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अथर्ववेद के काण्ड - 17 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 14
    ऋषिः - आदित्य देवता - पञ्चपदा शक्वरी छन्दः - ब्रह्मा सूक्तम् - अभ्युदयार्थप्रार्थना सूक्त
    45

    त्वामि॑न्द्र॒ब्रह्म॑णा व॒र्धय॑न्तः स॒त्त्रं नि षे॑दु॒रृष॑यो॒ नाध॑माना॒स्तवेद्वि॑ष्णोबहु॒धावी॒र्याणि। त्वं नः॑ पृणीहि प॒शुभि॑र्वि॒श्वरू॑पैः सु॒धायां॑ मा धेहिपर॒मे व्योमन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । इ॒न्द्र॒ । ब्रह्म॑णा । व॒र्धय॑न्त: । स॒त्त्रम् । नि । से॒दु॒: । ऋष॑य: । नाध॑माना: । तव॑ । इत् । वि॒ष्णो॒ इति॑ । ब॒हु॒ऽधा । वी॒र्या᳡णि । त्वम् । न॒: । पृ॒णी॒हि॒ । प॒शुऽभि॑: । वि॒श्वऽरू॑पै: । सु॒ऽधाया॑म् । मा॒ । धे॒हि॒ । प॒र॒मे । विऽओ॒मन् ॥१.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वामिन्द्रब्रह्मणा वर्धयन्तः सत्त्रं नि षेदुरृषयो नाधमानास्तवेद्विष्णोबहुधावीर्याणि। त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहिपरमे व्योमन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम् । इन्द्र । ब्रह्मणा । वर्धयन्त: । सत्त्रम् । नि । सेदु: । ऋषय: । नाधमाना: । तव । इत् । विष्णो इति । बहुऽधा । वीर्याणि । त्वम् । न: । पृणीहि । पशुऽभि: । विश्वऽरूपै: । सुऽधायाम् । मा । धेहि । परमे । विऽओमन् ॥१.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 17; सूक्त » 1; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आयु की बढ़ती के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [परम ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] (ब्रह्मणा) बढ़े हुए वेदज्ञान से (त्वाम्) तुझे (वर्धयन्तः) बढ़ाते हुए, (नाधमानाः) [मोक्षसुख] माँगते हुए (ऋषयः) ऋषि [वेदज्ञाता] लोग (सत्त्रम्) बैठक [वा यज्ञ] में (निषेदुः) बैठे हैं, (विष्णो) हेविष्णु ! [सर्वव्यापक परमेश्वर] (तव इत्) तेरे ही... [मन्त्र ६] ॥१४॥

    भावार्थ

    जैसे ऋषि लोग वेदज्ञान द्वारा जगदीश्वर की महिमा के ज्ञान से उन्नति करके संसार को सुख पहुँचातेहैं, वैसे ही सब मनुष्य परस्पर उपकार करें ॥१४॥

    टिप्पणी

    १४−(त्वाम्) परमात्मानम् (इन्द्र) (ब्रह्मणा) प्रवृद्धेन वेदज्ञानेन (वर्धयन्तः) उन्नयन्तः। स्तुवन्त इत्यर्थः (सत्त्रम्) षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु-त्रल्। स्थानम्। यज्ञम् (निषेदुः) निषण्णानियमेन स्थिता बभूवुः (ऋषयः) वेदवेत्तारः (नाधमानाः) मोक्षं याचमानाः। अन्यत्पूर्ववत् ॥

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    विषय

    प्रभु-प्राप्ति का मार्ग

    पदार्थ

    १.हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (ऋषयः) = तत्वद्रष्टा लोग (त्वाम्) = आपको (ब्रह्मणा) = ज्ञानपूर्वक उच्चारित स्तुति-वाणियों के द्वारा (वर्धयन्त:) = बढ़ाते हुए तथा (नाधमाना:) = आपकी प्राप्ति की कामना करते हुए (सत्र निषेदुः) = यज्ञों में आसीन होते हैं। २. हे विष्णो! आपके ही तो अनन्त पराक्रम हैं। शेष पूर्ववत्।

    भावार्थ

    प्रभु-प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि [क] हम ऋषि-तत्वद्रष्टा बनें, [ख] हममें प्रभु-प्राप्ति की प्रबल कामना हो, [ग] ज्ञानपूर्वक-स्तुति वाणियों का उच्चारण करते हुए हम अपने हृदयों में प्रभु को बढ़ाने के लिए यत्नशील हों, [घ] यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहें।

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवान् परमेश्वर ! (ब्रह्मणा) ब्रह्म प्रतिपादक वेद द्वारा (त्वाम्) तुझे अर्थात् तेरी महिमा को (वर्धयन्तः) बढ़ाते हुए, तथा (नाधमानाः) मोक्ष की याचना करते हुए (ऋषयः) ऋषि लोग, (सत्त्रं) दीर्घकालीन उपासनायज्ञ या योगयज्ञ में (निषेदुः) बैठे हैं। (तवेद् विष्णो) …..शेष अर्थ पूर्ववत् [मन्त्र ६]।

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    विषय

    अभ्युदय की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) इन्द्र परमेश्वर ! (त्वाम्) तुझको (ब्रह्मणा) ब्रह्म वेद से (वर्धयन्तः) बढ़ाते हुए सर्वत्र तेरी महिमा को गाते हुए, (नाधमानाः) प्रार्थना उपासना करते हुए (ऋषयः) ऋषि लोग (सत्रम्) स्वतन्त्र ज्ञान यज्ञ में (निषेदुः) विराजते हैं। (तव इन्द्र०) इत्यादि पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्माऋषिः। आदित्यो देवता। १ जगती १-८ त्र्यवसाना, २-५ अतिजगत्यः ६, ७, १९ अत्यष्टयः, ८, ११, १६ अतिधृतयः, ९ पञ्चपदा शक्वरी, १०, १३, १६, १८, १९, २४ त्र्यवसानाः, १० अष्टपदाधृतिः, १२ कृतिः, १३ प्रकृतिः, १४, १५ पञ्चपदे शक्कर्यौ, १७ पञ्चपदाविराडतिशक्वरी, १८ भुरिग् अष्टिः, २४ विराड् अत्यष्टिः, १, ५ द्विपदा, ६, ८, ११, १३, १६, १८, १९, २४ प्रपदाः, २० ककुप्, २७ उपरिष्टाद् बृहती, २२ अनुष्टुप्, २३ निचृद् बृहती (२२, २३ याजुष्यौद्वे द्विपदे), २५, २६ अनुष्टुप्, २७, ३०, जगत्यौ, २८, ३० त्रिष्टुभौ। त्रिंशदृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Indra, lord omnipotent, seers and sages praying to you for divine bliss sit through sessions of yajna and meditation, celebrating and exalting you with Vedic chant. O Vishnu, lord omnipotent and omnipresent, infinite are your powers and exploits. Pray bless us with the fulfilment of our earthly mission and, with universal forms of perception and vision, establish us in the nectar joy of immortality in the highest regions of Divinity.

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    Translation

    O resplendent Lord, exalting thee with prayer, imploring, seers have sat down (for) the holy session. O pervading Lord, manifold, indeed are your valours. May you enrich us with cattle of all sorts. May you put me in comfort and happiness in the highest heaven.

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    Translation

    O Almighty God, the seers praising you with the verses of great adoration and meditating upon you sit in the Yajna called Sathra-pervasiveness.

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    Translation

    O God, extolling Thee with Vedic verses, imploring for salvation, the sages are absorbed in the sacrifice (Yajna) of knowledge. Manifold are Thy great deeds, Thine, O God! Sate us with creatures of all forms and colors: set me in happiness in the loftiest position.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(त्वाम्) परमात्मानम् (इन्द्र) (ब्रह्मणा) प्रवृद्धेन वेदज्ञानेन (वर्धयन्तः) उन्नयन्तः। स्तुवन्त इत्यर्थः (सत्त्रम्) षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु-त्रल्। स्थानम्। यज्ञम् (निषेदुः) निषण्णानियमेन स्थिता बभूवुः (ऋषयः) वेदवेत्तारः (नाधमानाः) मोक्षं याचमानाः। अन्यत्पूर्ववत् ॥

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