अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 17
ऋषिः - शन्तातिः
देवता - चन्द्रमा अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
58
ऋ॒तून्ब्रू॑म ऋतु॒पती॑नार्त॒वानु॒त हा॑य॒नान्। समाः॑ संवत्स॒रान्मासां॒स्ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तून् । ब्रू॒म॒: । ऋ॒तु॒ऽपती॑न् । आ॒र्त॒वान् । उ॒त । हा॒य॒नान् । समा॑: । स॒म्ऽव॒त्स॒रान् । मासा॑न् । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥८.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतून्ब्रूम ऋतुपतीनार्तवानुत हायनान्। समाः संवत्सरान्मासांस्ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठऋतून् । ब्रूम: । ऋतुऽपतीन् । आर्तवान् । उत । हायनान् । समा: । सम्ऽवत्सरान् । मासान् । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥८.१७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
कष्ट हटाने के लिये उपदेश।
पदार्थ
(ऋतून्) ऋतुओं, (ऋतुपतीन्) ऋतुओं के स्वामियों [सूर्य, वायु आदिकों], (आर्तवान्) ऋतुओं से उत्पन्न होनेवाले (हायनान्) पाने योग्य चावल आदि पदार्थों, (संवत्सरान्) बरसों, (मासान्) महीनों (उत) और (समाः) सब अनुकूल क्रियाओं का (ब्रूमः) हम कथन करते हैं, (ते) वे (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चन्तु) छुड़ावें ॥१७॥
भावार्थ
ज्ञानी पुरुष ज्योतिष आदि विद्या से वसन्त आदि ऋतुओं, और उनके कारणों सूर्य, चन्द्र, वायु, पृथिवी आदि और उनकी अनुकूल क्रियाओं से सब काल में उपकार लेकर आनन्द पावें ॥१७॥यह मन्त्र बहुत कुछ-अथर्व० ३।१०।९। से मिलता है ॥
टिप्पणी
१७−(ऋतून्) अ० ३।१०।९। वसन्तादिकालान् (ऋतुपतीन्) सूर्यचन्द्रपृथिवीवाय्वादीन् देवान् (आर्तवान्) अ० ३।१०।९। ऋतूद्भवान् (उत) अपि च (हायनान्) अ० ३।१०।९। ओहाङ् गतौ−ण्युट्। प्राप्तव्यान् व्रीह्याद्यान् भोज्यपदार्थान् (समाः) अ० २।६।१। अनुकूलाः क्रियाः (संवत्सरान्) वर्षकालान् (मासान्) चैत्रादिकालान्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
ऋतुचर्या का पालन
पदार्थ
१. (ऋतून ब्रूम:) = हम ऋतुओं का विचारपूर्वक प्रतिपादन करते हैं। (ऋतुपतीन्) = ऋतुओं के पतियों [वसन्त के अधिपति 'वसुओं', ग्रीष्म के 'रुद्र', वर्षा के 'आदित्य', शरत् के 'ऋतु' तथा हेमन्तशिशिर के 'मरुतों'] का स्तवन करते हैं। (आर्तवान्) = इन ऋतुओं में होनेवाले पदार्थों का स्तवन करते हैं। (हायनान् समाः संवत्सरान्) = चान्द्र, सौर, सावन भेद से त्रिविध संवत्सरों का तथा (मासान्) = मासों का विचार करते हैं। इनका विचार करते हुए हम ऋतुचर्या का ठीक से पालन करते हैं। (ते) = वे सब (न:) = हमें (अंहसः मुञ्चन्तु) = कष्ट व पाप से मुक्त करें।
भावार्थ
ऋतुचर्या का ठीक प्रकार पालन करते हुए हम कष्टों व पापों से ऊपर उठे।
भाषार्थ
(ऋतुन) ऋतुओं, (ऋतुपतीन्) ऋतुओं के पतियों, (आर्तवान्) ऋतु समूहों अर्थात् अयनों, (हायनान्) अयनों से बने (संवत्सरान्) सौर वर्षों, (समाः) चान्द्र वर्षो, (मासान्) सौर तथा चान्द्रमासों का (ब्रूमः) हम कथन करते हैं, - (ते) वे सब [हे परमेश्वर !] (नः) हमें (अहंसः) हनन से (मुञ्चन्तु) मुक्त करें, हमारा हनन न करें।
टिप्पणी
[ऋतून्= वसन्त आदि। १ऋतुपतीन्= ऋतुओं का निर्माण करने वाले चन्द्र तथा सूर्य। आर्तवान् =ऋतुओं से बने छः छः मासों के अयन, उत्तरायण तथा दक्षिणायन। हायनान् = सायनान्= अयनों वाले सौर वर्ष, संवत्सर। (समाः) = "मा" अर्थात् चन्द्रमा की गतियों द्वारा निर्मित चान्द्र वर्ष। मासान् = सौर तथा चान्द्रमास। ऋतु आदि के रोगों से आशंकित हनन से मुक्ति की प्रार्थना मन्त्र में अभिप्रेत है]। [१. स विश्वा प्रति चाक्लृप ऋतूंरुत्सृजते वशी। यज्ञस्य वय उत्तिरन् ॥ (अथर्व० ६।३६।२) में चन्द्रमा को भी ऋतुस्रष्टा कहा है। तथा "ऋतुरन्यो विदधज्जायसे नवः ॥" (अ० १४।१।२३) में चन्द्रमा को भी ऋतुस्रष्टा कहा है। सूर्य और चन्द्र दोनों ऋतुपति हैं।]
विषय
पाप से मुक्त होने का उपाय।
भावार्थ
(ऋतून्) ऋतुओं (ऋतुपतीन्) ऋतुपतियों, (आर्त्तवान्) ऋतु पर होने वाले विशेष वृक्ष आदि पदार्थों और घटनाओं और उन (हायनान्) हायनों, अयन के परिवर्तन कालों का, (समाः) समान दिन रात्रि वाले कालों का और समाओं और (संवत्सरान्) संवत्सरों का (ब्रूमः) वर्णन करते हैं (ते नः) वे हमें (अंहसः मुञ्चन्तु) पाप से मुक्त करें। ‘हायन, समा, संवत्सर’—ये वर्ष के ही पर्याय हैं। परन्तु इन शब्दों का प्रयोग चान्द्र, सौर और प्रायः सावन भेद से किया जाता है। अतः उन तीनों का एक साथ ग्रहण किया गया है।
टिप्पणी
‘ऋतुपति’—वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद् और हेमन्त, शिशिर इनके क्रम से वसु, रुद्र, आदित्य, ऋभु और मरुद्गण ऋतुपति हैं।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंतातिर्ऋषिः। चन्द्रमा उत मन्त्रोक्ता देवता। २३ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, १–१७, १९-२२ अनुष्टुभः, १८ पथ्यापंक्तिः। त्रयोविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Sin and Distress
Meaning
We address the seasons, sun, planets, winds and other atmospheric conditions which affect the seasons, seasonal conditions which affect life, exits and returns of the years, years, year cycles and months, and we pray we may be free from sin, suffering and disease.
Translation
The seasons we-address, the lords of the seasons, the year divisions and the winters, the summers, the years, the months; let them: free us from distress.
Translation
We describe the where—abouts of all the seasons, the masters of seasons like fire etc; growth caused in seasons, the year and the sections of the year, months and half—months. Let them make us free from evil ideas.
Translation
We speak to Seasons, Season-Lords, trees that grow in different seasons, Winters, summers, years and months: may they deliver us from sin.
Footnote
Season-lords: Sun, Moon, Earth, Air.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१७−(ऋतून्) अ० ३।१०।९। वसन्तादिकालान् (ऋतुपतीन्) सूर्यचन्द्रपृथिवीवाय्वादीन् देवान् (आर्तवान्) अ० ३।१०।९। ऋतूद्भवान् (उत) अपि च (हायनान्) अ० ३।१०।९। ओहाङ् गतौ−ण्युट्। प्राप्तव्यान् व्रीह्याद्यान् भोज्यपदार्थान् (समाः) अ० २।६।१। अनुकूलाः क्रियाः (संवत्सरान्) वर्षकालान् (मासान्) चैत्रादिकालान्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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