अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 3
ऋषिः - अङ्गिराः
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - ब्रह्मा सूक्त
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स॑प्तमाष्ट॒माभ्यां॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त॒म॒ऽअ॒ष्ट॒माभ्या॑म्। स्वाहा॑ ॥२२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्तमाष्टमाभ्यां स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठसप्तमऽअष्टमाभ्याम्। स्वाहा ॥२२.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
महाशान्ति के लिये उपदेश।
पदार्थ
(सप्तमाष्टमाभ्याम्) सातवें के लिये और आठवें के लिये [भावार्थ देखो] (स्वाहा) स्वाहा [सुन्दर वाणी] हो ॥३॥
भावार्थ
यहाँ सातवाँ और आठवाँ पद परमेश्वर के दो गुणों का नाम है। परमेश्वर षड्वर्ग अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य से अलग सातवाँ है। तथा कान, आँख, नाक जिह्वा, त्वचा पाँच ज्ञानेन्द्रिय और मन और चित्त से पृथक् होने से उसको आठवाँ माना है। उसकी उपासना हमें सदा करनी चाहिये ॥३॥
टिप्पणी
३−(सप्तमाष्टमाभ्याम्) सप्तमश्चाष्टमश्च तौ ताभ्याम्। षड्वर्गेण कामक्रोधलोभमोहमदमात्सर्यैः पृथग्भूताय सप्तमाय, श्रोत्रनेत्रनासिकाजिह्वात्वग्मनश्चित्तैः पृथग् वर्तमानाय अष्टमाय च परमेश्वराय ॥
विषय
योगाङ्गों का अभ्यास आँख
पदार्थ
१. 'अङ्गिरस' वे व्यक्ति हैं जो गतिशील जीवनवाले होते हुए, ज्ञानप्रधान जीवन बिताते हुए [अगि गतौ] अंग-प्रत्यंग को रसमय बनाये रखते हैं-इनकी लोच-लाचक में कमी नहीं आने देते। इन (आङ्गिरसानाम्) = आंगिरसों के (अद्यै:) = प्रथम-प्रारम्भ में होनेवाले(पञ्च अनुवाकैः) = पाँच बातों के साथ सम्बद्ध जपों के हेतु से-'मैं 'यम-नियम' का पालन करूँगा, मैं 'आसन, प्राणायाम' को अपनाऊँगा और इसप्रकार 'प्रत्याहार'-वाला-इन्द्रियों को विषयों से वापस लानेवाला बनूंगा' इन प्रतिदिन दुहराये जानेवाले विचारों के हेतु से (स्वाहा) = उस प्रभु के प्रति अपना अर्पण करता हूँ। प्रभु ही मुझे इन विचारों को स्थूल रूप देने में समर्थ करेंगे। प्रभु-कृपा से ही ये विचार मेरे जीवन में आचार के रूप में परिवर्तित होंगे। २. अब मैं (षष्ठाय) = प्रत्याहार के बाद धारणारूप योग के छठे अंग के लिए प्रभु के प्रति (स्वाहा) = अपना अर्पण करता हूँ। इन्द्रियों को अन्दर ही बाँधने का प्रयत्न करता हूँ। ३. धारणा के बाद (सप्तम् अष्टमाभ्याम्) = सातवें व आठवें-ध्यान व समाधिरूप-योगांगों के लिए (स्वाहा) = आपके प्रति अपने को अर्पित करता हूँ। आपने ही मुझे इन योगांगों में गतिवाला करना है।
भावार्थ
हम योग के प्रथम पाँच अंगों को क्रियान्वित करने के लिए उन्हीं का जप व विचार करें-हमें उनका विस्मरण न हो। अब प्रत्याहार के बाद 'धारणा' के लिए यत्नशील हों। धारणा के बाद 'ध्यान व समाधि' को अपना पाएँ। इन सबके लिए मैं प्रभु के प्रति अपना अर्पण करता हूँ।
भाषार्थ
(सप्तमाष्टमाभ्याम्) सप्तम अर्थात् अहंकार, और अष्टम अर्थात् बुद्धि के स्वास्थ्य के लिए आहुतियाँ हों।
टिप्पणी
[मन्त्र २ में मन को षष्ठ कहा है। मन की प्रकृति अहंकार है, इसलिए अहंकार सप्तम। और अहंकार की प्रकृति बुद्धि अष्टम है। मन अहंकार और बुद्धि अन्तःकरण है। अन्तःकरण के स्वस्थ और रुग्ण होने पर शरीर का स्वास्थ्य और रुग्णपन प्रायः होता है। इसलिए मन्त्र २ और ३ में अन्तःकरण के स्वास्थ्य के लिए आहुतियों का विधान किया है।]
विषय
अथर्व सूक्तों का संग्रह।
भावार्थ
(षष्ठाय स्वाहा) छठे अनुवाक से उत्तम शिक्षा ग्रहण करो। (सप्तमाष्टमाभ्यां स्वाहा) सातवें और आठवें अनुवाकों से उत्तम ज्ञान प्राप्त करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अंगिरा ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवताः। १ साम्न्युष्णिक् ३, १९ प्राजापत्या गायत्री। ४, ७, ११, १७, दैव्यो जगत्यः। ५, १२, १३ दैव्यस्त्रिष्टुभः, २, ६, १४, १६, दैव्यः पंक्तयः। ८-१० आसुर्यो जगत्यः। १८ आसुर्यो अनुष्टुभः, (१०-२० एकावसानाः) २ चतुष्पदा त्रिष्टुभः। एकविंशत्यृचं समाससूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Chhandas
Meaning
Svaha for the seventh and eighth (Ahankara and Buddhi, i.e., I-sense of identity and Intelligence).
Translation
Svaha to the seventh and the eighth (chapter).
Translation
Through the seventh and eighth and hail it.
Translation
Learn lessons from the seventh and eighth anuvakas i.e., Kanda 2, suktas 1-5 and 6-10.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(सप्तमाष्टमाभ्याम्) सप्तमश्चाष्टमश्च तौ ताभ्याम्। षड्वर्गेण कामक्रोधलोभमोहमदमात्सर्यैः पृथग्भूताय सप्तमाय, श्रोत्रनेत्रनासिकाजिह्वात्वग्मनश्चित्तैः पृथग् वर्तमानाय अष्टमाय च परमेश्वराय ॥
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