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अथर्ववेद के काण्ड - 17 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 15
    ऋषिः - आदित्य देवता - पञ्चपदा शक्वरी छन्दः - ब्रह्मा सूक्तम् - अभ्युदयार्थप्रार्थना सूक्त
    55

    त्वं तृ॒तं त्वंपर्ये॒ष्युत्सं॑ स॒हस्र॑धारं वि॒दथं॑ स्व॒र्विदं॒ तवेद्वि॑ष्णो बहु॒धावी॒र्याणि। त्वं नः॑ पृणीहि प॒शुभि॑र्वि॒श्वरू॑पैः सु॒धायां॑ मा धेहि पर॒मेव्योमन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । तृ॒तम् । त्वम् । परि॑ । ए॒षि॒ । उत्स॑म् । स॒हस्र॑ऽधारम् । वि॒दथ॑म् । स्व॒:ऽविद॑म् । तव॑ । इत् । वि॒ष्णो॒ इति॑ । ब॒हु॒ऽधा । वी॒र्या᳡णि । त्वम् । न॒: । पृ॒णी॒हि॒ । प॒शुऽभि॑: । वि॒श्वऽरू॑पै: । सु॒ऽधाया॑म् । मा॒ । धे॒हि॒ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् ॥१.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं तृतं त्वंपर्येष्युत्सं सहस्रधारं विदथं स्वर्विदं तवेद्विष्णो बहुधावीर्याणि। त्वं नः पृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमेव्योमन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । तृतम् । त्वम् । परि । एषि । उत्सम् । सहस्रऽधारम् । विदथम् । स्व:ऽविदम् । तव । इत् । विष्णो इति । बहुऽधा । वीर्याणि । त्वम् । न: । पृणीहि । पशुऽभि: । विश्वऽरूपै: । सुऽधायाम् । मा । धेहि । परमे । विऽओमन् ॥१.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 17; सूक्त » 1; मन्त्र » 15
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आयु की बढ़ती के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमेश्वर !] (त्वम्) तू (तृतम्=त्रितम्) तीनों [कालों] के बीच फैले हुए [जगत्] में, (त्वम्) तू (सहस्रधारम्) सहस्रों धाराओंवाले (उत्सम्) स्रोते, [अर्थात्] (स्वर्विदम्) सुख पहुँचानेवाले (विदथम्) विज्ञान समाज में (परि) सब ओर से (एषि)व्यापक है, (विष्णो) हे विष्णु ! [सर्वव्यापक परमेश्वर] (तव इत्) तेरे ही... [मन्त्र ६] ॥१५॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा सर्वदा सबसंसार में व्यापक रहकर विद्वानों की उन्नति करता है, हम सब उसी की उपासना सेविद्वान् होकर उन्नति करें ॥१५॥

    टिप्पणी

    १५−(त्वम्) (तृतम्) सम्प्रसारणं छान्दसम्। अ०५।१।१। त्रि+तनु विस्तारे-ड। त्रिषु कालेषु विस्तीर्णं जगत् (त्वम्) (परि) सर्वतः (एषि) व्याप्नोषि (उत्सम्) उन्दिगुधिकुषिभ्यश्च। उ० ३।६८। उन्दी क्लेदने-सप्रत्ययः। जलस्रवणस्थानम् (सहस्रधारम्) बहुधारायुक्तम् (विदथम्) विज्ञानसमाजम् (स्वर्विदम्) सुखस्य लम्भयितारम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    उत्स

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! (त्वम्) = आप ही (तृतम्) = 'प्रकृति, जीव व परमात्मा' के ज्ञान का विस्तार करनेवाले (उत्सम्) = ज्ञानस्रोत को (पर्येषि) = व्याप्त किये हुए हो। जो उत्स, (सहस्त्रधारम्) = हज़ारों प्रकार से हमारा धारण करनेवाला है, (विदथम्) = ज्ञानरूप है, हमारे लिए सब ज्ञानों को प्राप्त करानेवाला है तथा (स्वर्विदम्) = आत्मप्रकाश व सुख को प्राप्त कराता है। २. हे विष्णो! आपके ही तो अनन्त पराक्रम हैं। शेष पूर्ववत्।

    भावार्थ

    प्रभु ही उस ज्ञानस्रोत का व्यापन किये हुए हैं जो प्रकृति, जीव व परमात्मा के ज्ञान का विस्तार करता है, हजारौं प्रकार से हमारा धारण करता है, हमें ज्ञान प्राप्त कराता तथा सुख देता है।

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    भाषार्थ

    हे परमेश्वर ! (त्वम्) तू (तृतम् = त्रितम्) अति मेधावी को (एषि) प्राप्त होता है, (त्वम्) और तू (सहस्रधारम्) हजारों ज्ञानधाराओं वाले, (स्वर्विदम्) सुखलाभ कराने वाले, (विदथम्) ज्ञानप्रद या ज्ञानमय (उत्सम्) ज्ञान स्रोत वेद को (परि एषि) व्याप्त कर रहा है। (तवेद् विष्णो….) शेष अर्थ पूर्ववत् (मन्त्र ६)

    टिप्पणी

    [तृतम् = त्रितम् = तीणैतमो मेधया (निरु० ४।१।६)। विदथम् = विदथानि वेदनानि (निरु० ६।२।७); विदथे वेदने (निरु० १।३।६)। मेधा से तीर्णतम् वह व्यक्ति है जो कि सांसारिक विषयों में लिप्त न हो कर, आध्यात्मिक जीवन की उन्नति में तत्पर रहता है। ऐसे व्यक्ति को परमेश्वर प्राप्त होता है। परमेश्वर वेद में व्याप्त हो रहा है,- इस का यह अभिप्राय है कि वेद के मन्त्रों में साक्षात् और परम्परया परमेश्वर का वर्णन है। "यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति” (ऋ० १।१६४।३९), अर्थात् वैदिक ऋचाओं में व्याप्त परमेश्वर को जो नहीं जानता वह ऋचाओं से क्या करेगा, उस का ऋचाओं का स्वाध्याय व्यर्थ है तथाः— सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्‌ ॥ (कठोपनि० बल्ली २। मं० १५) में "सर्वे वेरा यत्पदमामनन्ति तत्ते पदे ब्रवीम्योमित्येतत्" पर महर्षि दयानन्द, ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, "अथ वेद विषय विचारः" में लिखते हैं कि "जिस के नाम ओम् आदि हैं उसी में सब वेदों का मुख्य तात्पर्य है"। तथा "ईश्वर का, एक भी मन्त्र के अर्थ में, अत्यन्त त्याग नहीं होता। (प्रतिज्ञा विषय, ऋग्वेदादि-भाष्य-भूमिका)। इन प्रमाणों द्वारा यह निश्चय होता है कि ज्ञानमय तथा ज्ञानप्रद वेद-स्रोत को परमेश्वर व्याप्त कर रहा है]

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    विषय

    अभ्युदय की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे इन्द्र परमात्मन् ! (त्वं) तू (तृतं) अति विस्तीर्ण महान् आकाश में (परि-एषि) व्यापक है। (त्वं) तू (सहस्रधारम्) सहस्र = समस्त संसार को धारण पोषण करनेहारे (विदथम्) ज्ञान से परिपूर्ण (स्वर्विदम्) स्वः, परम सुख, मोक्षानन्द के लाभ करानेहारे (उत्सं) उस परम स्रोत को भी (परि एषि) व्यापे हुए है। (तव इत्०) इत्यादि पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    ‘त्रितं’ इति सायणाभिमतः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्माऋषिः। आदित्यो देवता। १ जगती १-८ त्र्यवसाना, २-५ अतिजगत्यः ६, ७, १९ अत्यष्टयः, ८, ११, १६ अतिधृतयः, ९ पञ्चपदा शक्वरी, १०, १३, १६, १८, १९, २४ त्र्यवसानाः, १० अष्टपदाधृतिः, १२ कृतिः, १३ प्रकृतिः, १४, १५ पञ्चपदे शक्कर्यौ, १७ पञ्चपदाविराडतिशक्वरी, १८ भुरिग् अष्टिः, २४ विराड् अत्यष्टिः, १, ५ द्विपदा, ६, ८, ११, १३, १६, १८, १९, २४ प्रपदाः, २० ककुप्, २७ उपरिष्टाद् बृहती, २२ अनुष्टुप्, २३ निचृद् बृहती (२२, २३ याजुष्यौद्वे द्विपदे), २५, २६ अनुष्टुप्, २७, ३०, जगत्यौ, २८, ३० त्रिष्टुभौ। त्रिंशदृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Lord omnipresent, Vishnu, you pervade and inspire the thousand-streamed heavenly light of the adorable and inexhaustible Veda, vibrating in the triple world of heaven, earth and the firmament. O Vishnu, pray bless us with the fulfilment of our earthly mission and, with universal forms of perception and vision, establish us in the nectar joy of immortality in the highest regions of Divinity. Infinite are your acts and powers.

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    Translation

    You go to the threefold (trita), you (go) to the thousand- Streamed spring, full of knowledge and attainer of bliss. O pervading Lord, manifold, indeed, are your valours. May you enrich us with cattle of all sorts. May you put me in comfort and happiness in the highest heaven.

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    Translation

    O Almighty God, you pervade Trita, the soul which lives. in three bodies, gross, rare and causal, you pervade the waters having many currents and you pervade the Yajna which gives performers light and happiness-pervasiveness.

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    Translation

    O God, Thou pervadest the vast atmosphere, and the excellent knowledge, that sustains the universe and gives us the joy of salvation! Manifold are Thy great deeds. Thine! O God! Sate us with creatures of all forms.and colors: set me in happiness in the loftiest position.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १५−(त्वम्) (तृतम्) सम्प्रसारणं छान्दसम्। अ०५।१।१। त्रि+तनु विस्तारे-ड। त्रिषु कालेषु विस्तीर्णं जगत् (त्वम्) (परि) सर्वतः (एषि) व्याप्नोषि (उत्सम्) उन्दिगुधिकुषिभ्यश्च। उ० ३।६८। उन्दी क्लेदने-सप्रत्ययः। जलस्रवणस्थानम् (सहस्रधारम्) बहुधारायुक्तम् (विदथम्) विज्ञानसमाजम् (स्वर्विदम्) सुखस्य लम्भयितारम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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