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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अथर्वा देवता - कामः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - काम सूक्त
    51

    ज॒हि त्वं का॑म॒ मम॒ ये स॒पत्ना॑ अ॒न्धा तमां॒स्यव॑ पादयैनान्। निरि॑न्द्रिया अर॒साः स॑न्तु॒ सर्वे॒ मा ते जी॑विषुः कत॒मच्च॒नाहः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज॒हि । त्वम् । का॒म॒ । मम॑ । ये । स॒ऽपत्ना॑: । अ॒न्धा । तमां॑सि । अव॑ । पा॒द॒य॒ । ए॒ना॒न् । नि:ऽइ॑न्द्रिया: । अ॒र॒सा: । स॒न्तु॒ । सर्वे॑ । मा । ते । जी॒वि॒षु॒: । क॒त॒मत् । च॒न । अह॑: ॥२.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जहि त्वं काम मम ये सपत्ना अन्धा तमांस्यव पादयैनान्। निरिन्द्रिया अरसाः सन्तु सर्वे मा ते जीविषुः कतमच्चनाहः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जहि । त्वम् । काम । मम । ये । सऽपत्ना: । अन्धा । तमांसि । अव । पादय । एनान् । नि:ऽइन्द्रिया: । अरसा: । सन्तु । सर्वे । मा । ते । जीविषु: । कतमत् । चन । अह: ॥२.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 2; मन्त्र » 10
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    हिन्दी (3)

    विषय

    ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (काम) हे कमनीय [परमेश्वर !] (त्वम्) तू (मम) मेरे (ये) जो (सपत्नाः) शत्रु हैं, (एनान्) उनको (जहि) नाश करदे और (अन्धा) बड़े भारी (तमांसि) अन्धकारों में (अव पादय) गिरा दे। (सर्वे ते) वे सब (निरिन्द्रियाः) निर्धन और (अरसाः) निर्वीर्य (सन्तु) हो जावें, और (कतमत् चन) कुछ भी (अहः) दिन (मा जीविषुः) न जीवें ॥१०॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर की प्रार्थना उपासना से आत्मिक बल बढ़ाकर शत्रुओं का सर्वथा नाश करें ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(जहि) नाशय (अन्धा) अन्ध दृष्टिनाशे-अच्। निबिडानि (तमांसि) अन्धकारान् (अव पादय) अधो गमय (एनान्) शत्रून् (निरिन्द्रियाः) इन्द्रियं धनम्-निघ० २।१०। निर्धनाः (अरसाः) निर्वीर्याः (ते) सपत्नाः (मा जीविषुः) मा प्राणान् धारयन्तु (कतमत् चन) किमपि (अहः) दिनम्। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    'निरिन्द्रियाः, अरसा:' सपत्नाः

    पदार्थ

    १. हे (काम) = कमनीय प्रभो! (त्वम्) = आप (मम ये सपत्नाः) = मेरे जो शत्रु हैं, (एनान्) = इन शत्रुओं को (जहि) = नष्ट कर दीजिए और (अन्धा तमांसित अवपादय) = इन्हें घने अँधेरे में नीचे पहुंचा दीजिए। २.(ते सर्वे) = वे सब शत्र (निरिन्द्रिया:) = निर्वीर्य व (अरसा:) = रसहीन-मृतप्राय (सन्तु) = हो जाएँ। वे (कतमत् चन आह:) = कुछ भी दिन (मा जीविषुः) = न जीएँ, अर्थात् मैं शीघ्र ही उन्हें विनष्ट कर सकूँ।

    भावार्थ

    प्रभुकृपा से हम शत्रुओं को पराजित कर पाएँ। हम उन्हें क्षीण करके विनष्ट करनेवाले बनें।

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    भाषार्थ

    (काम) हे कमनीय परमेश्वर ! (त्वम्, जहि) तू मार डाल (ये मम सपत्नाः) जो कि मेरे सपत्न हैं, (एनान्) इन सपत्नों को (अन्धा=अन्धानि तमांसि) अन्धा कर देने वाले तमोगुणों में (अब पारय) नीचे गिरा दे। (सर्वे) वे सब सपत्न (निरिन्द्रिया) हमारी इन्द्रियों का आश्रय न पाएं, (अरसाः सन्तु) इस प्रकार वे रस रहित हो जांय, (ते) वे (कतमत् चन अहः) एक दिन भी (मा जीविसुः) न जीते रहें।

    टिप्पणी

    [अन्धा तमांसि= तमोगुण जीवन, व्यक्ति को अन्धा कर देता है। वह विवेक रहित हुआ सत्पथ को देख नहीं सकता। अरसाः= विषय भोग जन्य संस्कार सपत्नों के रस रूप हैं, (मन्त्र ९ की व्याख्या) जिन द्वारा सींची जा कर भोगवासनाएं प्ररोहित होती रहती हैं। इसी रस का विनाश गीता में कहा है (मन्त्र ९)]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kama: Love and Determination

    Meaning

    O Kama, love divine, destroy all those forces that are my adversaries and enemies, throw them to the bottomless deep of darkness. Let them all be reduced to total inertness and disvitality. Let them have no life even for a day.

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    Translation

    O Kama, may you slay them, who are my rivals. May you throw them into blinding darknesses (andha-tamas). May all of them be devoid of manly strength and sap. May they not live even a single day.

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    Translation

    O mine Self! exterminate them which are my internal enemies (Aversion, anger etc; hurl them head-long to the depth of binding darkness. Let them be away from our orgens, let them be powerless and let none of them have a single day’s existence.

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    Translation

    Remove my internal moral foes, O true determination! Headlong to depth of blinding darkness hurl them. Bereft be they all of manly strength and vigor. Let them not have a single day’s existence.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(जहि) नाशय (अन्धा) अन्ध दृष्टिनाशे-अच्। निबिडानि (तमांसि) अन्धकारान् (अव पादय) अधो गमय (एनान्) शत्रून् (निरिन्द्रियाः) इन्द्रियं धनम्-निघ० २।१०। निर्धनाः (अरसाः) निर्वीर्याः (ते) सपत्नाः (मा जीविषुः) मा प्राणान् धारयन्तु (कतमत् चन) किमपि (अहः) दिनम्। अन्यद् गतम् ॥

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