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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 22
    ऋषिः - शन्तातिः देवता - चन्द्रमा अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
    36

    या दे॒वीः पञ्च॑ प्र॒दिशो॒ ये दे॒वा द्वाद॑श॒र्तवः॑। सं॑वत्स॒रस्य॒ ये दंष्ट्रा॒स्ते नः॑ सन्तु॒ सदा॑ शि॒वाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या: । दे॒वी: । पञ्च॑ । प्र॒ऽदिश॑: । ये । दे॒वा: । द्वाद॑श । ऋ॒तव॑: । स॒म्ऽव॒त्स॒रस्य॑ । ये । दंष्ट्रा॑ । ते । न॒: । स॒न्तु॒ । सदा॑ । शि॒वा: ॥८.२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या देवीः पञ्च प्रदिशो ये देवा द्वादशर्तवः। संवत्सरस्य ये दंष्ट्रास्ते नः सन्तु सदा शिवाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या: । देवी: । पञ्च । प्रऽदिश: । ये । देवा: । द्वादश । ऋतव: । सम्ऽवत्सरस्य । ये । दंष्ट्रा । ते । न: । सन्तु । सदा । शिवा: ॥८.२२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 6; मन्त्र » 22
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    कष्ट हटाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (याः) जो (देवीः) उत्तम गुणवाली (पञ्च) पाँच [पूर्वादि चार और एक ऊपर-नीचे की] (प्रदिशः) बड़ी दिशाएँ और (ये) जो (देवाः) उत्तम गुणवाले (द्वादश) बारह [मन, बुद्धि सहित पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रिय रूप] (ऋतवः) ऋतुएँ [चलनेवाले पदार्थ] हैं और (संवत्सरस्य) वर्ष काल के (ये) जो (दंष्ट्राः) डँसनेवाले गुण हैं, (ते) वे (नः) हमारे लिये (सदा) सदा (शिवाः) कल्याणकारी (सन्तु) होवें ॥२२॥

    भावार्थ

    मनुष्य सब स्थानों और सब कालों में मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा शुभ काम करके विघ्नों से बचे ॥२२॥

    टिप्पणी

    २२−(याः) (देवीः) दिव्यगुणयुक्ताः (पञ्च) पञ्चसंख्याकाः। ऊर्ध्वनीचदिक्सहिताः प्राच्याद्यः (प्रदिशः) प्रधानदिशः (ये) (देवाः) दिव्यगुणयुक्ताः (द्वादश) अ० ४।११।११। मनोबुद्धिसहिता दशेन्द्रियरूपाः (ऋतवः) गमनशीलाः पदार्थाः (संवत्सरस्य) वर्षकालस्य (ये) (दंष्ट्राः) सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। दंश दंशने−ष्ट्रन्। दंशनगुणाः (ते) अन्यद्गतम्-म० ९ ॥

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    विषय

    दिशाएँ, ऋतुएँ व संवत्सर की दंष्ट्राएँ

    पदार्थ

    १. (या:) = जो (देवी:) = दिव्य-गुणों से युक्त (पञ्च) = [पचि विस्तारे] विस्तृत (प्रदिश:) = प्रकृष्ट दिशाएँ हैं और (ये) = जो (देवा:) = दिव्य गुणयुक्त (द्वादश ऋतव:) = ['मधुश्च माधवश्व'-तै० आ० १।४।१।४।१] दो-दो मासों से बनी हुई. अतएव छह होती हुई भी बारह मासोवाली ऋतुएँ हैं और (ये) = जो (संवत्सरस्य दंष्ट्रा) = आश्विन मास के अन्तिम आठ व कार्तिक मास के सारे दिन वर्ष रूप की यमदंष्ट्रा हैं [इन दिनों में रोग अधिक होते हैं, अतः इन्हें यमदंष्ट्रा कहा गया है], (ते) = वे सब (न:) = हमारे लिए (सदा) = सदा (शिवा:) = कल्याणकर (सन्तु) = हों।

    भावार्थ

    सब दिशाएँ, ऋतुएँ व वर्ष के यमदंष्ट्रा नामक काल भी हमारे लिए कल्याणकर हों

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    भाषार्थ

    (या) जो (देवीः) दिव्य (पञ्चदिशः) विस्तृत दिशाएं हैं, (ये च) और जो (देवाः) दिव्य (द्वादशर्तवः) १२ मास हैं, तथा (संवत्सरस्य) सौरवर्ष की (ये) जो दाढ़े हैं, (ते) वे (हे परमेश्वर!) (नः) हमें (सदा शिवाः सन्तु) सदा कल्याणकारी हों।

    टिप्पणी

    [पञ्च= पचि विस्तारे। यथा प्रपञ्च, पञ्चास्य अर्थात् विस्तृत मुखवाला शेर। दिशाएं और १२ मास तो देवीः और देव हैं, अतः कल्याणकारी हैं। परमेश्वर से प्रार्थना की गई है कि ये सदा दिव्य रूप रहकर हमारे लिये कल्याणकारी हों। तथा संवत्सरकाल में जो दंशनकारी सर्प, वृश्चिक, मच्छर आदि हों वे भी हमारे लिये कष्टप्रद न हों। ऋतवः = मासाः, यथा "मधुश्च माधवश्च वासन्तिकावृतू" (यजु० १३-२५) में ऋतुपद मासवाचक है।]

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    विषय

    पाप से मुक्त होने का उपाय।

    भावार्थ

    (याः) जो (देवीः) दिव्यगुणयुक्त, प्रकाशयुक्त (पञ्च) पांच (प्रदिशः) मुख्य दिशाओं के समान गुरु आदि पांच शिक्षक हैं और (ये देवाः) जो देव स्वभाव के (द्वादश ऋतवः) बारह ऋतु के मधु माधव आदि मास हैं और (ये) जो (संवत्सरस्य दंष्ट्राः) संवत्सर की दाढ़ों के समान दिन और रात में आने वाले जीवन के भयोत्पादक अवसर हैं (ते) वे (नः) हमें (सदा) सदा (शिवाः सन्तु) कल्याणकारी हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंतातिर्ऋषिः। चन्द्रमा उत मन्त्रोक्ता देवता। २३ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, १–१७, १९-२२ अनुष्टुभः, १८ पथ्यापंक्तिः। त्रयोविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Sin and Distress

    Meaning

    Whatever divine forces of nature’s elements there are working in the vast quarters of space, whatever divine and refulgent dynamic processes are operative in the flow of twelve months of the seasons’ cycle, and whatever catalytic forces of Bhava and Sharva there be of time in the cycle of years, we pray, they may be good and auspicious to us. That immortal sanative, i.e., immortal knowledge, for the achievement of ultimate freedom of Moksha, which Matali, cosmic intelligence that drives the cosmic chariot, inherently bears as received from the light of omniscience immanent in the chariot, that very immortal sanative of knowledge and enlightenment

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    Translation

    They that are the five divine directions, that are the twelve divine seasons, that are the fangs of the year; let them be ever propitious to us.

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    Translation

    Let the five shining quarters, and the twelve months of the seasons which are full of wondrous qualities, and those days and rights of year which are like its jaws make us free from disease.

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    Translation

    May the excellent five regions, nice twelve months, the jaws of the completed year, be gracious unto us.

    Footnote

    Five regions: North, East, South, West, Nadir or Zenith.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २२−(याः) (देवीः) दिव्यगुणयुक्ताः (पञ्च) पञ्चसंख्याकाः। ऊर्ध्वनीचदिक्सहिताः प्राच्याद्यः (प्रदिशः) प्रधानदिशः (ये) (देवाः) दिव्यगुणयुक्ताः (द्वादश) अ० ४।११।११। मनोबुद्धिसहिता दशेन्द्रियरूपाः (ऋतवः) गमनशीलाः पदार्थाः (संवत्सरस्य) वर्षकालस्य (ये) (दंष्ट्राः) सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। दंश दंशने−ष्ट्रन्। दंशनगुणाः (ते) अन्यद्गतम्-म० ९ ॥

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