Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 22 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - तक्मनाशनः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - तक्मनाशन सूक्त
    78

    अ॒यं यो विश्वा॒न्हरि॑तान्कृ॒णोष्यु॑च्छो॒चय॑न्न॒ग्निरि॑वाभिदु॒न्वन्। अधा॒ हि त॑क्मन्नर॒सो हि भू॒या अधा॒ न्य॑ङ्ङध॒राङ् वा॒ परे॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । य: । विश्वा॑न् । हरि॑तान् । कृ॒णोषि॑ । उ॒त्ऽशो॒चय॑न् । अ॒ग्नि:ऽइ॑व । अ॒भि॒ऽदु॒न्वन् । अध॑ । हि ।त॒क्म॒न् ।अ॒र॒स:। हि । भू॒या: । अध॑ । न्य᳡ङ् । अ॒ध॒राङ् । वा॒ । परा॑ । इ॒हि॒ ॥२२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं यो विश्वान्हरितान्कृणोष्युच्छोचयन्नग्निरिवाभिदुन्वन्। अधा हि तक्मन्नरसो हि भूया अधा न्यङ्ङधराङ् वा परेहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । य: । विश्वान् । हरितान् । कृणोषि । उत्ऽशोचयन् । अग्नि:ऽइव । अभिऽदुन्वन् । अध । हि ।तक्मन् ।अरस:। हि । भूया: । अध । न्यङ् । अधराङ् । वा । परा । इहि ॥२२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रोग नाश करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (अयम्) यह (यः) जो तू (विश्वान्) सब [मनुष्यों] को (उच्छोचयन्) शोक में डालता हुआ, और (अग्निः इव) अग्नि के समान (अभिदुन्वन्) तपाता हुआ (हरितान्) पीला (कृणोषि) कर देता है। (अध) सो (हि) इसलिये (तक्मन्) हे दुःखित जीवन करने हारे ज्वर ! तू (हि) अवश्य (अरसः) निर्बल (भूयाः) होजा। (अध) और (वा) अथवा (न्यङ्) नीच स्थान से (अधराङ्) नीच स्थान को (परा इहि) चम्पत हो जा ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे सद्वैद्य ज्वर आदि रोगों को, वैसे ही बुद्धिमान् कुकाम, कुक्रोध आदि को निकाल देवे ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(अयम्) प्रसिद्धः (यः) यस्त्वम् (विश्वान्) सर्वान् मनुष्यान् (हरितान्) अ० १।२५।२। पीतवर्णान् (कृणोषि) करोषि (उच्छोचयन्) शुच शोके णिचि, शतृ। विपादयन् (अग्निः इव) पावको यथा (अभिदुन्वन्) टुदु उपतापे−शतृ। उपतापयन् (अध) अथ। अपि (हि) यस्मात् कारणात् (तक्मन्) म० १। हे कृच्छ्रजीवनकर ज्वर (अरसः) असमर्थः। निष्प्रभावः (हि) अवश्यम् (भूयाः) (अध) (न्यङ्) नि+अञ्च गतौ−क्विन्, विभक्तिलोपः। नीचः। निम्नस्थानात् (अधराङ्) अधर+अञ्चु गतौ−क्विन्, विभक्तिलोपः। नीचः। निम्नस्थानात् (अधराङ्) अधर+अञ्चु−क्विन्। नीचस्थानम् (वा) अथवा (परा) पृथक् (इहि) गच्छ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    'न्यङ् अधरा परा' ऐहि

    पदार्थ

    १. हे (तक्मन्) = ज्वर । (य: अयम्) = जो यह तू (विश्वान्) = सबको (हरितान् कृणोषि) = निस्तेजता के कारण पीला-पीला-सा कर देता है, (उच्छोचयन) = जो सन्तप्त करता हुआ (अग्नि: इव अभिदुन्वन्) = अग्नि के समान उपतप्त करता हुआ होता है। २. हे ज्वर! वह तू (अध) = अब (हि) = निश्चय से (अरसा: हि भूया:) = निःसार-निस्तेज ही हो जाए। (अध) = अब (न्यङ्) = तेरी गति नीचे की ओर हो (वा अधराङ्) = निश्चय से उतर जा, (परा इहि) = तू हमसे सुदूर चला जा।

    भावार्थ

    ज्वर हमें निस्तेज करता है। यह सन्तप्त करके कष्ट देता है। इसे हम उचित औषधोपचार के द्वारा नष्ट करें।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (अयम्) यह तू (यः) जोकि (उच्छोचयन्) रक्त को सुखाता हुआ, तथा (अग्नि: इव ) अग्नि की तरह (अभिदुन्वन्) तपाता हुआ, (विश्वान्) सबको (हरितान्) हरे रङ्गवाले (कृणोषि) कर देता है, (अधा) अब [अर्थात् रोगोपचार (मन्त्र १) के पश्चात्] (हि) निश्चय से (तक्मन्) जीवन को कृच्छ्र बनानेवाले हे ज्वर! (अरस:) रसरहित अर्थात् शक्तिरहित (हि) ही ( भूया:) तू हो जा, (अधा) तदनन्तर (न्यक्) नीचे की ओर से, (वा) या (अधराक्) शरीर के किसी भी भाग से उतर जानेवाला होकर, (परेहि) दूर हो जा।

    टिप्पणी

    [हरितान्=लालरक्त के सूख जाने पर अशुद्ध रक्त का हरा वर्ण। दुन्वन्=टुदु उपतापे (स्वादिः)। न्यक्=पैरों और टाँगों के ठण्डा हो जाने से।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ज्वर का निदान और चिकित्सा।

    भावार्थ

    ज्वर का रूप बतलाते हैं—(अयं) यह ज्वर जो तू (विश्वान्) सब पुरुषों को (हरितान्) पीला (कृणोषि) कर देता है, उन पर चढ़ कर उनकी कान्ति का नाश कर डालता है और (उत्-शोचयन्) उनकी तपा २ कर (अग्निः-इव) आग के समान (अभि-दुन्वत्) सब प्रकार से कष्ट देता हुआ सब की कान्ति नष्ट कर देता है। (अध) इसलिये हे (तक्मन्) ज्वर ! पीड़ादायक ! (अरसः हि भूयाः) तू रस-बल से हीन ही हो जा (अधा न्यङ् एहि) और नीचे हों जा, (अधराङ्-एहि) उतर जा (वा) और (परा-इहि) दूर ही हो जा। ज्वर अग्नि के समान तपाकर मनुष्यों की कान्ति को नष्ट करता है इसलिये उस ज्वर के जोर को नष्ट करके उसे दबावे और सर्वथा तापांश को नीचा करके दूर करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वङ्गिरसो ऋषयः। तक्मनाशनो देवता। १, २ त्रिष्टुभौ। (१ भुरिक्) ५ विराट् पथ्याबृहती। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cure of Fever

    Meaning

    This fever which reduces all to pallor, consuming them like fire with high temperature, may, with treatment, lose its intensity, go down to normal and disappear for all time.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O fever, may you, who make all the persons yellow, heating them up and causing pain all over like fire, now become powerless (weak); now. may you go down or vanish far below.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Let this fever which makes the body of the patients yellow consuming them with burning heat, be weak and inffective and let it away from them.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    And thou thyself which makest all men pale, consuming them with burning heat like fire, thou, Fever! then be weak and ineffective. Pass hence into the places below or vanish.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(अयम्) प्रसिद्धः (यः) यस्त्वम् (विश्वान्) सर्वान् मनुष्यान् (हरितान्) अ० १।२५।२। पीतवर्णान् (कृणोषि) करोषि (उच्छोचयन्) शुच शोके णिचि, शतृ। विपादयन् (अग्निः इव) पावको यथा (अभिदुन्वन्) टुदु उपतापे−शतृ। उपतापयन् (अध) अथ। अपि (हि) यस्मात् कारणात् (तक्मन्) म० १। हे कृच्छ्रजीवनकर ज्वर (अरसः) असमर्थः। निष्प्रभावः (हि) अवश्यम् (भूयाः) (अध) (न्यङ्) नि+अञ्च गतौ−क्विन्, विभक्तिलोपः। नीचः। निम्नस्थानात् (अधराङ्) अधर+अञ्चु गतौ−क्विन्, विभक्तिलोपः। नीचः। निम्नस्थानात् (अधराङ्) अधर+अञ्चु−क्विन्। नीचस्थानम् (वा) अथवा (परा) पृथक् (इहि) गच्छ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top