाथ) मथितवान् (अग्निः) सर्वव्यापकः परमेश्वरः (तत्) (होता) दाता (सुहुतम्) सुष्ठु स्वीकृतम् (कृणोतु) करोतु ॥
विषय
एक-एक कण यज्ञाप्ति हो
पदार्थ
१. (यः तण्डुलः कण:) = जो चावल का कण (उलूखले) = ऊखल में, (मुसले) = मूसल में (च) = और (य: चर्मणि) = मृगछाला पर [चर्मासन पर], (यः वा शूर्पे) = या जो छाज में है, (वा) = अथवा (यम्) = जिसको (मातरिश्वा) = अन्तरिक्ष में गतिवाले (पवमानः) = पवित्र करनेवाले (वात:) = वायु ने (ममाथ) = मथा है-विलोडित किया [Turn up and down] (तत्) = उसे यह होता-[यज्ञाद् भवति पर्जन्यः, पर्जन्यादन्नसम्भवः] सब अन्नों को पर्जन्यों द्वारा प्राप्त करानेवाला (अग्निः) = यज्ञाग्नि (सुहृतं कृणोतु) = सम्यक्हुत करे।
भावार्थ
हम एक-एक तण्डुल-कण [धान्य-कण] को यज्ञ के लिए अर्पित करें। सदा यज्ञशेष खानेवाले ही बनें।
भाषार्थ
(उलूखले) ओखली में, (मुसले) मुसल में,(यः च) और जो (चर्मणि) मृगछाल पर (वा) या (यः) जो (शूर्पे) छाज में, (तण्डुलः कणः) तण्डुल और तण्डुल के कण अर्थात् टूटे-तण्डुल है, (वा) या (यम्) जिसे कि (पवमानः) बहती हुई (मातरिश्वा वातः) अन्तरिक्ष में गति करती हुई तथा फैली हुई वायु ने (ममाथ) मथ डाला है, (तत्) उस सब को (होता अग्नि) दाता अग्नि (सुहुतम्) उत्तम-आहुत (कृणोतु) करे।
टिप्पणी
[मृगछाल पर ओखली को रखकर, मुसल द्वारा धान्य को कूटकर, नण्डुल प्राप्त किया जाता है। इस कूटे धान्य को छाज द्वारा, वहती वायु में छान कर, तुष पृथक् करके तण्डुल और तण्डुल कण प्राप्त किये जाते हैं। ये यज्ञार्थ होते हैं। इन्हें अग्नि पर पका कर, पके चावलों की आहुतियां यज्ञियाग्नि में, तथा अध्यात्मगुरुओं की जाठराग्नि में दी जाती है। इधर-उधर बिखरे तण्डुलों और कणों को एकत्र कर इन्हें पकाया जाना चाहिए। यज्ञार्थ-गृहीत धान्यों का काई तण्डुल या कण व्यर्थ नहीं होना चाहिए। इन सबको अग्नि पकाकर सुहुत करती है। मानो यह भात अग्नि ने होता अर्थात् दाता बनकर प्रदान किया है। होता=हु दानादनयोः। आदाने चेत्येके (जुहोत्यादिः)। इस परिपक्व भात में से यज्ञियाग्नि में आहुतियां दे कर,शेष द्वारा अध्यात्म-गुरुओं, का अन्न प्रदान द्वारा सत्कार करने का निर्देश मन्त्र में हुआ है।]
विषय
‘शतौदना’ नाम प्रजापति की शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(यः च तण्डुलः कणः) जो तण्डुल या चावलों का कण (उलूखले) ओखली में और (मुसले) मुसल में है और (यः च चर्मणि यो वा शूर्पे) और जो दाने नीचे बिछे चर्म में और जो शूर्प या छाज में हैं। (यं वा) और जिसको (वातः) प्रबल वेगवान् (मातरिश्वा) वायु (पवमानः) तुषों को कण से अलग करता हुआ (ममाथ) एक तरफ़ गिरा देता है (होता अग्निः) स्वीकार करने वाला अग्नि (तत्) उस कण को (सुहुतुं कृणोतु) सुहुत, उत्तम आहुति रूप में स्वीकार (कृणोतु) करे। पृथ्वी क्षेत्र भूमि आदि के परिपक्व हो जाने पर खेतों से धान काट कर ऊखल मूसल से कूट कर, उन्हें वायु, छाज द्वारा साफ करके उनसे यज्ञ करे और पुनः उनका भोजन करे यह वेद का उपदेश है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता शतोदना देवता। १ त्रिष्टुप्, २- ११, १३-२४ अनुष्टुभः, १२ पथ्यापंक्तिः, २५ द्व्युष्णिग्गर्भा अनुष्टुप्, २६ पञ्चपदा बृहत्यनुष्टुप् उष्णिग्गर्भा जगती, २७ पञ्चपदा अतिजगत्यनुष्टुब् गर्भा शक्वरी। सप्तविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Shataudana Cow
Meaning
Whatever grains or particles of grains of rice are there on or in the mortar-pestle, whatever on the deer skin, whatever in the winnowing basket, and whatever the purifying, sanctifying wind blowing in the sky has shaken and sifted, may the holy fire of yajna accept all that as sacred offering.
Translation
The grain of rice, which has been in the mortar, or on the I pastle, or on the hide, or which has been in the winnowing basket, or which the purifier wind has shaken off, may the adorable Lord, the Cosmic sacrificer, make that ( grain of rice), a good offering (ulūkhala = mortar; musala= pestle; carma= hide; Surpa= winnowing-basket)
Translation
Let consuming fire of the yajna accept as oblation the bit of rice which is in mortar, which is on pestle, which is on skin or in the winnowing-basket and which the wind purifying has sifted out.
Translation
Each grain of rice in mortar or on pestle, all on the skin or in the winnowing basket, whatever purifying, powerful wind, hath sifted; let the Gracious God make of it acceptable oblation.
Footnote
Sifted: Separated the husk from the corn.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२६−(उलूखले) अ० ९।६(१)।१५। धान्यादिकण्डनसाधने (मुसले) अ० ६।(१)।१५। धान्यादिखण्डनसाधने (चर्मणि) आजनं चर्म कृतिः स्त्री-इत्यमरः १७।४७। अजिने। मृगचर्मणि। व्याघ्रचर्मणि (शूर्पे) अ० ९।६(१)।१६। धान्यस्फोटकयन्त्रे (तण्डुलः) सानसिवर्णसिपर्णसितण्डुला०। उ० ४।१७। तडि आघाते-उलच्। यद्वा, वृञ्लुटितनितडिभ्य उलच् तण्डश्च। उ० ५।९। वृञादिभ्यः-उलच्, सर्वेषां तण्डादेशश्च। तुषरहितो व्रीहिः (कणः) धान्यादेरतिसूक्ष्मांशः (यम्) (वा) (वातः) वायुः (मातरिश्वा) अ० ५।१०।८। आकाशगमनः (पवमानः) संशोधकः (ममाथ) मथितवान् (अग्निः) सर्वव्यापकः परमेश्वरः (तत्) (होता) दाता (सुहुतम्) सुष्ठु स्वीकृतम् (कृणोतु) करोतु ॥
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