Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 17 के सूक्त 1 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 28
    ऋषिः - आदित्य देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - ब्रह्मा सूक्तम् - अभ्युदयार्थप्रार्थना सूक्त
    51

    परि॑वृतो॒ब्रह्म॑णा॒ वर्म॑णा॒हं क॑श्यपस्य॒ ज्योति॑षा॒ वर्च॑सा च। मा मा॒प्राप॒न्निष॑वो॒ दैव्या॒ या मा मानु॑षी॒रव॑सृष्टाः व॒धाय॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ऽवृत: । ब्रह्म॑णा । वर्म॑णा । अ॒हम् । क॒श्यप॑स्य । ज्योति॑षा । वर्च॑सा । च॒ । मा । मा॒ । प्र । आ॒प॒न् । इष॑व: । दैव्या॑: । या: । मा । मानु॑षी: । अव॑ऽसृष्टा: । व॒धाय॑ ॥१.२८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परिवृतोब्रह्मणा वर्मणाहं कश्यपस्य ज्योतिषा वर्चसा च। मा माप्रापन्निषवो दैव्या या मा मानुषीरवसृष्टाः वधाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परिऽवृत: । ब्रह्मणा । वर्मणा । अहम् । कश्यपस्य । ज्योतिषा । वर्चसा । च । मा । मा । प्र । आपन् । इषव: । दैव्या: । या: । मा । मानुषी: । अवऽसृष्टा: । वधाय ॥१.२८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 17; सूक्त » 1; मन्त्र » 28
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आयु की बढ़ती के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (कश्यपस्य) कश्यप [सर्वदर्शक परमेश्वर] के (ब्रह्मणा) वेदज्ञान से, (वर्मणा) आश्रय से, (ज्योतिषा)ज्योति से (च) और (वर्चसा) प्रताप से मैं (परिवृतः) ढका हुआ हूँ। (याः) जो (दैव्याः) दैवी [आधिदैविक] (इषवः) बाण हैं, वे (मा) मुझको (मा प्र आपन्) नपहुँचें, (च) और (मानुषीः) मानुषी [आधिभौतिक] (अवृसृष्टाः) छोड़े हुए [बाण] (वधाय) मारने के लिये (मा) न [पहुँचें] ॥२८॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमात्मा काआश्रय लेकर ऐसे दूरदर्शी पुरुषार्थी होवें कि आधिदैविक और आधिभौतिक क्लेशों सेसदा बचे रहें ॥२८॥

    टिप्पणी

    २८−(परिवृतः) परिवेष्टितः। अन्यत् पूर्ववत्-म० २७ (मा) माम् (मा प्रापन्) मा प्राप्नुयुः (इषवः) बाणाः (दैव्याः) देव-यञ्। आधिदैविक्यः (याः) (मा) निषेधे (मानुषीः) मानुष्यः। अधिभौतिक्य इत्यर्थः (अवसृष्टाः) प्रेरिताः (वधाय) हननाय ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ज्ञानकवच का धारण

    पदार्थ

    १. (अहम्) = मैं (ब्रह्मणा वर्मणा) = ज्ञानरूप कवच से (परीवृत:) = अपने को समन्तात् आच्छादित किये हुए होऊँ (च) = और (कश्यपस्य) = उस सर्वद्रष्टा प्रभु की (ज्योतिषा वर्चसा) = ज्ञानज्योति व तेजस्विता से मैं अपने को परीवृत करूँ। २. इसप्रकार ज्ञानकवच को धारण करने पर (मा) = मुझे (या:) = जो (दैव्या:) = देव से प्रेरित (इषवः) = बाण हैं वे (मा प्रापन्) = मत प्रास हों, इसीप्रकार वधाय वध के लिए (अवसृष्ट:) = छोड़े हुए (मानुषी:) = [इषवः] मानव-बाण (मा) = मत प्राप्त हों। हम ज्ञानकवच को धारण करके उत्तम कर्मों को करते हुए न तो आधिदैविक आपत्तियों का शिकार हों और न ही आधिभौतिक आपत्तियाँ हमें घेर लें।

    भावार्थ

    ज्ञान का कवच हमें आधिदैविक व आधिभौतिक आपत्तियों से रक्षित करनेवला हो।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (ब्रह्मणा) वेदरूपी या परमेश्वररूपी (वर्मणा) कवच से, और (कश्यपस्य) रोगादिकष्टापन्नव्यक्ति के रक्षक सूर्य के (ज्योतिषा) प्रकाश से, (च वर्चसा) और तेज से (परीवृतः) सब और से ढका हुआ अर्थात् सुरक्षित (अहम्) मैं हूं। (याः) जो (दैव्याः) दैवी अर्थात् आधिदेविक, और (मानुषीः) मनुष्यसम्बन्धी अर्थात् आधिभौतिक (इषवः) वाण, (वधाय) वध के लिये, (अवसृष्टाः) छोड़े गये हैं वे (मा) मुझे (मा) न न (प्रापन्) प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    [जो मनुष्य अपने आप को वैदिक भावनाओं तथा कर्मों द्वारा सुरक्षित करता, तथा सदा अपने-आप को परमेश्वर द्वारा घिरा हुआ अनुभव करता है, उस पर मानुषी-वाण अर्थात् द्वेष, निन्दा, अपमान, ईर्ष्या आदि असर नहीं करते। तथा साथ ही जो अपने जीवन को प्राकृतिक नियमों के अनुसार निभाता, और सूर्य के प्रकाश और ताप का तथा शुद्ध वायु आदि का सेवन करता है उस पर दैवीवाण अर्थात् ऋतुप्रकोप द्वारा उत्पन्न होने वाले रोग भी असर नहीं करते]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अभ्युदय की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (अहम्) मैं (ब्रह्मणा) ब्रह्म, वेदज्ञान रूप (वर्मणा) कवच से (परिवृतः) सुरक्षित और (कश्यपस्य ज्योतिषा वर्चसा च परीवृतः) सर्वद्रष्टा परमेश्वर के या सूर्य के समान तेज और कान्ति से युक्त होऊं (याः दैव्या) जो दैवी और (मानुषीः) मनुष्य सम्बन्धी (इषवः) बाण (वधाय) मेरे विनाश के लिये (अवसृष्टाः) छोड़े गये हों वे (मा मा प्रापन) मुझे प्राप्त न हों, मुझतक न पहुंचे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्माऋषिः। आदित्यो देवता। १ जगती १-८ त्र्यवसाना, २-५ अतिजगत्यः ६, ७, १९ अत्यष्टयः, ८, ११, १६ अतिधृतयः, ९ पञ्चपदा शक्वरी, १०, १३, १६, १८, १९, २४ त्र्यवसानाः, १० अष्टपदाधृतिः, १२ कृतिः, १३ प्रकृतिः, १४, १५ पञ्चपदे शक्कर्यौ, १७ पञ्चपदाविराडतिशक्वरी, १८ भुरिग् अष्टिः, २४ विराड् अत्यष्टिः, १, ५ द्विपदा, ६, ८, ११, १३, १६, १८, १९, २४ प्रपदाः, २० ककुप्, २७ उपरिष्टाद् बृहती, २२ अनुष्टुप्, २३ निचृद् बृहती (२२, २३ याजुष्यौद्वे द्विपदे), २५, २६ अनुष्टुप्, २७, ३०, जगत्यौ, २८, ३० त्रिष्टुभौ। त्रिंशदृचं सूक्तम्।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    I am covered and guarded deeply and wholly all round by the Vedic armour of Lord Supreme, Brahma. I am wrapped and protected by the light and splendour of Kashyapa, lord of wisdom, pranic energy and natural strength. I pray and I affirm that the arrows and attacks shot and mounted against me either by natural or human powers, even though they be meant to kill, shall never reach and never touch me.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Covered I am on all sides with the armour of sacred knowledge and with light and lustre of the all-seeing Lord. May not the arrows, that are divine, nor those, shot by human beings to kill, reach me.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    May I covered with the vedic knowledge which is like an armour and with light and brilliance of All-visioned God be entirely safe. The shafts which are from the physical wordly forces and which are from men of the world and which are shot to destroy me, be not within their reach (That is Adhidaivik and Adhibhautik) powers may not come to me.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Protected am I by Vedic knowledge, my shield and armor, protected by the bright light and splendor of God, the Seer, let not the calamities sent forth by natural forces reach me, nor those sent forth by men for my destruction.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २८−(परिवृतः) परिवेष्टितः। अन्यत् पूर्ववत्-म० २७ (मा) माम् (मा प्रापन्) मा प्राप्नुयुः (इषवः) बाणाः (दैव्याः) देव-यञ्। आधिदैविक्यः (याः) (मा) निषेधे (मानुषीः) मानुष्यः। अधिभौतिक्य इत्यर्थः (अवसृष्टाः) प्रेरिताः (वधाय) हननाय ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top