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अथर्ववेद के काण्ड - 17 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 7
    ऋषिः - आदित्य देवता - त्र्यवसाना सप्तदात्यष्टि छन्दः - ब्रह्मा सूक्तम् - अभ्युदयार्थप्रार्थना सूक्त
    60

    उदि॒ह्युदि॑हिसूर्य॒ वर्च॑सा मा॒भ्युदि॑हि।यांश्च॒ पश्या॑मि॒ यांश्च॒ न तेषु॑ मा सुम॒तिंकृ॑धि॒ तवेद्वि॑ष्णो बहु॒धा वी॒र्याणि। त्वं नः॑ पृणीहि प॒शुभि॑र्वि॒श्वरू॑पैःसु॒धायां॑ मा धेहि पर॒मे व्योमन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । इ॒हि॒ । उत् । इ॒हि॒ । सू॒र्य॒ । वर्च॑सा । मा॒ । अ॒भि॒ऽउदि॑हि । यान् । च॒ । पश्या॑मि । यान्। च॒ । न । तेषु॑ । मा॒ ।सु॒ऽम॒तिम् । कृ॒धि॒ । तव॑ । इत् । वि॒ष्णो॒ इति॑ । ब॒हु॒ऽधा । वी॒र्या᳡णि । त्वम् । न॒: । पृ॒णी॒हि॒ । प॒शुऽभि॑: । वि॒श्वऽरू॑पै: । सु॒ऽधाया॑म् । मा॒ । धे॒हि॒ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् ॥१.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदिह्युदिहिसूर्य वर्चसा माभ्युदिहि।यांश्च पश्यामि यांश्च न तेषु मा सुमतिंकृधि तवेद्विष्णो बहुधा वीर्याणि। त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैःसुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । इहि । उत् । इहि । सूर्य । वर्चसा । मा । अभिऽउदिहि । यान् । च । पश्यामि । यान्। च । न । तेषु । मा ।सुऽमतिम् । कृधि । तव । इत् । विष्णो इति । बहुऽधा । वीर्याणि । त्वम् । न: । पृणीहि । पशुऽभि: । विश्वऽरूपै: । सुऽधायाम् । मा । धेहि । परमे । विऽओमन् ॥१.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 17; सूक्त » 1; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आयु की बढ़ती के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (सूर्य) हे सूर्य ! [सबके चलानेवाले परमेश्वर] (उत् इहि) तू उदय हो, (उत् इहि) तू उदय हो, (वर्चसा)प्रताप के साथ (मा) मुझ पर (अभ्युदिहि) उदय हो। (यान्) जिन [समीपस्थ प्राणियों]को (पश्यामि) मैं देखता हूँ (च च) और (यान्) जिन [दूरवालों] को (न) नहीं [देखताहूँ], (तेषु) उन पर (मा) मुझको (सुमतिम्) सुमतिवाला (कृधि) कर, (विष्णो) हेविष्णु ! [सर्वव्यापक परमेश्वर] (तव इत्) तेरे ही... [मन्त्र ६] ॥७॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमात्मा कोउपास्य देव समझकर सब समीपवाले और दूरवाले प्राणियों का उपकार करते रहें ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(यान्) समीपस्थान् प्राणिनः (च) (पश्यामि) चक्षुषा विषयीकरोमि (यान्)दूरस्थान् प्राणिनः (च) (न) निषेधे (मा) माम् (सुमतिम्) अनुग्रहबुद्धियुक्तम् (कृधि) कुरु। अन्यत् पूर्ववत्-म० ६ ॥

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    विषय

    सुधा व परम व्योम में धारण

    पदार्थ

    १. हे (सूर्य) = [सरते: सुवते] सबको गति देनेवाले व सबको प्रेरणा देनेवाले प्रभो! (उदिहि) = आप हमारे हृदयाकाश में उदित होइए। हम हृदयों में आपके प्रकाश को देखें। (वर्चसा मा अभ्युदिहि उदिहि) = वर्चस के हेतु से आप मेरी ओर उदित होइए। हृदय में आपका प्रादुर्भाव मुझे वर्चस्वी बनाएगा (च) = और आपके प्रादुर्भाव से (द्विषन्) = द्वेष करता हुआ शत्रु (मह्यं रथ्यतु) = मेरे लिए वशीभूत हो जाए (च) = और (अहम्) = मैं (द्विषते मा रधम्) = वैर करनेवाले के वश में न हो जाऊँ। २. हे (विष्णो) = सर्वव्यापक प्रभो। (तव इत्) = आपके ही ये (बहुधा वीर्याणि) = नानाप्रकार के पराक्रम हैं। ब्रह्माण्ड में सूर्य आदि पिण्डों के निर्माण व धारणरूप एवं शक्तिशाली कर्म आपके ही हैं। हे प्रभो! (त्वम्) = आप (नः) = हमें (विश्वरूपैः पशुभिः) = इन नानारूपवाले पशुओं से (पृणीहि) = पूरित कीजिए। गवादि पशु दूध आदि देकर हमारे पालन का साधन बनें। हे प्रभो। आप (मा) = मुझे (सुधायाम्) = [सुधा] उत्तम भरण-पोषण करनेवाली अमृतरूप शक्ति में तथा (परमे व्योमन्) = उत्कृष्ट [विशेषेण अवति] रक्षण-स्थान में-हृदयाकाश में (धेहि) = स्थापित कीजिए। मैं मन को इधर उधर भटकने देने की अपेक्षा हृदय में मन को निरुद्ध करूँ।

    भावार्थ

    मेरे हृदय में प्रभु के प्रकाश का प्रादुर्भाव हो। मैं शत्रुओं को वशीभूत करनेवाला बनूं। ब्रह्माण्ड में सर्वत्र प्रभु के शक्तिशाली कर्मों को देखू । प्रभु मुझे आत्मधारण शक्ति दें तथा मन को हृदयाकाश में सन्निरुद्ध कर सकने का सामर्थ्य दें। ७-प्रभुरूप सूर्य मेरे हृदयाकाश में उदित हों। मुझे वर्चस्वी बनाने के लिए वे मुझे प्राप्त हों। हे प्रभो! आप (यान् च पश्यामि) = जिन मनुष्यों को मैं देखता हूँ (च) = और (यान् न) = जिनको नहीं देखता, (तेषु) = उन सबमें (मा) = मुझे (सुमतिम्) = कल्याणी मतिवाला (कृधि) = कीजिए। मैं सबके कल्याण का ही चिन्तन करूँ-किसी के अशुभ को सोचनेवाला न बनें। २.हे प्रभो! आपके अनेक शक्तिशाली कर्म हैं। शेष पूर्ववत्। भावार्थ-प्रभु के प्रकाश को देखता हुआ, प्रभु के वर्चस् को प्रास करता हुआ मैं सबके प्रति सुमतिवाला बनूं। प्रभु के अनन्त पराक्रम हैं। वे हमें गवादि पशुओं द्वारा दूध आदि पदार्थों को प्राप्त करके पालित करते हैं। वे हमें 'सुधा व परमव्योम' में स्थापित करते हैं।

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    भाषार्थ

    (सूर्य) हे सूर्य ! हे सर्वप्रेरक ज्योतिर्मय ! (उदिहि) उदित हो [मेरे हृदयाकाश में], (उदिहि) अवश्य उदित हो; (वर्चसा) निज ज्योति के के साथ (मा, अभि) मेरे संमुख (उदिहि) उदित हो। (यान् च) जिन्हें (पश्यामि) मैं देखता हूं, जानता हूं, (यान् च) और जिन्हें नहीं देखता, जानता (तेषु) उन सब में (मा) मुझे (सुमतिम्) सुमति वाला (कृधि) कर। (तव, इद्) तेरे ही (विष्णो) हे सर्वव्यापक परमेश्वर ! ….शेष अर्थ पूर्ववत् (मन्त्र ६)

    टिप्पणी

    [मन्त्र में परमेश्वर से “सुमति" होने की प्रार्थना की गई है। "धियो यो नः प्रचोदयात् " की भावना इस मन्त्र में है। मन्त्र में मुख्य रूप से परमेश्वर का, तथा गौणरूप से सूर्य का भी वर्णन है। सुमतिः= उत्तम ज्ञानी, उत्तम मननशील। पश्यामि=जानामि। यथा "उत त्वः पश्यन् न ददर्श वाचम्” (ऋ० १०।७१।४) में वाणी को देखने का अभिप्राय है, वाणी को जानना]

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    विषय

    अभ्युदय की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (सूर्य) हृदयाकाश के परमसूर्य, प्रेरकप्रभो ! (उद् इहि उत् इहि वर्चसा अभि उत् इहि) उदय होवो, उदय होवो मेरे समक्ष उदय होवो, दर्शन दो। भगवन् ! (यां च पश्यामि) जिन लोगों को मैं देखूं और (यान् च न) जिनको मैं न भी देखूं (तेषु) उनमें भी आप (मा) मुझको (सुमतिम्) सुमति, शुभ, उत्तम बुद्धि और चित्त वाला (कृधि) करो (तव इत्०) इत्यादि पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    (च०) ‘मैं’ इति ह्विटनिकामितः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्माऋषिः। आदित्यो देवता। १ जगती १-८ त्र्यवसाना, २-५ अतिजगत्यः ६, ७, १९ अत्यष्टयः, ८, ११, १६ अतिधृतयः, ९ पञ्चपदा शक्वरी, १०, १३, १६, १८, १९, २४ त्र्यवसानाः, १० अष्टपदाधृतिः, १२ कृतिः, १३ प्रकृतिः, १४, १५ पञ्चपदे शक्कर्यौ, १७ पञ्चपदाविराडतिशक्वरी, १८ भुरिग् अष्टिः, २४ विराड् अत्यष्टिः, १, ५ द्विपदा, ६, ८, ११, १३, १६, १८, १९, २४ प्रपदाः, २० ककुप्, २७ उपरिष्टाद् बृहती, २२ अनुष्टुप्, २३ निचृद् बृहती (२२, २३ याजुष्यौद्वे द्विपदे), २५, २६ अनुष्टुप्, २७, ३०, जगत्यौ, २८, ३० त्रिष्टुभौ। त्रिंशदृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Rise, O Sun, rise with splendour, rise higher and higher and shine on me and for me. Whoever and whatever I see, whoever and whatever I do not see, among them give me a holy mind and noble intelligence. O Vishnu, lord omnipotent, infinite are your powers and exploits. Bless us with all forms of perceptive organs and serviceable living beings. Pray establish me in the nectar joy of immortality in the highest regions of Divinity.

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    Translation

    Rise O sun, rise. Rise up for me with lustre. Among those, whom I see and those, whom I do not see, may you cultivate friendship for me. O pervading Lord, mainfold, indeed, are your valours. May you enrich us with cattle of all sorts. May you put me in comfort and happiness in the highest heaven.

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    Translation

    O most Impellent God, make me favourite of all those whom I see——and whom I do not see pervasiveness.

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    Translation

    Rise up, O All-pervading God, rise up; with strength and splendor rise on me. Make me the favorite of all, of those I see and do not see. Manifold are Thy great deeds, Thine, O God! Sate us with creatures of all forms and colors: set me in happiness in the loftiest position

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(यान्) समीपस्थान् प्राणिनः (च) (पश्यामि) चक्षुषा विषयीकरोमि (यान्)दूरस्थान् प्राणिनः (च) (न) निषेधे (मा) माम् (सुमतिम्) अनुग्रहबुद्धियुक्तम् (कृधि) कुरु। अन्यत् पूर्ववत्-म० ६ ॥

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