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अथर्ववेद के काण्ड - 17 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 25
    ऋषिः - आदित्य देवता - अनुष्टुप् छन्दः - ब्रह्मा सूक्तम् - अभ्युदयार्थप्रार्थना सूक्त
    51

    आदि॑त्य॒नाव॒मारु॑क्षः श॒तारि॑त्रां स्व॒स्तये॑। अह॒र्मात्य॑पीपरो॒ रात्रिं॑ स॒त्राति॑पारय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आदि॑त्य । नाव॑म् । आ । अ॒रु॒क्ष॒: । श॒त॒ऽअरि॑त्राम् । स्व॒स्तये॑ । अह॑:। मा॒ । अति॑ । अ॒पी॒प॒र॒: । रात्रि॑म् । स॒त्रा । अति॑ । पा॒र॒य॒ ॥१.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आदित्यनावमारुक्षः शतारित्रां स्वस्तये। अहर्मात्यपीपरो रात्रिं सत्रातिपारय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आदित्य । नावम् । आ । अरुक्ष: । शतऽअरित्राम् । स्वस्तये । अह:। मा । अति । अपीपर: । रात्रिम् । सत्रा । अति । पारय ॥१.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 17; सूक्त » 1; मन्त्र » 25
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    हिन्दी (4)

    विषय

    आयु की बढ़ती के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (आदित्यः) हे आदित्यः ! [अखण्ड प्रभाववाले परमात्मा] (स्वस्तये) [हमारे] आनन्द के लिये (शतारित्राम्)सैकड़ों डाड़वाली (नावम्) नाव पर (आ अरुक्षः) तू चढ़ा है। (मा) मुझ से (अहः)दिन (अति अपीपरः) तूने सर्वथा पार कराया है, (रात्रिम्) रात्रि (सत्रा) भी (अतिपारय) तू सर्वथा पार करा ॥२५॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा अनेकप्रकार जगत् को चला रहा है, मनुष्य उसकी अनन्त कृपा से दिन का कर्तव्य पूरा करकेरात्रि का कर्तव्य पूरा करने का प्रयत्न करें, और इस मन्त्र से सायंकाल मेंप्रार्थना करें ॥२५॥

    टिप्पणी

    २५−(आदित्यः) म० २४। हे अखण्डप्रभाव परमात्मन् (नावम्) (आअरुक्षः) आरूढवानसि (शतारित्राम्) शतं बहूनि अरित्राणि उदकाकर्षणसाधनानिविद्यन्ते यस्यां ताम् (स्वस्तये) क्षेमाय (अहः) दिनकार्यमित्यर्थः (मा) माम् (अति अपीपरः) पॄ पालनपूरणयोः-णिचि लुङ्। पारं प्रापितवानसि (रात्रिम्)रात्रिकर्तव्यमित्यर्थः (सत्रा) सत्यं निश्चयेन (अति पारय) पॄ-णिचि, यद्वा, पारकर्मसमाप्तौ-लोट्। सर्वथा पारं गमय ॥

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    विषय

    प्रभुरूप नाव

    पदार्थ

    १. हे (आदित्य) = सबका अपने में आदान करनेवाले प्रभो ! (नावम्) = भवसागर को पार करने के लिए नौकारूप जो आप हैं, उनपर (आरुक्षः) [आरोहम्] = मैंने आरोहण किया है। उस नाव पर जोकि (शतारित्राम्) = सैकड़ों चप्पुओंवाली है। प्रभु के रक्षासाधन अनेक हैं। (स्वस्तये) = कल्याण के लिए मैंने इस नाव पर आरोहण किया है। २. हे प्रभो! (अहः मा अति) = अपीपर:-दिन में सब अपत्तियों के परिहारपूर्वक मुझे आपने पार किया है तथा (सत्रा) = साथ ही, दिन के साथ मध्य में व्यवधान न करके (रात्रिं अतिपारय) = रात में भी पार ले-चलिए।

    भावार्थ

    प्रभुरूप नाव पर आरोहण करके हम दिन-रात, सब आपत्तियों से रहित होते हुए भवसागर को तैरते चलें।

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    भाषार्थ

    (आदित्य) हे आदित्य के से वर्ण वाले प्रकाशमान परमेश्वर ! तू (नावम्) मेरी शरीर-नौका पर (आ अरुक्षः१) आरूढ़ हो गया है, (शतारित्राम्) जिसे चलाने के लिये १०० चप्पु लगे हुये हैं, (स्वस्तये) ताकि मेरा कल्याण हो। (सत्रा) सत्य है कि (अहः) दिन से (मा) मुझे (अति, अपीपर:) तूने पार कर दिया है, (रात्रिम्) रात्रि से भी मुझे (अति, पारय) पार कर।

    टिप्पणी

    [मन्त्र २४ में संयनी-उपासक में आदित्य वर्णी परमेश्वर के उदय हो जाने का वर्णन हुआ। "वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमसः परस्तात्” (यजु० ३१।१८) में ब्रह्माण्ड-पुरी तथा शरीर-पुरी में बसे परमेश्वर को "आदित्यवर्णम्" कहां। महर्षि दयानन्द ने "आदित्यवर्णम्" का अर्थ किया है "सूर्य के तुल्य प्रकाशस्वरूप"। परमेश्वर के प्रकट हो जाने पर उपासक ने निज आसुर भावों को अपने वश में कर लेने की प्रार्थना परमेश्वर से की (मन्त्र २४) है। मन्त्र २५ में उपासक अनुभव कर रहा है कि आदित्यवर्णी परमेश्वर मेरी शरीर-नौका पर सवार हो गया है। अतः परमेश्वर से प्रार्थना करता है कि तूने मुझे दिन में होने वाली आसुरी-तरङ्गों से पार कर दिया है, रात्रि में उठने वाली आसुरी-तरङ्गों से भी मुझे पार कर। मन्त्र में नौका को "शतारित्रा" कहा है। जीवन के सौ वर्षों के सौ-चप्पु इस शरीर नौका के साथ लगे हुए हैं। इन चप्पुओं को "अरित्र" कहा हैं, जिस का अर्थ है अरियों अर्थात् शत्रुओं से त्राण करने वाले, रक्षा करने वाले। आसुरी-भाव अरि हैं, शत्रु हैं। इन की उठती तरङ्गों से उपासक अपनी रक्षा चाहता है। [सत्रा=सत्यनाम (निघं० ३।१०)] [१. अर्थात् हे परमेश्वर । तू ही मेरी शरीर-नौका का नाविक (मल्लाह्) बनकर इस नौका को चला रहा है, इस नौका का खबैय्या हो रहा है।]

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    विषय

    अभ्युदय की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (आदित्य) सबको अपने वश में कर लेने वाले प्रकाशमान सूर्य ! तू (स्वस्तये) समस्त कल्याण के लिये (शतारित्राम्) सैंकड़ों प्राणियों को त्राण करने में समर्थ (नावम्*) समस्त संसार को प्रेरण, और संचालन करने में समर्थ शक्ति को (आ रुक्षः) सर्वत्र व्याप्त, अधिष्ठित हो। तू (मा) मुझको (अहः) दिन के समय या सृष्टि काल के (अति अपीपरः) पार पहुंचा और (सत्रा) साथ ही (रात्रिम् अति पारय) रात्रिकाल या प्रलयकाल के भी पार कर। अथवा (हे आदित्य नावमारुक्षः*) हे आदित्य ! मैं नाव के समान तेरा आश्रय लेता हूं। तू मुझे दिन रात के कष्टों से पार कर।

    टिप्पणी

    ‘समरन्ध’ (च०) ‘द्विषतो’ (द्वि०) ‘महसा’ इति क्वचित्। नौः, ग्लानुदिभ्यां डौः नुदति प्रेरयति इति नौः इति दयानन्दः उ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्माऋषिः। आदित्यो देवता। १ जगती १-८ त्र्यवसाना, २-५ अतिजगत्यः ६, ७, १९ अत्यष्टयः, ८, ११, १६ अतिधृतयः, ९ पञ्चपदा शक्वरी, १०, १३, १६, १८, १९, २४ त्र्यवसानाः, १० अष्टपदाधृतिः, १२ कृतिः, १३ प्रकृतिः, १४, १५ पञ्चपदे शक्कर्यौ, १७ पञ्चपदाविराडतिशक्वरी, १८ भुरिग् अष्टिः, २४ विराड् अत्यष्टिः, १, ५ द्विपदा, ६, ८, ११, १३, १६, १८, १९, २४ प्रपदाः, २० ककुप्, २७ उपरिष्टाद् बृहती, २२ अनुष्टुप्, २३ निचृद् बृहती (२२, २३ याजुष्यौद्वे द्विपदे), २५, २६ अनुष्टुप्, २७, ३०, जगत्यौ, २८, ३० त्रिष्टुभौ। त्रिंशदृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    O Aditya, self-refulgent lord, you have ascended the hundred-oared ark of life with me for our well-being. You have helped me cross over the day, kindly help me to cross over the night as well.

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    Translation

    O Aditya (sun), you have embarked upon the hundred-oared boat for (our) weal. You have brought me across to the day, in the same way, may you take me across to the night.

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    Translation

    O Aditya (God) you make me mount on this world-ship which has many protecting oars for my happiness mundane and ultramundane. O Lord, make me reach the goal in of Ratri, the dissolution the time of creation (day) and even in the time.

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    Translation

    O God, the Goader of the universe, Thou possesses! for the good of humanity, the power of controlling the world, and sheltering innumerable beings. Thou hast made me perform my duty during the day, let me also perform me my duty during the night.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २५−(आदित्यः) म० २४। हे अखण्डप्रभाव परमात्मन् (नावम्) (आअरुक्षः) आरूढवानसि (शतारित्राम्) शतं बहूनि अरित्राणि उदकाकर्षणसाधनानिविद्यन्ते यस्यां ताम् (स्वस्तये) क्षेमाय (अहः) दिनकार्यमित्यर्थः (मा) माम् (अति अपीपरः) पॄ पालनपूरणयोः-णिचि लुङ्। पारं प्रापितवानसि (रात्रिम्)रात्रिकर्तव्यमित्यर्थः (सत्रा) सत्यं निश्चयेन (अति पारय) पॄ-णिचि, यद्वा, पारकर्मसमाप्तौ-लोट्। सर्वथा पारं गमय ॥

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